वृहद परिप्रेक्ष्य में दश गुरु परंपरा

By: Jan 28th, 2018 12:05 am

पुस्तक समीक्षा

* किताब का नाम : मध्यकालीन दश गुरु परंपरा-भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय

* लेखक : प्रो. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

* प्रकाशक-हिमाचल रिसर्च इंस्टीच्यूट, चकमोह, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश

* मूल्य : पचास रुपए (पेपरबैक)

भारत में मध्य कालीन दश गुरु परंपरा के अवदान और प्रभाव को एक क्षेत्र विशेष के सदंर्भ में समेट कर देखने का चलन जैसा बन गया है। निश्चित रूप से प्रत्येक परंपरा का एक ऐसा अभिकेंद्र होता है, जहां पर उसकी तीव्रता और ताप को सर्वाधिक महसूस किया जा सकता है। यह बहुत स्वाभाविक भी है। जिस क्षेत्र में किसी परंपरा की सक्रियता अधिक रहती है और जहां का समाज किसी परंपरा से सर्वाधिक समृद्ध और संरक्षित होता है, लगाव और प्रभाव का स्तर भी वहां पर अधिक होता है। पर ऐसा कहां होता है कि परंपरा अभिकेंद्र में ही सिमट जाए? प्रत्येक परंपरा की परिधि भी होती है। अकादमिक दृष्टि से किसी भी परंपरा के सम्यक आकलन के लिए अभिकेंद्र की पहचान के साथ परिधि की यात्रा करना आवश्यक है। प्रो. कुलदीप चंद अग्निहोत्री की नई पुस्तक ‘मध्यकालीन दश गुरु परंपरा : भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय’ में परंपरा के आकलन का यह सूत्र दिखता है। यह किताब परिधिगत प्रभावों सहित गुरु नानक देव जी से प्रारंभ होकर गुरु गोबिंद सिंह जी तक चलने वाली दश गुरु परंपरा का आकलन करने की कोशिश करती है और इस परंपरा के प्रभाव और प्रासंगिकता को एक वृहद फलक प्रदान करती है। किताब के इस वृहद फलक में दश गुरु परंपरा क्षेत्रीय न होकर राष्ट्रीय हो जाती है। लेखक की मान्यता है कि दश गुरु परंपरा प्रारंभ से ही राष्ट्रीय दृष्टिकोण से ओतप्रोत थी। संभवतः इसी कारण इस परंपरा के अधिकांश गुरु निरंतर पूरे देश का प्रवास करते रहे और समाज की उन कमजोरियों को ओर इंगित करते रहे, जिनके चलते देश का आत्मबल क्षीण हुआ और विदेशी आक्रमणकारी इसे पराजित करने में सफल रहे। पुस्तक की बड़ी खूबी वे संदर्भ हैं, जो दश गुरु परंपरा के राष्ट्रीय दृष्टिकोण से हमारा परिचय कराते हैं। मसलन, जब बाबर अपनी सेना लेकर अफगानिस्तान को पार करता हुआ पंजाब की ओर बढ़ रहा था तो गुरु नानक देव जी ने  इसके दूरगामी परिणामों को देख लिया था और इसे हिंदुस्तान पर हमला घोषित कर भविष्य की रणनीति का संकेत भी दे दिया था। उसी समय उन्होंने जन-जन के स्तर पर मध्य एशिया से आए विदेशी आक्रमणकारी बाबर को चुनौती दी। गुरु नानक देव जी ने कहा-

खुरासान खसमाना कीआ हिंदुसतानु डराइआ।।

आपै दोस ने देई करता जमु करि मुगलू चड़ाइआ।।

एती मार पेई कुरलाणै तैं की दरदु न आइआ।। ( आसा महला 1)

यह अकेला उद्वरण दश गुरु परंपरा को नए और व्यापक दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित करता है। भारतीय संस्कृति जीवन के विविध आयामों में संतुलन स्थापित करने पर बल देती रही है। दार्शनिक विकृतियों के कारण मध्यकाल आते-आते संतुलन को साधने की प्रवृत्ति भारतीय समाज में क्षीण हो गई थी। दश गुरु परंपरा ने भारतीय समाज में किसी एक पुरुषार्थ के अतिरेक के दुष्प्रभावों से बचने एवं उनमें संतुलन बिठाने हेतु प्रथम मीरी-पीरी और कालांतर में संत-सिपाही की अवधारणा प्रचलित की। इसके कारण भारतीय समाज में प्रतिरोध की शक्ति और राष्ट्रीयता की भावना आई। यह दश गुरु परंपरा का भारत को दिया गया अतिशय महत्त्वपूर्ण अवदान है। किताब में संत-सिपाही की मान्यता के दो महत्त्वपूर्ण प्रतीकों बंदा सिंह बहादुर और महाराजा रणजीत सिंह के कठिन संघर्षों का प्रेरक उल्लेख मिलता है। संत-सिपाही की मान्यता पर आधारित दश गुरु परंपरा के राष्ट्रीय संदर्भों में मूल्यांकन के कारण तो यह किताब महत्वपूर्ण बन ही जाती है। औपनिवेशिक कालखंड में दश गुरु परंपरा को सीमित दायरे में बांधने के जो प्रयास शुरू हुए थे, वे अब भी किसी न किसी रूप में जारी हैं, ऐसे दायरों के प्रति सजग होने के लिए यह जरूरी किताब है।

                                                                                                                                                       -डा. जेपी सिंह

 


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