विज्ञान के सहारे हो जल का प्रबंधन

By: Jan 24th, 2018 12:05 am

राकेश शर्मा

लेखक, भू-जल विज्ञानी हैं

पानी के रखरखाव और प्रबंधन के लिए परंपरागत विधियों के साथ-साथ वैज्ञानिक हस्तक्षेप भी बहुत जरूरी है। यह कार्य कोरी खानापूर्ति के बजाय सतह पर नजर आना चाहिए। इसके लिए, प्राकृतिक जल संसाधनों से जुड़ी तमाम संस्थाओं में वैज्ञानिक विंग मजबूत किए जाने चाहिएं…

पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में जल संकट कोई बड़ी त्रासदी तो नहीं, फिर भी बढ़ती जरूरत और आबादी, आधुनिकीकरण, बदली जीवनशैली, अंधाधुंध उपभोग, वनों का घटना, अवैज्ञानिक खनन, मौसमी बदलाव, ग्लेशियरों का घटना, पृथ्वी का बढ़ता तापमान और अप्रभावी वितरण के कारण भयंकर जल संकट की आशंका समय-समय पर सुनने को मिलती रहती है। हिमाचल प्रदेश सुंदर पहाड़ों, घाटियों, नदियों, झीलों, झरनों, सुहावने मौसम, झरनों और घने जंगलों के लिए मशहूर है। हिमालय का भारत में जल चक्र संचालित करने में विशेष योगदान रहा है। हिमालय से निकलकर कई नदियां-नाले निचले इलाकों में पानी की प्यास बुझाते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में ऊपर से नीचे की तरफ नदियों में जल बहाव की मात्रा बढ़ती जाती है, क्योंकि पहाड़ों में पाए जाने वाला भू-जल, झरने और रिसाव नदियों में ही मिलते जाते हैं। मैदानी इलाकों में इसके विपरीत ऊपर से नीचे की तरफ नदियों में बहने वाले पानी की मात्रा कम होती जाती है, क्योंकि नदियों का जल बहाव भू-जल में मिलता जाता है।

कुछ दशक पहले तक लोग पानी के लिए बावडि़यों, कुओं, झरनों, डिग्गियों, तालाबों एवं छतों पर पड़ने वाले बारिश के पानी पर निर्भर थे और इनके संरक्षण के लिए वे बहुत सचेत थे। इन पानी के स्रोतों से लोगों का धार्मिक जुड़ाव भी काफी था। पानी के स्रोतों का रखरखाव सबकी सामूहिक जिम्मेदारी थी। अस्सी के दशक में पानी की स्कीमें बनना शुरू हुईं। पहले ये स्कीमें झरनों, नदियों-नालों द्वारा ग्रेविटी के माध्यम से बनाई जाती थीं। धीरे-धीरे बदलते मौसम, वन कटाव, बढ़ती आबादी के कारण इन प्राकृतिक स्रोतों और नदी-नालों में बहाव घटना शुरू हुआ और ग्रेविटी के साथ-साथ लिफ्ट स्कीमें प्रचलन में आईं। नब्बे के दशक में प्रदेश में बड़े पैमाने पर भूमिगत जल का दोहन हैंडपंप और ट्यूबवेल से शुरू हुआ और फिर पानी के स्रोतों के रूप में नदी-नालों के साथ-साथ भूमिगत जल पर निर्भरता बढ़ती चली गई। देखते ही देखते भूमिगत जल पानी की स्कीमों के लिए अहम स्रोत बन गया। भू-जल, सतही जल से कम खर्चीला, विश्वसनीय, दीर्घ कालीन और भंडारण में काफी अधिक मात्रा में पाया जाता है। भू-जल में बीमारी पैदा करने वाले जीवाणु और कीटाणु भी नहीं पाए जाते। भू-जल, जमीन में छिपे होने के कारण इसके भंडारण और उपलब्धता को समझना बहुत ही जटिल काम है, जिसमें विशेषज्ञों को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। विडंबना यह है कि भू-जल का विकास व प्रबंधन, गैर भू-जल विशेषज्ञों द्वारा नियंत्रित किया जाता रहा है। इसलिए शायद उतने दूरगामी परिणाम नहीं आ पाते। हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य में जल का रखरखाव व प्रबंधन भू-आकृति व भू-जल विज्ञान, वनस्पति और मौसम विज्ञान को ध्यान में रखकर किया जाना जरूरी है।

