साहित्य में मोक्ष जैसी चीज नहीं है

By: Jan 21st, 2018 12:05 am

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने गुरमीत बेदी के कहानी संग्रह ‘सूखे पत्तों का राग’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

कुल पुस्तकें  :   12

कुल पुरस्कार  :   20

 प्रमुख पुरस्कार  : हिमाचल साहित्य अकादमी अवार्ड, पंजाब साहित्य अकादमी अवार्ड, राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार, व्यंग्य यात्रा सम्मान, हिप्र राजभाषा सम्मान, हिमोत्कर्ष व रमेश चंद्र पत्रकारिता अवार्ड

किताब के संदर्भ में लेखक

दिहि : जीवन की आशा-निराशा के बीच आपकी रचना का स्रोत कब बहती नदी सरीखा होता है या कब सागर से मिलन में अथाह गहराई के बीच, गुम होती सतह के करीब पहुंचने का प्रयत्न?

बेदी : रचना प्रक्रिया सृजन की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। कवि स्वभाव, कवि दृष्टि और विषय वस्तु के अनुसार वह बनती-बदलती है। रचना प्रक्रिया के भीतर न केवल भावना, कल्पना, बुद्धि और संवेदनात्मक उद्देश्य होते हैं, वरन वह जीवन अनुभव भी होता है जो लेखक के अंतर्जगत का अंग है। जब कोई घटना उद्वेलित करती है और भीतर उथल-पुथल होती है तो निश्चित रूप से भावनाओं का आवेग रचना में बहती नदी सरीखा होने लगता है और फिर यथार्थवादी दृष्टिकोण अनुभव के सागर में गहराई तक जाकर मर्म को छूने का प्रयास करता है।

दिहि :  कल्पना और यथार्थ के बीच रचना का मूल्यांकन प्रायः नई जमीन की तलाश बन जाता है, तो इस यात्रा के पथिक के रूप में आप अपनी अभिव्यक्ति की मंजिल कहां देखते हैं?

बेदी : यथार्थ एक ऐसी सच्चाई है जिसे किसी भी युग का साहित्यकार चाहते हुए भी अनदेखा नहीं कर पाया। जीवन की जटिलता, वैषम्य, संघर्ष आदि का संबंध निश्चित रूप से यथार्थ से है। यथार्थ वह है जो नित्य प्रति हमारे सामने घटता है। उसमें पाप-पुण्य, धूप-छांव और सुख-दुख मिश्रित रहता है। सबसे बड़ा यथार्थ वह है जो हमारे अंदर है और जिसे शब्दों में नहीं रखा जा सकता। शब्दों में आकर उसके मायने व अर्थ खो देने का खतरा रहता है। वैसे भी यथार्थ केवल जीवन के ऐंद्रिय रूप का आकलन नहीं है। मानसिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक, सभी पहलू उसमें समाविष्ट हैं। किसी भी साहित्यकार की रचना प्रक्रिया कल्पना और यथार्थ का मिश्रण रूप होती है। रचना के शृंगार के लिए साहित्यकार काव्यात्मक भाषा और कल्पना का सहारा लेता है, लेकिन रचना के मूल में तो यथार्थ रहता ही है। अपनी साहित्य की यात्रा के पथिक के रूप में यथार्थ को मैंने परछाई की तरह अपने साथ चलते पाया है। इससे विषयों की नई जमीन भी मिली है और समाज के भीतर जो पल रहा है, उसकी धड़कन को भी बराबर महसूस किया है। यही धड़कन लेखनी में स्पंदित होती है।

दिहि : आपकी बेचैनियां जीवन से उठता द्वंद है या समय की प्रासंगिकता में लेखक मन की तफ्तीश, जो हर रचना को साहित्यिक जांच का रास्ता दिखाती है?

बेदी : भीतर बेचैनी न हो तो कोई कैसे लिख सकता है? जीवन के द्वंद्व भी बेचैनी पैदा करते हैं और हमारे आसपास कुछ अनहोना हो रहा हो तो वह भी लेखकीय मन को बेचैन करता है। अपने समय के खौफनाक सत्य के बीच जब हम झांकते हैं या  स्थितियों के बीच खुद को निहत्था पाते हैं तो यही बेचैनी व कशमकश किसी रचना के सृजन का मूल बनती है और वह रचना समय की आंच पर पक कर बाहर आती है।

दिहि : किसी खूंटे पर टंगी कहानी से कितना अलग आप समाज के बीच अपने लिए जो चुन लेते हैं या नफासत से सहेजने का कोई क्रम ही आपकी रचना को मौलिक बना देता है?

