स्थानांतरण का सांप या सीढ़ी

By: Jan 19th, 2018 12:05 am

सत्ता परिवर्तन का राजनीतिक-प्रशासनिक अंतर बेशक एक पद्धति सरीखा हो चुका है, लेकिन हिमाचल की इस रिवायत का हमेशा सुखद अनुभव ही होगा, कहा नहीं जा सकता। अपने सौ दिन के एजेंडा पर काम कर रही जयराम सरकार का सबसे आसान लक्ष्य लगातार हो रहे स्थानांतरणों की कवायद बनकर हाजिर है, तो कर्मचारियों-अधिकारियों को मानना पड़ेगा कि हर सत्ता अब एक काडर है। ऐसे में कार्यसंस्कृति का जो भी दस्तूर है, उसे देखने-समझने के बजाय सत्ता बदलने का इंतजार होने लगा है। बेहतर शासन के अपने वादे को निभाने की परिपाटी में भाजपा सरकार की प्राथमिकता भी अगर अदला-बदली है, तो सरकारी पांव की उलझन दूर कैसे होगी। प्रश्न तो सरकारी कार्यसंस्कृति की वचनबद्धता और कर्मठता के इर्द-गिर्द उठता है और उसका हल मात्र ट्रांसफर नहीं हो सकता। हर सरकार या गैरराजनीतिक तौर पर भी जो लोग सरकारी सेवाओं को मंदिर की तरह पवित्र बना देते हैं, उन्हें पहचानने का सामर्थ्य सरकारें खोने लगी हैं। आखिर ट्रांसफर कोई पिटारा नहीं कि खोलते ही सुशासन में पैदा हुई सड़ांध निकल जाए या यह तरकीब सुधारवादी रुख की तामील में किसी को हलाल करने की सियासी जुगत में जुट जाए। दुर्भाग्यवश सत्ता के साथ ट्रांसफर या तो पुरस्कार की तरह है या अभिशाप की तरह। यह व्यवस्था है, तो बिना नियमों के क्यों और अगर सजा के तौर पर जरूरी है तो पारदर्शिता क्यों नहीं। आश्चर्य यह कि स्थानांतरण के वर्तमान दौर में भावुकता ही तरफदारी है, तो यथार्थ के चित्रण में इसका एकमात्र केंद्र शिमला ही क्यों? विडंबना यही रही है कि शिमला के प्रशासनिक चेहरे में सत्ता का लेप निरंतर गहरा हो रहा है। यानी सीधे रूप में सांप और सीढ़ी के खेल की तरह सारा माजरा समझा जा सकता है। ऐसे में पूरे प्रदेश का सरकारी तंत्र भी आपस में खेलता है और एक-दूसरे को चित करने के फार्मूले की तरह काम करता है। कमोबेश कर्मचारी संगठन भी इसी तरह राजनीतिक सत्ता के चार दिन ढूंढते अपना मूल दायित्व भूल जाते हैं। किसी के लिए जुगाड़ फलीभूत होता है, तो किसी के लिए पुनः इंतजार या सब्र का लंबा घूंट। आश्चर्य यह कि हिमाचल में सबसे सख्त परिपाटी यूं तो कर्मचारी स्थानांतरणों को लेकर बननी चाहिए, लेकिन किसी भी सरकार का सबसे आसान काम यही है। कम से कम हिमाचल में सियासी विजन की कमजोरियों का लांछन कर्मचारी-अधिकारी स्थानांतरणों पर चस्पां नहीं होता, क्योंकि यहां सत्तारूढ़ दल के हर नेता का असली धर्म यही है कि अपनी बारात की तरह कर्मचारी-अधिकारी सजाए। भाजपा ने जिस दृष्टिपत्र के माध्यम से प्रदेश में सुशासन का वादा किया है, वहां कहीं यह अपेक्षा रही है कि सरकार हर तरह की परिपाटी बदलेगी। बिना डाक्टरों के अस्पताल, अध्यापकों के बिना स्कूल और कालेजों का चरित्र बदलने की प्राथमिकता अगर शुरू होगी, तो स्थानांतरणों का वर्तमान दौर वादों की कलम से पूरा होगा। सरकार के विश्वासपात्र कुछ अधिकारी-नौकरशाह हो सकते हैं और कुछ सियासी सोच व विचारधारा से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन राज्य की संपूर्णता के विचार को विचारधारा से रंग नहीं सकते। सुशासन की खिड़की बंद करके हम बाहरी मौसम से बेखबर होने का प्रबंध करें, लेकिन समय की चुनौतियां किसी रक्षा कवच को पहनने के बजाय सामना करने का आत्मविश्वास है। जाहिर है जिस तरह लोग फेंटे जा रहे हैं, उसमें शक्ति का प्रदर्शन तो निश्चित रूप से सरकार का विशेषाधिकार रहेगा, लेकिन अनुचित व उचित के बीच नीतिगत दीवार कहां है। बार-बार या सरकार बदलने के मायने ताबड़तोड़ स्थानांतरणों में समझे जाएंगे, तो इससे क्षति या किस तरह की क्षतिपूर्ति हो रही है, यह शायद देखा ही नहीं जा रहा। सरकारी कार्यसंस्कृति में सुधार अपरिहार्य है, लेकिन स्थानांतरण ही सरकार बन जाए तो कौन खुद पर विश्वास करेगा। जनता हमेशा अच्छे अधिकारी-कर्मचारी की कद्रदान है, लेकिन यह किसी चयन के बजाय इत्तफाक बन गया कि किसी पद पर योग्यता को ही स्थान मिल जाए। हिमाचल में पुनः नीतियों के बजाय नीयत को प्रदर्शित करते स्थानांतरणों में हम सियासी पसंद का एक लंबा सिलसिला तो देख ही सकते हैं।


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