संसदीय प्रणाली का संविधान के मूल ढांचे से मेल नहीं

By: Jan 31st, 2018 12:07 am

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’

लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

मूल ढांचा सिद्धांत पर आम सहमति नहीं है। डा. सुभाष कश्यप लिखते हैं कि ‘‘संविधान की सभी विशेषताओं को निर्धारित करने वाला ऐसा कोई बहुमत का निर्णय उपलब्ध नहीं है, जिसे आधारभूत माना जा सके।’’ न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ यहां तक कहते हैं कि ‘‘मूल ढांचे के सिद्धांत पर प्रत्येक मामले में अलग से विचार होना चाहिए…

अधिकतर भारतीय मानते हैं कि संसदीय प्रणाली हमारे संविधान के ‘मूल ढांचे’ का भाग है और इसे बदला नहीं जा सकता। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में फैसला सुनाया है कि मूल ढांचा संसद की संशोधन संबंधी शक्तियों के दायरे से बाहर है। परंतु विद्वान और इतिहासकार जानते हैं कि संसदीय प्रणाली भारत के संविधान की आवश्यक विशेषता नहीं है। और न ही संविधान किसी प्रकार की बुनियादी संरचना का अनुमोदन करता है। सुप्रीम कोर्ट ने ‘मूल ढांचा’ के सिद्धांत का आविष्कार अपेक्षाकृत हाल ही में किया है, और अब इसका स्वनियुक्त रखवाला बन गया है। यह हमारे संविधान निर्माताओं के मूल उद्देश्य के विपरीत है।

यह धारणा कि संविधान में ऐसी आवश्यक विशेषताओं का संग्रह है जिन्हें बदला नहीं जाना चाहिए का सूत्रपात सर्वोच्च न्यायालय ने 1967 में गोलक नाथ मामले में किया था। मामला एक निजी संपत्ति से संबद्ध था जिसे राज्य किराएदारी अधिनियम के तहत ‘सरप्लस’ घोषित कर दिया गया था। परंतु न्यायालय 17वें संशोधन के तहत इस मसले की न्यायिक समीक्षा से रोक दिया गया था। गोलक नाथ के अधिवक्ता एनके नांबियार ने तर्क दिया कि संपत्ति रखना मूलभूत अधिकार था जो ‘‘संविधान के मूल ढांचे का भाग हैं,’’ और कि संसद की संशोधक शक्तियों का प्रयोग ‘‘उन अधिकारों की भावना को नष्ट करने के बजाय केवल उनके संरक्षण में किया जा सकता है।’’ न्यायालय सहमत हो गया। परंतु कोर्ट ने इस मूल ढांचे के अन्य तत्त्वों की व्याख्या नहीं की।

यह विडंबना है कि गोलक नाथ फैसले ने केवल संसदीय प्रणाली का एक मूल सिद्धांत ही नहीं तोड़ा—कि संसद सर्वोच्च है—बल्कि न्यायालय के ही कुछ फैसले भी बदल दिए। 1951 में संकरी प्रसाद और 1965 में सज्जन सिंह के मामलों में, दो बार कोर्ट ने माना था कि संसद की संशोधक शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। परंतु अब न्यायालय संसद को कुछ संवैधानिक बदलावों से रोक रहा था, और वह भी बिना स्पष्ट बताए कि वे थे क्या।

भारतीय संविधान किसी विशेषता की व्याख्या ‘‘मूलभूत’’ के रूप में नहीं करता। न ही यह कहता है कि संसद की संशोधन संबंधी शक्तियां किसी भी प्रकार सीमित हैं। इसके विपरीत यह न्यायपालिका की भूमिका सीमित करता है कि वह केवल कानून की व्याख्या और घोषणा करने के लिए है। संविधान विशेषज्ञ और पद्म भूषण पुरस्कार विजेता डा. सुभाष कश्यप लिखते हैं, ‘‘एक स्व-आविष्कृत ‘मूल विशेषताएं’

सिद्धांत के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय अपनी व्याख्या की शक्तियों का विस्तार नहीं कर सकता, और इसके तहत भारतीय राज्य व्यवस्था की सबसे मुख्य विशेषता, जनता की प्रधानता, को नष्ट नहीं कर सकता।’’

फिर भी न्यायालय की स्वघोषित प्रधानता आज दिन तक जारी है। ‘मूल ढांचे’ के सिद्धांत की कई मामलों में पुष्टि कर चुका है : केशवानंद (1973), राज नारायण (1975), मिनर्वा मिल्स (1980), संपत कुमार (1987), किहोटो होलोमॉन (1992), चंद्रकुमार (1997), और नरसिम्हा राव (1998), इनमें से चंद हैं। राष्ट्रीय न्यायिक सेवाएं आयोग बनाने के लिए संवैधानिक संशोधन के प्रति न्यायपालिका के 2015 के इनकार के पीछे भी यही सिद्धांत था।

इस दौरान हमारे न्यायाधीश संविधान के मूल ढांचे की व्याख्या मनमर्जी से करते रहे हैं। वे ऐसी प्रत्येक व्यक्तिगत पसंद और हर सिद्धांत इसमें शामिल कर चुके हैं, जिसे उन्होंने उत्कृष्ट समझा। वे इन्हें विभिन्न प्रकार से मूलभूत विशेषताएं, तत्त्व, ढांचा, और चरित्र, इत्यादि की संज्ञा दे चुके हैं। यहां कुछ उदाहरण हैं कि न्यायाधीशों ने हमारे संविधान में क्या-क्या ऐसा समझा जो बदला नहीं जा सकता : कल्याणकारी राष्ट्र; राष्ट्र का धर्मनिरपेक्ष चरित्र; प्रतिष्ठा और अवसर की समानता; एक समतावादी समाज; मूल अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों के बीच संतुलन, संघवाद, समाजवाद, आदि।