बेदी : मैंने कभी किसी निर्धारित फॉर्मेट में कहानी नहीं लिखी या यूं कहिए कि कहानी लिखने के लिए कोई फ्रेम नहीं गढ़ा। जब भी लिखने लगता हूं तो सबसे पहले नजर अपने पर पड़ती है, अपनी जिंदगी पर पड़ती है, अपने अस्तित्व पर पड़ती है, लेकिन इस अपने होने में दूसरे भी शामिल होते हैं। अपनी जिंदगी को दूसरों की जिंदगी के साथ जोड़कर हम सारा कुछ जान लेना चाहते हैं। समाज में इतना कुछ पल रहा है, इतना कुछ घट रहा है कि हमें कहानी के पात्र अपने आसपास मौजूद दिखते हैं। विषय अपने आसपास बिखरे दिखते हैं। यहीं से कहानी का जन्म होता है। स्थितियों को देखने, परखने और घटनाओं को विश्लेषित करने की हमारी दृष्टि ही रचना को मौलिक बनाती है।

दिहि : क्या लिखना हमेशा अपने अभिप्राय का बोझ रहा है या अब तक के साहित्यिक दबाव से कुछ हटाने से रचना प्रयोग में, आधुनिक चेतना को प्रतिनिधित्व मिल रहा है?

बेदी : मैं ऐसा नहीं मानता। मैं जब भी लिखने बैठता हूं या लिखने की कोशिश करता हूं तो मेरे सामने एक दृश्य होता है। मैं उस दृश्य के भीतर उतरता हूं और जो सहेज पाता हूं, उसे अपनी रचना में अभिव्यक्त करने की कोशिश करता हूं। मुझे लगता है कि मेरी कोई जिम्मेदारी अगर बनती है तो वह संवेदनशील इनसान होने की जिम्मेदारी है। एक संवेदनशील रचनाकार के रूप में समाज में उठने वाली हर आवाज को भली-भांति सुनना और संतुलित दृष्टि अपनाते हुए शब्दबद्ध करना लेखन का मुख्य अभिप्राय है। मैंने पहाड़ में रहते हुए यहां के लोक जीवन की जटिलता को निकटता से देखा, परखा व महसूस किया है। आपको मेरी कहानियों में पहाड़, नदी, झरने अपने नैसर्गिक अस्तित्व का एहसास कराते दिखेंगे। समाज और पीढि़यों में आ रहे बदलाव की आहट भी आपको मेरी कहानियों में मिलेगी। यही बदलाव आधुनिक चेतना को प्रतिनिधित्व दे रहा है।

दिहि : नई कहानियों में नया क्या है या जब आप पाठक के रूप में कहानी को समझते हैं तो कलात्मक समृद्धि और भावनात्मक वृद्धि में किस अनुपात में भाषा की तरक्की देखते हैं?

बेदी : मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में से हैं जिन्हें नई कहानी आंदोलन का नायक माना जाता है। उन्होंने ‘आषाढ़ का एक दिन’ के रूप में हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा। नई कहानी आंदोलन ने हिंदी कहानी की पूरी तस्वीर बदली है। एक दौर में मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव नई कहानी के तीन मजबूत स्तंभ रहे। उनकी रचनाएं पाठकों और लेखकों के दिलों को छूती हैं। एक बार जो उनकी रचनाओं को पढ़ता है तो वह पूरी तरह से उनके शब्दों में डूब जाता है। लेकिन इधर स्थिति बदली है। नई कहानियों में नएपन के नाम पर जो तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं, उससे पाठक का मन उचाट हुआ है। लेकिन सुकून की बात यह है कि इधर कुछ युवा कहानीकारों ने कहानी परिदृश्य पर अपनी चमकदार उपस्थिति दर्ज करवाई है। उनके कहने का अंदाज भी नया है और भाषा भी कलात्मक कौशल से लैस है जो अंतस को छूती है।

दिहि : अक्षर को चीरती किसी आह के ठीक सामने कहानी को जिंदा रखने की तवज्जो या आनंद की किसी डुबकी में नहा कर निकलती कविता के बाहुपाश में आपके भीगने का सबब बनता है?

बेदी : भावनाओं का उद्वेग ही रचना के रूप में प्रस्फुटित होता है। कभी कहानी के रूप में तो कभी कविता के रूप में। कई बार कहानी लिखने बैठता हूं तो झरने की तरह कविता भीतर से फूट पड़ती है तो कभी कविता लिखते-लिखते कहानी का जन्म हो जाता है। ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है। समय से भिड़ने के लिए कई बार कविता एक कारगर हथियार के रूप में सहसा हाथ में आ जाती है तो कभी कोई घटना कहानी का चोला पहन लेती है।

दिहि : गरम रेत पर बिखरे यथार्थ पर मुस्कुराना या तकलीफ का मौन हटाकर, व्यंग्य कटाक्ष करना कितना साहसिक जोखिम है?

