राष्ट्रगान सम्मान की अस्पष्ट नीति

By: Jan 15th, 2018 12:07 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि कोई भी ऐसा कानून नहीं है जो राष्ट्रगान को अनिवार्य बनाता हो। अगर राष्ट्रगान बजने के दौरान कोई इसे गाता नहीं है, तो यह अपराध नहीं है। परंतु कोर्ट ने राष्ट्रगान के दौरान खड़े न होने से संबंधित विषय को संबोधित नहीं किया, उसने केवल गाने तक अपनी सीमा रखी। कोर्ट ने फैसले में संदेश दिया : ‘हमारी परंपरा हमें सहनशीलता का पाठ पढ़ाती है, हमारा दर्शन हमें सब्र सिखाता है, हमारा संविधान भी यही कहता है, हमें इससे भटकना नहीं चाहिए…

जब मैं सियालकोट, जो अब पाकिस्तान में है, में था तो मैं नियमित रूप से छावनी में सिनेमा हाल जाया करता था। उस समय मुझे जिस बात का दुख होता था, वह यह था कि मुझे ब्रिटिश राष्ट्रगान-गॉड सेव दि किंग के लिए खड़े होना पड़ता था। सिनेमा हाल चिटकनी नहीं लगाते थे तथा इसे व्यक्ति पर छोड़ दिया जाता था कि उसे कैसे व्यवहार करना है। ब्रिटिश राष्ट्र गान चलने के दौरान कोई बाध्यता नहीं थी, लेकिन फिर भी आपसे अपेक्षा की जाती थी कि आप खड़े होंगे। ब्रिटिश शासक जनता के अधिकारों के प्रति संवेदनशील थे, इसलिए उन्होंने राष्ट्रगान के दौरान खड़ा होना अनिवार्य नहीं बनाया तथा जो खड़े नहीं होते थे, उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई नहीं होती थी। धीरे-धीरे भारतीय फिल्मों के अंत में ब्रिटिश राष्ट्रगान बजाने की परंपरा खत्म हो गई, ताकि राजा अथवा रानी का अपमान न हो। आजादी के बाद भारत में कई बार सिनेमा हाल में राष्ट्रगान बजाने को लेकर कानूनी हस्तक्षेप भी हुआ है। वर्ष 2003 में महाराष्ट्र विधानसभा ने एक आदेश पारित किया, जिसके तहत सिनेमा हाल में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान अनिवार्य किया गया। 1960 में यह कानून बना कि फिल्म खत्म होने के बाद राष्ट्रगान चलाया जाए। लेकिन फिल्म देखने के बाद लोग सीधे हाल से बाहर निकल जाते थे, जिसके कारण इस तरह की परिपाटी को रोक दिया गया।

अब जो कानून अस्तित्व में हैं। वे किसी को खड़ा होने अथवा राष्ट्रगान गाने के लिए बाध्य नहीं करते। दि प्रिवेंशन ऑफ इनसल्ट्स टू नेशनल ऑनर एक्ट, 1971 कहता है ः ‘जो व्यक्ति जानबूझ कर राष्ट्रगान नहीं गाएगा अथवा गायन के दौरान इस उद्देश्य से एकत्र समूह में कोई अड़चन पैदा करता है, तो अधिकतम तीन साल तक की जेल अथवा वित्तीय दंड या दोनों ही सजाएं हो सकती हैं।’ आधिकारिक रूप से तय है कि राष्ट्रगान को 52 सेकेंड में गाना होगा, हालांकि सिनेमा हाल में इसके गायन में आम तौर पर ज्यादा समय लग जाता है। वर्ष 2015 के गृह मंत्रालय के एक आदेश में कहा गया है ः ‘जब भी राष्ट्रगान बजाया अथवा गाया जाता है, तो दर्शकों को इसकी ओर ध्यान देना होगा। लेकिन राष्ट्रगान अगर किसी फिल्म का हिस्सा हो, तो यह जरूरी नहीं है कि राष्ट्रगान के लिए खड़ा हुआ जाए क्योंकि इससे फिल्म के प्रदर्शन में व्यवधान पैदा हो सकता है अथवा अव्यवस्था पैदा हो सकती है। ऐसी स्थिति में खड़े होने से राष्ट्रगान के प्रति सम्मान के बजाय व्यवस्था में खलल पैदा होगा।’ अब तक प्रचलित कानून विशेष रूप से कहता है कि यह मसला लोगों की अच्छी भावना पर छोड़ दिया गया है। इससे जुड़े कई कानून हैं जो यह बताते हैं कि किसके लिए राष्ट्रगान बजाया जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर राष्ट्रगान राष्ट्रपति के लिए गाया जाता है, न कि प्रधानमंत्री के लिए। यह भी कि लोग सामूहिक रूप से कब राष्ट्रगान गा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का प्रयोजन तथा इसके उल्लंघन पर सजा जब स्पष्ट न हो तो आजादी के विचार को किस रूप में लिया जाता है, इसके संबंध में कई निश्चित मिसालें हैं जो राष्ट्रवादी मनोरथ से सुसंगत होती हैं।

