शून्य लागत खेती से होगा नए युग का सूत्रपात

By: Jan 29th, 2018 12:05 am

अजय पाराशर

लेखक, सूचना एवं जन संपर्क विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय, धर्मशाला में उप निदेशक हैं

कुल मिलाकर आध्यात्मिक कृषि को स्व अर्थात खुद से जुड़ने का मार्ग भी कहा जा सकता है, क्योंकि यह संघर्षमुक्त या हिंसामुक्त आध्यात्मिक कृषि है। यह व्यक्ति को प्रकृति के माध्यम से अपने चित्त में ज्ञान, भक्ति और कर्म का अभूतपूर्वक संगम निर्मित करने का अवसर प्रदान करती है…

प्रकृति का अप्राकृतिक और अनियोजित दोहन हमें तबाही के मुहाने पर लाकर छोड़ देता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में अनियोजित विकास की प्रक्रिया मुसीबत को आमंत्रण देती है। तथाकथित आधुनिक विकास ने संपूर्ण विश्व की चूलें हिला कर रख दी हैं। हम विकास के जितने मर्जी नगाड़े पीटें, धमक में विनाश के अलावा कुछ और सुनाई नहीं देता। हम सब चिंता करते तो हैं, पर रासायनिक और जैविक खेती के नाम पर किसानों का शोषण बदस्तूर जारी है। पहले भूखे पेट को भरने के नाम पर हरित क्रांति और फिर लालच की इंतहा में देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक खेतों में तबाही के ऐसे बीज बोए, जो अब रक्तबीज में परिवर्तित हो चुके हैं।

बेहतर होगा कि खाई में जाने वाले अपने कदमों को मोड़कर, हम अपना और आने वाली पीढि़यों का भविष्य सुरक्षित बनाएं। इसके लिए ऐसा कृषि तंत्र चाहिए जो प्राकृतिक स्रोतों, जैसे जीव, जमीन, जल, पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य को क्षति पहुंचाए बिना, शाश्वत रूप में अक्षुण्ण रखे और उनको सुरक्षा प्रदान करे। इन तमाम स्रोतों को एक ऐसी पद्धति के जरिए उपयोग करना होगा, जिससे अर्थव्यवस्था और नैतिकता बलवान हो और इसी को शाश्वत कृषि कहा जा सकता है। अब प्रश्न उठता है कि क्या रासायनिक कृषि को शाश्वत कृषि कहा जा सकता है? तमाम विसंगतियों को देखते हुए ऐसा कहना न्यायोचित नहीं। आधुनिक या रासायनिक खेती अगर एक रुपए में हो सकती है, तो जैविक खेती पर चार रुपए खर्च होते हैं। इस पद्धति को निर्बाध बनाए रखने के लिए जो तंत्र काम कर रहा है, वह कभी किसानों को अपने चंगुल से छूटने नहीं देगा। किसानों की आत्महत्या की वजह खेती नहीं, आर्थिक है। जो तंत्र किसानों के शोषण पर फल-फूल रहा है, वह कभी नहीं चाहेगा कि किसान उसके पंजे से छूटे। प्रकृति के विरुद्ध जाने से मानव प्रदूषित जल, खाद्यान्न और पर्यावरण झेलने को मजबूर हैं। लेकिन तथाकथित हरित क्रांति के विनाशक, शोषणकारी, अमानवीय और अवैज्ञानिक दोहन ने किसान और उपभोक्ता दोनों को तबाही के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। विडंबना है कि शोषणकर्ता और शोषित सभी प्रदूषणमुक्त खाद्यान्न और पर्यावरण चाहते हैं, लेकिन इसके लिए पूरी तरह ईमानदारी से प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। इसके चलते लोग अभिशप्त जीवन जीने को विवश हैं। मधुमेह, कैंसर, हृदय रोग जैसी जानलेवा बीमारियां लोगों को असमय मौत के मुंह में धकेल रही हैं।