बेदी : व्यंग्य का जन्म अपने समय की विद्रूपताओं के भीतर से उपजे असंतोष से होता है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त असंगतियां और इन असंगतियों की जटिलताओं के बीच जी रहे जनमानस की वेदना व छटपटाहट ही व्यंग्य की आधारभूमि बनती है। एक सैनिक अगर सरहद पर मुस्तैद रहकर दुश्मनों के नापाक इरादों का मजबूती से जवाब देता है तो एक व्यंग्यकार अपनी कलम की ताकत से सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक-सभी क्षेत्रों में व्याप्त ढकोसलों, अन्याय, पाखंड और दोहरे चरित्रों की कलई खोलते हुए उन्हें बेनकाब करता है। व्यंग्यकार समाज का पहरेदार है। व्यंग्यकार लकीर के फकीर न होकर नए समय के नए सवालों की गंभीरता से पड़ताल व विवेचन करते हुए सच्चाई को निडरता से सामने लाने का रचनाधर्म निभाते हैं। व्यंग्य से आज कोई भी विषय अछूता नहीं है और अपनी रचनात्मक चेतना व अनुभवों के तार्किक विश्लेषण से व्यंग्यकार अपने सामाजिक सरोकार पूरी दृढ़ता के साथ निभाने को तत्पर रहता है। व्यंग्य किसी व्यक्ति विशेष को लक्षित करके उसे हिट करने के उद्देश्य से नहीं लिखा जाता, बल्कि व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करने के लिए लिखा जाता है। निश्चित रूप से व्यंग्य लेखन इसलिए भी साहसिक जोखिम से कम नहीं है क्योंकि कई ‘माननीय’ इसे स्वयं पर पर्सनल अटैक के रूप में ले लेते हैं। वैसे भी व्यवस्था को आईना दिखाना बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसा है।

दिहि : सोशल मीडिया की असीमित परिपाटी में दर्ज होते गुनाह या सुकून के बीच अभिव्यक्ति, उद्वेग की ताजगी और तात्कालिकता से कितना बेपरवाह रहती है?

बेदी : इसमें कोई दो राय नहीं कि सोशल मीडिया ने दुनिया को बहुत करीब ला दिया है। सोशल मीडिया ने सरकारों को अपने फैसलों, नीतियों और व्यवहारों को बदलने पर भी मजबूर किया है और जनता के मन और नब्ज को जानने का हुक्मरानों को एक नया माध्यम दिया है। यही नहीं, सोशल मीडिया ने बिना रोक-टोक और नियंत्रण के अपनी बात, अपनी सोच और अपने अनुभव दूसरों तक पहुंचाया जाना संभव बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति को एक बड़ा फलक प्रदान किया है। साथ ही छोटी-बड़ी बहसों में भागीदारी का नया स्वाद और हिम्मत भी दी है। लेकिन क्या सोशल मीडिया ने लोक विमर्श को ज्यादा गंभीर, गहरा, व्यापक व चिंतनशील बनाया है या नहीं! सोशल मीडिया ने अपनी एक नई भाषा गढ़ ली है जिसमें भाषा और शब्दों के सौंदर्य, मर्यादा व गरिमा की किसी को चिंता नहीं है। अच्छी भाषा के बिना गहरा, गंभीर विचार-विमर्श, चिंतन और ज्ञान निर्माण संभव नहीं है। यह स्थिति का एक चिंतनीय पहलू है। दूसरा पहलू इससे भी चिंतनीय है और वह यह है कि सोशल मीडिया में दूसरों की रचनाएं चुरा कर अपने नाम चस्पां करके रातों-रात लोकप्रिय हो जाने की छद्म लालसा ने कई तथाकथित कवि-शायर पैदा कर दिए हैं। सोशल मीडिया के शॉर्टकट के चलते हमारी सृजनात्मकता भी कहीं न कहीं कुंद हुई है। खतों का स्थान ईमेल ने ले लिया है। भावनाओं की खुशबू खो गई है। बस लाइक और कमेंट की भूख बढ़ती जा रही है। अभिव्यक्ति में वह उद्वेग, वह बेचैनी नजर नहीं आती।

दिहि : श्रेष्ठ रचना को साहित्य की किस विधा में पूर्ण मानते हैं। विचारों का शृंगार या नेपथ्य के संघर्ष से निकले शब्द की शक्ति का अभिमंचन?

