व्यवस्थागत बेड़ियों ने जकड़ा स्मार्ट इंडिया

By: Jan 25th, 2018 12:10 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

आम आदमी का रोजमर्रा का वास्ता स्थानीय स्वशासन और राज्य सरकार से है, जबकि यह हमारी शासन व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी है। शहरों में पार्षद, विधायक, सांसद चुने जाते हैं, लेकिन उनकी शक्तियां परिभाषित नहीं हैं और किसी को भी मालूम नहीं है कि किस समस्या के समाधान के लिए किसके पास जाया जाए। संसदीय व्यवस्था की हमारी प्रणाली पार्षदों, विधायकों, सांसदों को तो शक्तिहीन बनाती ही है, यह मुख्यमंत्रियों को भिखारी समान बनाती है…

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तकनीक का प्रयोग बखूबी करते हैं। वह अपनी हर बात को नारों की शक्ल देने में भी माहिर हैं। मोदी के मन में सपनों की बाढ़ है और वह बहुत कुछ करना चाहते हैं। उन्होंने बहुत कुछ करने की कोशिश की है। कहीं सफलता मिली, तो कहीं वह अपना जलवा दिखाने के जुगाड़ में हैं। कहीं जनता ने उन्हें कंधों पर उठाया है, तो कहीं नौकरशाही के जंगल ने फाइलों पर चुपचाप धूल जमने दी है। नौकरशाही का मकड़जाल, मंत्रालयों की भरमार और कानून का जंगल, ये सब हमारी सफलता में रोड़े बन रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया’, ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘नमामि गंगे’, ‘स्मार्ट पुलिस’, ‘स्मार्ट सिटी’ आदि घोषणाओं के माध्यम से कई नई योजनाओं का सूत्रपात किया। उनकी सरकार अब अपने आखिरी चरण में है। इस वर्ष का बजट इस सरकार का आखिरी बजट होगा और निश्चय ही इस बजट में अगले चुनाव की तैयारी के सूत्र होंगे।

विश्व मंच पर मोदी ने गर्व से भारत का झंडा फहराया है और सारा संसार भारत को एक नई निगाह से देखने लगा है। मोदी की विदेश नीति इस रूप में सफल है कि अब भारतवर्ष को संभावनाओं के देश के रूप में पहचाना जाने लगा है और अमरीकी राष्ट्रपति तक को मोदी की नकल करनी पड़ रही है। उनकी दावोस की सफल यात्रा ने उनकी छवि में कई और फुनगे लगा दिए हैं और उनका लगातार विरोध करने वाले पत्रकारों का समूह भी उनकी प्रशंसा के गीत गा रहा है। इस महत्त्वपूर्ण विश्व मंच पर एक बार फिर अपनी जादूगरी दिखाई है और नेताओं, उद्यमियों व राजनीतिक विश्लेषकों को समान रूप से प्रभावित किया है। इससे कहीं न कहीं भारत की छवि भी मजबूत हुई है और इसका श्रेय मोदी को ही जाता है। मोदी की सफलताओं की बहुत सी कहानियां हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपने दल की साख बढ़ाई है। सोलह राज्यों में भाजपा की सरकार है और अभी गिनती जारी है। लोकसभा का चुनाव आते-आते कुछ और राज्यों में भी भाजपा सरकार बनने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। मोदी की इन सारी सफलताओं के बावजूद उनकी छवि का एक दूसरा पहलू भी है, जिसमें वह सिर्फ जुमलेबाज जैसे नजर आते हैं। केंद्र की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं ने जहां भारत की जनता का दिल जीता था, वहीं इन योजनाओं को अमलीजामा पहनाने में हो रही देरी उनकी छवि को धूमिल कर रही है। बहुत सी घोषणाएं तो ऐसी हैं जो खुद सरकार को भी याद नहीं हैं। ये घोषणाएं फाइलों के जंगल में कहां गुम हो गई हैं, इसकी चिंता कहीं दिखाई नहीं देती। केवल एक ही घोषणा ‘स्मार्ट सिटी’ के विश्लेषण से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकारी तंत्र किस तरह से अच्छी योजनाओं पर भी पलीता लगा देता है। शहरीकरण और शहरी विकास की प्रक्रिया को मजबूती देने के लिए सरकार ने पिछले दशक में बहुत सी योजनाएं चलाई हैं और ‘स्मार्ट सिटी’ परियोजना की घोषणा इसमें सबसे ज्यादा आकर्षक, महत्त्वपूर्ण और बड़े फलक की है। ‘स्मार्ट सिटी’ की घोषणा ने पूरे देश का ध्यान खींचा था और इसकी सफलता-असफलता पर बहस जारी है।