परंतु मूल ढांचा सिद्धांत पर आम सहमति नहीं है। डा. सुभाष कश्यप लिखते हैं कि ‘‘संविधान की सभी विशेषताओं को निर्धारित करने वाला ऐसा कोई बहुमत का निर्णय उपलब्ध नहीं है, जिसे आधारभूत माना जा सके।’’ न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ यहां तक कहते हैं कि ‘‘मूल ढांचे के सिद्धांत पर प्रत्येक मामले में अलग से विचार होना चाहिए।’’

मूल ढांचा सिद्धांत की आधारशिला तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सिकरी ने अपने केशवानंद मामले के फैसले से प्रस्तुत की थी। उन्होंने पांच विशेषताएं सूचीबद्ध कीं : संविधान का प्रभुत्व; प्रजातंत्रवादी और लोकतांत्रिक सरकार; संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र; शक्तियों का पृथक्करण, और संविधान का संघीय चरित्र।

‘संसदीय प्रणाली’ न्यायमूर्ति सिकरी की सूची में शामिल नहीं है। मामले से जुड़े 13 न्यायाधीशों में से मात्र दो ने कहा कि इस प्रणाली का संविधान के मूल ढांचे से कोई संबंध है। जस्टिस एनके रे ने इसका जिक्र तो किया, परंतु केवल एक अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुत 12 आवश्यक विशेषताओं की सूची की पुनर्गणना करते हुए। और न्यायमूर्ति पीजे रेड्डी ने अपनी तजवीज में कहा कि ‘‘संसदीय लोकतंत्र’’ एक मूल विशेषता थी। केशवानंद मामले के बाद कई फैसलों में संसदीय प्रणाली या लोकतंत्र का आधारभूत के तौर पर हवाला तो दिया गया, परंतु केवल अन्य निष्कर्षों के संबंध में : होलोहान (1992), नरसिम्हा राव (1998), चौधरी (2001), कुलदीप नैयर (2006), नवजोत सिद्धू (2005), रामेश्वर प्रसाद (2006), आदि।

संसदीय प्रणाली केवल सिकरी की सूची से गायब ही नहीं, उनकी सूचीबद्ध विशेषताओं में यह फिट भी नहीं होती। सिकरी की पांच में से तीन विशेषताएं—संविधान का प्रभुत्व, शक्तियों का पृथक्करण, और संघवाद—संसदीय प्रणाली के फीचर्स नहीं हैं। जैसा हम सब जानते हैं, ब्रिटेन में उनकी संसद सर्वोच्च है, यहां तक कि उनके संविधान से भी ऊपर। विद्वान यह भी जानते हैं कि संसदीय प्रणाली एक संघ के लिए नहीं बनाई गई है। यह मौलिक रूप से एकात्मक प्रणाली है। और जहां तक इसमें शक्तियों के पृथक्करण के अभाव की बात है, ब्रिटिश संवैधानिक विद्वान वाल्टर बैजहट ने स्टीक कहा है कि संसदीय प्रणाली का ‘‘दक्ष रहस्य’’ है कि इसमें ‘‘कार्यकारी और विधायी शक्तियों का लगभग संपूर्ण विलय है।’’

अगर हमारे संविधान की स्थापना का सिद्धांत शक्तियों का पृथक्करण है, तो संसदीय प्रणाली विशिष्ट रूप से बेकार है। इस प्रणाली की शेखी सरकार में कार्यकुशलता लाना है, जो शक्तियों को पृथक करने के बजाय उन्हें एकत्रित करने से प्राप्त होती है।

कई भारतीय राजनीतिक विचारक समान निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। पूर्व मंत्री अरुण शौरी ने मूल ढांचा सिद्धांत का अध्ययन किया और इसकी तुलना में हमारे संविधान में शक्तियों के बेहतर पृथक्करण के लिए बदलाव प्रस्तुत किए। उदाहरण के लिए सांसदों को मंत्री बनने से रोका जाए। उन्होंने निष्कर्ष निकाला ः ‘‘न्यायालयों को वास्तव में यह आकलन करना होगा कि क्या यह सुझाव मूल संरचना का उल्लंघन करते हैं, या वे उस ढांचे को बचाने का एक रास्ता है।’’

वर्ष 2013 में भाजपा के तत्कालीन महासचिव राजीव प्रताप रूडी ‘‘कार्यपालिका का विधायिका से पृथक्करण सुनिश्चित करवाने’’ के लिए एक प्रस्ताव लेकर राज्यसभा जा पहुंचे। एलके आडवाणी ने भी लिखा है कि  ‘‘सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र, मुक्त और निष्पक्ष चुनावों को ‘मूल विशेषता’ के तौर पर पहचाना है, मूल ढांचा सिद्धांत हमें संसदीय लोकतंत्र से नहीं बांधता।’’

शक्तियों का पृथक्करण प्रभावी शासन के लिए अत्यावश्यक है, क्योंकि निरंकुश शक्ति हमेशा भ्रष्ट हो जाती है। और बेहतर है कि यह लक्ष्य हमारे संविधान की मूल संरचना का एक महत्त्वपूर्ण भाग माना जाता है। परंतु यह एक दुखद विडंबना है कि हमारी मौजूदा संसदीय प्रणाली शक्तियों के पृथक्करण के लिए बिलकुल उपयुक्त नहीं है।

-अंग्रेजी में ‘स्वराज्य’ में प्रकाशित (20 जनवरी, 2018)

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