बेदी : श्रेष्ठ रचना साहित्य की किसी विधा विशेष की मोहताज नहीं है। कविता, कहानी, नाटक या उपन्यास के रूप में कोई भी कृति कालजयी हो सकती है। जो रचना अपने समय-काल से न्याय करे, वही श्रेष्ठ है। शब्द हमारे विचारों को मूर्त रूप देते हैं और शब्द की सत्ता सर्वोच्च है। विचार जितने परिपक्व व घनीभूत होंगे, शब्द उतने ही प्रभावी होते जाएंगे। जीवन का संघर्ष शब्दों को भी मांजता है।

दिहि : बेहतर शिल्प में लिपटे लेखकीय प्रभाव से सम्मानित होने का सुकून आपके लिए जीवन की तलाश है या किसी तड़पते मंजर पर मजार के मानिंद अपनी संवेदना की चादर पर कहानी को लिखकर चढ़ाना?

बेदी : मैं आत्ममुग्धता की स्थिति में नहीं रहता। इस सृजन संसार में मैं कहां खड़ा हूं, इसे लेकर मैं किसी भ्रम में भी नहीं हूं। मुझे अभी तक अपनी बेहतरीन रचना के सृजन का इंतजार है जो शिल्प और शैली की कसौटी पर अपने लिए राह बनाए और अलग पहचान दिलाए।

दिहि : साहित्य के किस छोर पर पहुंचकर अतृप्त रहना, आपकी प्रवृत्ति को शोषित करता है।

बेदी : यह बहुत बड़ा सागर है। यहां शायद ही कोई तृप्त हो पाता हो। यहां मोक्ष जैसी कोई स्थिति नहीं है। सृजन एक अनवरत प्रक्रिया है और तृप्त होने की लालसा बार-बार गहराई में उतरने को ललचाती है।