‘स्मार्ट सिटी’ परियोजना का मुख्य उद्देश्य यह था कि ऐसे शहरों का विकास किया जाए जो अपने नागरिकों को आवश्यक अधोसंरचना के साथ-साथ अच्छी गुणवत्ता का जीवन स्तर दे सकें, स्वच्छ पर्यावरण प्रदान करें और नागरिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तकनीक से जुड़े ‘स्मार्ट’ समाधान उपलब्ध करवाएं। हालांकि मोदी सरकार ने ‘स्मार्ट सिटी’ की कोई स्टैंडर्ड परिभाषा नहीं दी है, लेकिन मोटे तौर पर यह माना गया है कि पानी और बिजली की पर्याप्त आपूर्ति, कुशल सफाई व्यवस्था, कूड़ा-निष्पादन, दक्ष परिवहन व्यवस्था, किफायती रिहायश, मजबूत सूचना तंत्र और कुशल गवर्नेंस इसके मुख्य तत्त्व होंगे। इस सारी व्यवस्था में तंत्र और तकनीक के साथ-साथ नागरिक भागीदारी पर भी जोर दिया गया था, क्योंकि नागरिकों की भागीदारी के बिना किसी भी योजना के असल लाभ समाज को नहीं मिल पाते हैं।

‘स्मार्ट सिटी’ परियोजना में यह कहा गया था कि हर शहर खुद को स्मार्ट बनाने की अपनी परिभाषा गढ़ेगा और इसके लिए स्थानीय स्वशासन, यानी नगर निगम और उस प्रदेश की सरकार मिलकर स्थानीय स्तर पर एक कंपनी बनाएंगे जो संबंधित राज्य और उस शहर का एक संयुक्त उद्यम होगा, जिसमें राज्य और उस शहर की 50-50 प्रतिशत की भागीदारी होगी। देश भर में ऐसे सौ शहर चुने जाएंगे और पांच सालों में इन सभी शहरों को 48,000 हजार करोड़ रुपए की केंद्रीय सहायता दी जाएगी, जो हर शहर के लिए लगभग 500 करोड़ की रकम बनती है। यह माना गया है कि इस योजना की सफलता के लिए शेष आवश्यक धन स्थानीय निगम अपने स्रोतों से जुटाएगा। दरअसल, यह अकेला ही एक ऐसा पेंच है, जो इस योजना को पलीता लगाने के लिए काफी है। सच तो यह है कि भारतवर्ष में स्थानीय स्वशासन की इकाइयां यानी पंचायतें, नगरपालिकाएं और नगर निगम आदि विश्व भर में सबसे कमजोर मानी गई हैं। यहां नगरपालिकाओं और नगर निगमों को कोई वास्तविक अधिकार नहीं हैं, क्योंकि अनुदान के अलावा उनके पास आय का कोई ठोस साधन नहीं है।

दिक्कत यह भी है कि ‘स्मार्ट सिटी’ को लेकर स्थानीय स्वशासन में अथवा राज्य सरकारों में किसी के पास न तो कोई ‘विचार’ है और न कोई ‘योजना’। ऐसी अवस्था में स्मार्ट सिटी का सपना, बस एक सपना ही है। दरअसल, हमारी व्यवस्था की एक बुनियादी खामी है जिसे कोई दूर करना नहीं चाहता। आम आदमी का रोजमर्रा का वास्ता स्थानीय स्वशासन और राज्य सरकार से है, जिसकी नीतियां उसके दैनिक जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। यह हमारी शासन व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी है। शहरों में पार्षद, विधायक, सांसद चुने जाते हैं, लेकिन उनकी शक्तियां परिभाषित नहीं हैं और किसी को भी मालूम नहीं है कि किस समस्या के समाधान के लिए किसके पास जाया जाए। असल में इन जनप्रतिनिधियों के पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं है। संसदीय व्यवस्था की हमारी प्रणाली पार्षदों, विधायकों, सांसदों को तो शक्तिहीन बनाती ही है, यह मुख्यमंत्रियों को भिखारी समान बनाती है और प्रधानमंत्री जैसे शक्तिशाली व्यक्ति को भी अनैतिक आचरण के लिए विवश करती है। अब हमें यह समझना होगा कि यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि देश का शासन चलाने के लिए हम किस दल को चुनते हैं, बल्कि ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि शासन-प्रशासन के सुचारू कामकाज के लिए हम किस शासन व्यवस्था को चुनते हैं। संसदीय व्यवस्था में बहुत सी ऐसी खामियां हैं, जो हमें निकम्मा बना रहीं हैं और इस व्यवस्था में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की कुछ खूबियों को शामिल किए बिना राजनीति की सफाई संभव नहीं है। गंदी राजनीति और नौकरशाही का मकड़जाल हमारी सबसे बड़ी कमजोरियां हैं, इन्हें दूर किए बिना न लोकतंत्र मजबूत हो सकता है और न ही देश का भला हो सकता है।

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