हिमाचली अभिव्यक्ति के खिलाफ

By: Jan 18th, 2018 12:05 am

अभिव्यक्ति न तो आरोहण की लत में जिंदा है और न ही लाड़लेपन की फितरत में मजबूत है, फिर भी हिमाचल में राजसत्ता में अभिव्यक्ति किसी रासलीला की तरह अपने वजूद का हिसाब बनकर दिखाई देने लगी है। अभिव्यक्ति के दम पर समाज और देश की भाषा, सभ्यता व सरोकार मुखर होते हैं और इसीलिए इस अंदाज के पैमाने हिमाचल में भी वर्तनी के आगाज की तरह देखे जाते हैं। यहां लेखक, पत्रकार और समाज के साथ-साथ सत्ता की कसौटी में अभिव्यक्ति की विवेचना होगी, लेकिन विडंबना यह है कि अब यहां भी समीक्षा से बड़ी रिश्तेदारी हो गई। इजहार ही कर्जदार हो गया, इसलिए हिमाचल में आलोचना की खुद्दारी के बजाय होशियारी कहीं मोलभाव करती है और संप्रदाय बनकर लाभान्वित होते कुनबे की रीढ़ तक असर स्पष्ट है। अभिव्यक्ति के हिमाचली संदर्भों में सोच और सरोकारों का दर्पण, सर्वप्रथम शिक्षा के वर्तमान ढांचे में खुद को देखता है। समाज की बुनियाद और बुनियादी प्रश्नों पर अगर संगठित आचरण नहीं हैं, तो अभिव्यक्ति की ईमानदारी पर संदेह होगा और यह होने लगा है। बोलने की आजादी का अर्थ चेतनाशील समाज के रूप में निरूपति होना चाहिए, लेकिन हिमाचली समाज केवल सियासत के लाभ की भाषा बनता जा रहा है। मुखर होती आवाजों के बीच हम सियासत के फलक को देखें या प्रकाशित बयानों की फितरत में जवाबदेह मीडिया का अवलोकन करें, तो कई बार सिक्के के ये दोनों पहलू एक हो जाते हैं। कई अक्स एक साथ मिलकर इंद्रधनुष हो जाते हैं। समीक्षक के रूप में हिमाचली होने का बोध क्या सरकारी लाभ को अपने आसपास देखने तक ही सिमट गया या हम सत्ता की दीवारों के आर-पार देखने की सामूहिक जिम्मेदारी का कोई मंच बना पाए। जाहिर है अभिव्यक्ति एक कांटे की तरह तो हो सकती है और प्रायः सख्त होती भाषा के निहितार्थ स्वाभाविक होने के बजाय स्वार्थी हो जाते हैं, लेकिन सत्य की परीक्षा में हिमाचली अभिव्यक्ति का वास्तविक चेहरा शिथिल हो गया। जब अभिव्यक्ति का ईंधन और इंजन ही सरकारी खजाने की रसीद बन जाएं, तो कौन उठकर अपना पक्ष रखेगा। प्रायः सरकारें अपने व्यवहार की पलकों से मन माफिक चयन करती हैं और कहीं समाज का प्रतिष्ठित और प्रबुद्ध वर्ग अपनी आंखें मूंद लेता है। ऐसे में कौन सा युग हम शुरू करेंगे, जिसके तहत हिमाचली प्रतिष्ठा के पक्ष में बोलने का अंदाज सशक्त होगा। यह लाजिमी नहीं कि बोलने का अर्थ विरोध है या अभिव्यक्ति का बोध सरकार के कान में खुजली करे, लेकिन एक स्वतंत्र और निष्पक्ष समाज की अपनी व्यवस्था में अभिव्यक्ति का रास्ता मजबूत तभी होगा, अगर मीडिया, लेखक व प्रबुद्ध वर्ग निजी अभिलाषा, भाषा या चमत्कार से ऊपर उठकर समय के समीक्षक बनें। अभिव्यक्ति बनाने और मनाने की संगत में मीडिया सरकारी आरोहण सरीखा महकमा बन जाएगा, तो पत्रकारिता के राशिफल में राजनीतिक किस्मत की लकीरें लंबी होती जाएंगी। शब्द अक्षुण्ण है, लेकिन इससे शुरू होती जोड़-तोड़ की नुमाइश में भाषा बदल सकती है। यही सब हो रहा है। महज अभिव्यक्ति के नाम पर विषय और विषाद में अंतर करना इसलिए कठिन है, क्योंकि मूल प्रश्नों के बजाय अगर प्रोफेशन भी बिसात बन जाए, तो मोहरों के बेजुबान चरित्र में शब्द के हारने की वजह भी गुम हो जाती है। विडंबना है कि कहीं अभिव्यक्ति के बहाने अर्थ और तर्क हारने लगा है। सभी सहपाठी बन गए, जो कभी एक-दूसरे से अंतर पैदा करने की राह पर निकले थे। मीडिया का शब्दकोष और प्रदर्शन का मानदंड बदल रहा है, इसलिए मुकाम पर सफलता का चेहरा भिन्न नजर आ रहा है। साहित्य की उपयोगिता बदल रही है। लिहाजा कहने की संस्कृति बदल गई। अभिव्यक्ति अब हिमाचल में भी सपनों को छूने का रास्ता है, इसलिए योग्यता व दक्षता के पैमानों में उपलब्धियों के ताले तभी खुलते हैं, जब किसी अभिव्यक्ति में जुगाली ही होती है। हिमाचल की पृष्ठभूमि में जो अभिव्यक्ति बची है, उसे सामाजिक संबल नहीं मिला तो प्रदेश के अर्थ समझौतावादी हो जाएंगे या उबलते संदर्भों को बेजुबान करने की कीमत पता चल जाएगी।


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