                          -अनिल पटियाल, ऊना

यारों के यार हैं गुरमीत बेदी

गुरमीत बेदी से मिलने का एहसास और अनुभव ठीक उसी तरह है जैसे कोई आहिस्ता से नदी का स्पर्श करने उतरा हो और फिर लहरों का स्पंदन उसे नदी की उस गहराई तक ले गया हो, जहां कलाओं के अनेक रूप पूरी शिद्दत से अपनी चमक बिखेर रहे हों। गुरमीत बेदी जिंदगी के हर एहसास के कवि भी हैं, मानवीय संवेदनाओं के चितेरे कहानीकार भी हैं, समाज की विद्रूपताओं पर तंज कसकर पाठकों को गुदगुदाते व्यंग्यकार भी हैं, घुमक्कड़  और फक्कड़ यायावर भी हैं, मंच पर गंभीर अभिनय से लेकर कॉमेडी करते अभिनेता भी हैं और सबसे बड़ी बात-गुरमीत बेदी यारों के यार हैं। यानि अनेक प्रतिभाओं से भरपूर जिंदादिल और यारबाज शख्सियत। गुरमीत बेदी इस समय हिमाचल प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में उप निदेशक के रूप में कार्यरत हैं और एक जनसंपर्क कर्मी व साहित्यकार के रूप में उनका प्रदेश में व प्रदेश के बाहर एक बड़ा दायरा है। गुरमीत बेदी का जन्म 21 सितंबर, 1963 को हुआ। उनके पिता स्वर्गीय सुरेंद्र सिंह बेदी हिमाचल प्रदेश के ऐतिहासिक कस्बे बैजनाथ में अध्यापक थे और माता श्रीमती अजीत कौर बेदी अध्यापिका। उनके पिता शिक्षक होने के साथ-साथ साहित्यकार भी थे। गुरमीत बेदी जब 1982 में बीए अंतिम वर्ष के छात्र थे, तब उन्हें कालेज के दल के साथ भारत के ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण पर जाने का मौका मिला। इन स्थलों की यात्रा के बाद उन्होंने बैजनाथ लौटकर यात्रा संस्मरण लिखे। ये संस्मरण जालंधर से प्रकाशित होने वाले एक हिंदी दैनिक वीर प्रताप में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए। कालेज की वार्षिक पत्रिका ‘बिनवा’ में तो उनकी रचनाएं छपती ही रहती थीं, लेकिन यात्रा संस्मरणों की रोचक शैली ने उन्हें पंजाब, हिमाचल व हरियाणा के अग्रणी युवा लेखकों की कतार में खड़ा कर दिया। गुरमीत बेदी कालेज की बैडमिंटन टीम के सदस्य भी रहे और रंगमंच के कलाकार भी। अनेक हास्य नाटकों में अभिनय करके उन्होंने अपने भीतर छिपे कलाकार से कला प्रेमियों को रूबरू करवाया। पंजाबी हास्य नाटक ‘पंजाबी पुत’ में उनका अभिनय अत्यंत सराहा गया और यह नाटक कई महाविद्यालयों में मंचित हुआ। कालेज की शिक्षा पूरी करते ही गुरमीत बेदी पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हो गए। 1983 में उनकी नियुक्ति जालंधर के एक हिंदी दैनिक वीर प्रताप में बतौर उप संपादक हुई। पंजाब उन दिनों आतंकवाद की आग में जल रहा था। उनके माता-पिता अपने इकलौते बेटे को पंजाब में पत्रकारिता करने देने के हक में नहीं थे, लेकिन गुरमीत बेदी की जिद के आगे उन्हें हथियार डालने पड़े। वह यहीं पर काम पर डटे रहे। पंजाब की आतंकवादी घटनाओं ने गुरमीत बेदी को और भी संवेदनशील बना दिया। उस दौर में उन्होंने पंजाब की स्थिति से उद्वेलित होकर कई कहानियां व कविताएं लिखीं। गुरमीत बेदी के  काव्य  संग्रह ‘मौसम का तकाजा’ की अधिकतर कविताएं पंजाब के उस दौर के नंगे सच को जाहिर करती हैं। बेदी के कहानी संग्रह ‘कुहासे में एक चेहरा’ की कई कहानियां भी उसी दौर में लिखी गई हैं। पंजाब में पत्रकारिता करते हुए 1986 में गुरमीत बेदी ने उत्तरी भारत के कवियों की रचनाओं का एक संकलन संपादित किया। इस संकलन का नाम था ‘खामोशी पिघलती रही’। इसी दौर में गुरमीत बेदी के तीन उपन्यास-सरहद के उस पार, काले चश्मे वाला आदमी और नक्षत्रों के घेरे में-धारावाहिक रूप से छपे और चर्चित हुए। 1988 में गुरमीत बेदी की शादी परमजीत कौर से हुई। फरवरी 1989 में गुरमीत बेदी हिमाचल प्रदेश लोक संपर्क विभाग में बतौर सहायक लोक संपर्क अधिकारी नियुक्त होने के बाद जालंधर छोड़कर हिमाचल आ गए, जिसे वह अपनी कर्मभूमि मानते थे। सरकारी नौकरी में आने के बाद उनके लेखन की धारा विकासात्मक लेखन और हिमाचल की कला-संस्कृति,पर्यटन व इतिहास की ओर मुड़ गई। सरकारी नौकरी में आने के बाद ही उनका काव्य संग्रह-मौसम का तकाजा, कहानी संग्रह-कुहासे में एक चेहरा और बैजनाथ के ऐतिहासिक, धार्मिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उनकी शोध पुस्तक-श्रद्धा व सौंदर्य का संगम बैजनाथ, प्रकाशित हुईं। पिछले 10 सालों में बेदी के तीन व्यंग्य संग्रह-इसलिए हम हंसते हैं, नाक का सवाल और खबरदार जो व्यंग्य लिखा, शीर्षक से देश के एक नामी प्रकाशन संस्थान से छप चुके हैं। पिछले साल 23 सालों के लंबे अंतराल के बाद गुरमीत बेदी का दूसरा कहानी संग्रह-सूखे पत्तों का राग और कविता संग्रह-मेरी कोई आकृति, छप कर आया है। बेदी अनेक सामाजिक व साहित्यिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं। सरकारी नौकरी में आने के बाद जब गुरमीत बेदी अक्तूबर, 1989 में पालमपुर में ट्रांसफर होकर आए तो फिर से यहां साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक गतिविधियां संचालित करने की इच्छा पंख फड़फड़ाने लगी। 1990 में गुरमीत बेदी ने बैजनाथ में बिनवा कला मंच की स्थापना की और कार्यक्रमों के आयोजन का सिलसिला शुरू किया। इस दौरान 1996 से 1998 तक गुरमीत बेदी पालमपुर स्थित भारत जर्मन चंगर परियोजना में प्रतिनियुक्ति पर लोक संपर्क अधिकारी कार्यरत रहे और जर्मनी के प्रतिनिधिमंडलों के साथ देश के कई प्रोजेक्टों के अध्ययन का उन्हें अवसर मिला। गुरमीत बेदी मॉरीशस व जर्मनी में आयोजित वर्ल्ड पोएट्री फेस्टिवल में भी भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।


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