कालेजों और विश्वविद्यालयों में भू-विज्ञान पढ़ने वालों की कतार वैसे तो पहले से ही कम थी, अब और घटती जा रही है। जो विद्यार्थी विश्वविद्यालयों से निकल भी रहे हैं, उनको सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं में विशेषज्ञों के तौर पर नौकरी का मौका या तो बहुत कम है या जहां है भी वहां पारंपरिक कार्यप्रणाली में विशेषज्ञ घुटन महसूस करते हैं। आज के इस हाईटेक दौर में पानी पर कार्य करने वाले सभी विभागों और संस्थाओं में विशेषज्ञों की सलाह पर कार्य किया जाना चाहिए, जिससे विशेषज्ञों का मनोबल भी बना रहे। पानी के रखरखाव और प्रबंधन के लिए परंपरागत विधियों के साथ-साथ वैज्ञानिक हस्तक्षेप भी बहुत जरूरी है। यह कार्य कोरी खानापूर्ति के बजाय सतह पर नजर आना चाहिए। इसके लिए, प्राकृतिक जल संसाधनों से जुड़ी तमाम संस्थाओं में वैज्ञानिक विंग मजबूत किए जाने चाहिएं। जल प्रबंधन के लिए पांडोल (मेजर, माइनर और माइक्रो वाटरशैड) का विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन जरूरी है। इस अध्ययन में भू-विज्ञान व भू-आकृति विज्ञान, जल विज्ञान और वनस्पति एवं मौसम विज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। जमीन, जल और जंगल आपस में एक-दूसरे पर निर्भर हैं और इनको बचाने के लिए प्रभावशाली तंत्र असरदार क्रियान्वयन के साथ विकसित किया जाना चाहिए। सरकारी एवं गैर सरकारी जल प्रबंधन संस्थाएं प्रभावी विज्ञान आधारित व स्वतंत्र होनी चाहिएं। अन्य संस्थाएं जो कृषि, ग्रामीण विकास, वन, सिंचाई इत्यादि जो पानी पर कार्य करती हैं, उनका कार्य एकीकृत होना चाहिए। स्थानीय हालात के अनुसार स्थानीय हिस्सेदारों के साथ मिलकर योजना बननी चाहिए।

पानी पारिस्थितिकी का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। शहरीकरण, कंकरीटनुमा संस्कृति, नदी-नालों पर कब्जा, पानी की कई निजी स्कीमें, वितरण में लीकेज को नियंत्रित किया जाना अत्यावश्यक है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के ऊपर स्थानीय स्रोत आधारित छोटी-छोटी स्कीमों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए, जिनका आधार फिजिबिलिटी का गहन अध्ययन होना चाहिए और पानी के स्रोतों के रखरखाव, विकास व स्थिरता पर मुख्य फोकस होना चाहिए। कुछ जल संसाधन विकास परियोजनाएं बहु-उद्देशीय भी हो सकती हैं, जिनमें मुख्य रूप से पीने के पानी व सिंचाई के साथ-साथ बाढ़ नियंत्रण, पर्यटन विकास, पनबिजली, मछली पालन इत्यादि स्थानीय हिस्सेदारों की आर्थिकी मजबूत करने के अलावा जल रिसाव द्वारा जल संरक्षण भी किया जा सकता है। शहर के कचरे का निपटान ऐसी जगह हो, जिससे पानी की गुणवत्ता व उपलब्धता पर कोई प्रतिकूल असर न पड़े। अंत में पानी के रखरखाव में असरदार वैज्ञानिक प्रबंधन व ईमानदार क्रियान्वयन का सबसे अधिक महत्त्व है।


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