‘लाभ’ के मारे, 20 बेचारे

By: Jan 22nd, 2018 12:05 am

यह संविधान के अनुच्छेदों 102 (1) और 191 (1) का सरासर उल्लंघन है। यह जनप्रतिनिधित्व कानून की धाराओं के भी खिलाफ है। बेशक संसदीय सचिव बने विधायकों ने कोई भी वेतन, भत्ते, वाहन और सुविधाएं नहीं लीं, लेकिन सवाल है कि विधायकों को संसदीय सचिव क्यों बनाया गया? विधायकों को लाभ के पद क्यों दिए गए? मंसूबे साफ हैं, बेशक सफाई कुछ भी दी जाती रहे। दिल्ली हाई कोर्ट ने भी इन नियुक्तियों को ‘असंवैधानिक’ करार दिया था। फिर 1997 के कानून में संशोधन कर विधायकों को ‘लाभ के पद’ से बाहर लाने वाला बिल पारित क्यों किया गया? तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने उस बिल को नामंजूर कर दिया था। वकील प्रशांत पटेल की शिकायत पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ही चुनाव आयोग की राय मांगी थी, तो वह सामने है। चुनाव आयोग ने ‘लाभ के पद’ पर आसीन आम आदमी पार्टी (आप) के 20 विधायकों को ‘अयोग्य’ करार देते हुए उनकी सदस्यता समाप्त करने का फैसला किया है और यह सिफारिश राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अंतिम निर्णय के लिए भेज दी है। अपेक्षा की जाती है कि अकसर राष्ट्रपति ऐसी सिफारिशें मान लेते हैं और अपने फैसले की घोषणा गृह मंत्रालय के जरिए करते हैं। चुनाव आयोग इस संदर्भ में एक विशेषज्ञ संवैधानिक संस्था है। मौजूदा प्रकरण में सवाल चुनाव आयोग की निष्ठा, तटस्थता और संवैधानिक ईमानदारी पर भी उठे हैं। आयोग ने 23 जून, 2017 के एक सर्कुलर में लिखा था कि विधायकों की सदस्यता आयोग के न्यायिक दायरे में है। आगे की सुनवाई की जाएगी, लेकिन तथ्य यह है कि सुनवाई एक दिन भी नहीं की गई और 19 जनवरी, 2018 को 20 विधायकों को ‘अयोग्य’ घोषित कर दिया गया। अब अंतिम निर्णय राष्ट्रपति के पाले में है। हालांकि दिल्ली हाई कोर्ट सोमवार को एक बार फिर सुनवाई जरूर करेगी। ‘आप’ के ये बेचारे विधायक मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की खुदमुख्तारी के शिकार हुए हैं। जब केजरीवाल संसदीय सचिवों की ‘रेवडि़यां’ बांट रहे थे, तब ‘आप’ के ही कुछ नेताओं ने भी सवाल किए थे, केजरीवाल को सचेत किया था, लेकिन मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार का हवाला देते हुए केजरीवाल ने दखल नहीं देने की बात कही थी। मुख्यमंत्री केजरीवाल संविधान और कायदे-कानून की स्वतः ही व्याख्या करते रहे हैं, नतीजतन मुसीबतों में फंसते रहे हैं। इस मामले के जरिए संविधान ने केजरीवाल को आईना दिखाया है। ‘आप’ और सरकार को अदालतों से मुक्ति नहीं मिल पा रही है। सिर्फ 20 विधायकों पर ही तलवार नहीं लटक रही है, बल्कि 27 अन्य विधायक भी चुनाव आयोग के विचाराधीन हैं। उन्हें केजरीवाल ने ‘रोगी कल्याण समितियों’ की अध्यक्षता दे रखी है। इस सूची में 10 विधायक ऐसे हैं, जिन्हें चुनाव आयोग पहले ही ‘अयोग्य’ घोषित कर चुका है। लिहाजा 17 विधायक और हैं, जिनकी सदस्यता पर तलवार लटकी है। ‘लाभ के पद’ सांसदों और विधायकों के लिए हैं और वे केंद्र तथा राज्य सरकारों में अच्छी तरह परिभाषित हैं। लिहाजा केजरीवाल और ‘आप’ के अन्य नेता दूसरे राज्यों के उदाहरण न दें, जहां संसदीय सचिव बनाए जाते रहे हैं और अब भी हैं। दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है और उसका संविधान भी भिन्न है। लिहाजा बार-बार प्रधानमंत्री मोदी को कोसना और अब चुनाव आयोग को प्रधानमंत्री का एजेंट करार देना बेहद आपत्तिजनक हरकतें हैं। केजरीवाल और ‘आप’ के नेताओं ने इसे अपनी आदत में शुमार कर लिया है। फरवरी, 2015 में केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली में ‘आप’ ने ऐतिहासिक चुनावी सफलता हासिल करते हुए विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीती थीं। अब ‘आप’ की 66 सीटें हैं और भाजपा की सिर्फ चार और कांग्रेस के खाते में ‘शून्य’ है। यदि ‘अयोग्य’ 20 विधायकों की सदस्यता भी रद्द हो जाती है, तो भी केजरीवाल सरकार के पक्ष में बहुमत होगा। बेशक इन तीन सालों की सत्ता के दौरान केजरीवाल सरकार ने निराश किया है और दिल्ली को कोई भी विजन नहीं दे पाई है। फिर भी निचले आय-वर्ग के कुछ तबके ऐसे हैं, जो ‘आप’ के घोर समर्थक हैं, लिहाजा ‘आप’ को चुनावी रेस से बाहर मानने की गलती कभी नहीं करनी चाहिए, लेकिन केजरीवाल की ‘नायक’ के तौर पर छवि पर कई दाग लगे हैं। वह और संपूर्ण ‘आप’ भ्रष्टाचार के खिलाफ एक क्रांतिनुमा आंदोलन की देन हैं, लेकिन अब वह आंदोलन नाकाम साबित हुआ है और केजरीवाल की सत्ता भी आम बुर्जुआ सरकारों और पार्टियों से भिन्न नहीं है।


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