इन तमाम समस्याओं का निदान ऋषि खेती में संभव है और यह पद्धति हमें प्रकृति से जुड़ कर आध्यात्मिक जीवन जीना सिखाती है। देखने-सुनने में भले ही विचित्र लगे, परंतु विदर्भ, तेलंगाना, कर्नाटक, राजस्थान जैसे सूखाग्रस्त राज्यों में ऋषि खेती से बीजे खेत तो लहलहा रहे हैं, परंतु रासायनिक खेती या जैविक पद्धति के तहत की गई कृषि सूखी पड़ी है। कुछ लोगों का कहना है कि छोटी जोतों में आध्यात्मिक खेती संभव नहीं, परंतु सहकारिता से यह भी संभव है। रासायनिक खेती क्रिकेट की तरह है, जबकि ऋषि खेती फुटबाल की तरह। गोल कोई भी करे, जीतेगी टीम ही और प्रयास सामूहिक होंगे। एकजुटता ऐसी खेती का हल है।

यह पद्धति हमें एकाकी नहीं, सामूहिक जीवन की ओर प्रेरित करती है। सबसे बड़ी बात इसमें खर्चा, न के बराबर है। खेत या घर में मौजूद सभी स्रोतों का वैज्ञानिक प्रयोग ही इसका आधार है। इसीलिए इसे जीरो बजट खेती या प्राकृतिक कृषि ईश्वरीय व्यवस्था कहा जाता है। यह पद्धति भूमि में जीव-जंतुओं की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानती है और देशी गाय के गोबर को जामन के रूप में इस्तेमाल करती है। सभी प्रयुक्त संसाधन स्वदेशी होते हैं और मुख्य फसल में जैव विविधता होती है। जीवामृत ऋषि खेती में संजीवनी का कार्य करता है। इसमें प्रयुक्त तमाम संसाधन हमारे आस-पास ही उपलब्ध रहते हैं, अतः शोषण का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। बस आवश्यकता है एक सकारात्मक कदम उठाने की। मन में अगर कोई संदेह हो, तो पद्मश्री सुभाष पालेकर की वेबसाइट या आध्यात्मिक-ऋषि खेती को देखा जा सकता है, परंतु प्रयोग के लिए तो अपने हाथ-पांव मारने होंगे और दिलोदिमाग के दरवाजे भी खोलने होंगे। मेहनत का किसी भी युग में कोई विकल्प नहीं रहा और सफलता कभी आसानी से नहीं मिलती। इस तकनीक के तहत किसी भी फसल, फल, पौधों या पेड़ों पर छिड़काव के लिए घर में ही जीरो बजट दवाइयां बनाई जा सकती हैं। इन दवाइयों में कीटनाशी दवाओं में नीमास्त्र, ब्रह्मास्त्र तथा अग्नि अस्त्र शामिल हैं, जबकि फंजीसाइड दवाओं में फंफूदनाशक, वायवडिंगास्त्र या सोंठास्त्र तथा दशपर्णी अर्क दवा शामिल हैं। कुल मिलाकर आध्यात्मिक कृषि को स्व अर्थात खुद से जुड़ने का मार्ग भी कहा जा सकता है, क्योंकि यह संघर्षमुक्त या हिंसामुक्त आध्यात्मिक कृषि है। यह व्यक्ति को प्रकृति के माध्यम से अपने चित्त में ज्ञान, भक्ति और कर्म का अभूतपूर्वक संगम निर्मित करने का अवसर प्रदान करती है। यह कृषि पद्धति किसान या किसी भी व्यक्ति को अपने मूल की ओर लौटने का मौका प्रदान करती है।

हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल आचार्य देवव्रत और मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर 29 जनवरी को प्रातः 11ः30 बजे पालमपुर स्थित चौधरी सरवण कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय के परिसर में शून्य लागत प्राकृतिक खेती केंद्र की आधारशिला रखेंगे। उम्मीद है कि यह केंद्र आने वाले समय में राज्य में आध्यात्मिक या प्राकृतिक कृषि खेती को नई दिशा प्रदान करने में सफल रहेगा।


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