जैसी कि अब स्थिति है, ऐसा कोई न्यायिक फैसला, कानूनी प्रावधान या फिर प्रशासकीय आदेश नहीें है जो राष्ट्रगान के दौरान लोगों के लिए खड़ा होना जरूरी बनाता हो। लोग जो करते हैं, वह निश्चित रूप से वैयक्तिक सम्मान की अभिव्यक्ति है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि सिनेमा हाल में फिल्म के प्रदर्शन से पहले राष्ट्रगान बजाया जाना चाहिए और दर्शकों को इसके सम्मान में खड़े होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोगों को यह अनुभव करना चाहिए कि वे एक राष्ट्र में रहते हैं और राष्ट्रगान व राष्ट्रीय झंडे के प्रति सम्मान दर्शाया जाना चाहिए। अक्तूबर 2017 में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने संकेत दिए कि 2016 के आदेश में संशोधन होगा। उन्होंने कहा ‘लोगों को क्यों अपने आवरण पर देशभक्ति पहननी चाहिए? लोग सिनेमा हाल में मनोरंजन करने के लिए जाते हैं। समाज को उस मनोरंजन की जरूरत होती है।’ लेकिन सरकार ने कोर्ट को बताया है कि वह नवंबर 2016 से पहले की स्थिति बहाल करने के लिए विचार कर सकती है। उस समय सिनेमा घरों के लिए राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य नहीं था। सरकार ने कहा कि माननीय कोर्ट यथास्थिति के उल्ट स्थिति बहाल करने पर विचार कर सकती है अर्थात 30 नवंबर, 2016 को कोर्ट की ओर से पारित आदेश से पहले की स्थिति को बहाल करना। इस आदेश के एक निर्देश (डी) में सभी सिनेमा हाल में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य किया गया है। कुछ साल पहले केरल के एक कोर्ट ने एक स्कूल को आदेश दिया कि वह राष्ट्रगान के दौरान खड़े न होने पर स्कूल से निकाले तीनों छात्रों को वापस ले, हालांकि यह भी कहा गया कि ये बच्चे राष्ट्रगान के दौरान खड़े हुए थे। बच्चों का कहना था कि उनका धर्म अपने धर्म से जुड़ी परंपराओं के अलावा अन्य किसी परंपरा के पालन की अनुमति नहीं देता। उन्होंने जैनोवाह को अपना भगवान बताया। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि कोई भी ऐसा कानून नहीं है जो राष्ट्रगान को अनिवार्य बनाता हो। अगर राष्ट्रगान बजने के दौरान कोई इसे गाता नहीं है, तो यह अपराध नहीं है। परंतु कोर्ट ने राष्ट्रगान के दौरान खड़े न होने से संबंधित विषय को संबोधित नहीं किया, उसने केवल गाने तक अपनी सीमा रखी। कोर्ट ने फैसले में संदेश दिया ः ‘हमारी परंपरा हमें सहनशीलता का पाठ पढ़ाती है, हमारा दर्शन हमें सब्र सिखाता है, हमारा संविधान भी यही कहता है, हमें इससे भटकना नहीं चाहिए।’

दुर्भाग्य से किसी स्पष्ट फैसले के अभाव में विभिन्न राज्यों के हाई कोर्ट ने इस संबंध में विविध फैसले दिए हैं। मिसाल के तौर पर अगस्त, 2014 में केरल में पुलिस ने दो महिलाओं समेत सात लोगों पर इसलिए कार्रवाई की, क्योंकि वे राष्ट्रगान बजाने के दौरान खड़े नहीं हुए थे। इनमें एक व्यक्ति 25 वर्षीय सलमान भी था जिसने हूटिंग की और बैठा रहा। उसे हिरासत में लिया गया। उसने फेसबुक पर राष्ट्रीय झंडे को लेकर भी प्रतिकूल टिप्पणी की। मेरा इस मामले में मानना है कि इस संबंध में एक स्पष्ट आदेश होना चाहिए। अब तक के कुछ आदेश राष्ट्रगान के दौरान खड़े होने को अनिवार्य मानते हैं, जबकि कुछ अन्य आदेश इसमें छूट देते हैं। ऐसी स्थिति एक राष्ट्र के लिए ठीक नहीं है।

 ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

 


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