हिमाचली पुरुषार्थ : फिल्म, राष्ट्रप्रेम और प्रमेश चड्डा के 48 वर्ष

By: Jan 24th, 2018 12:07 am

देश के लिए कुछ करने का जज्बा था, तो उन्होंने उसे जिंदा रखने के लिए एक और रास्ता चुना। वह रास्ता था एक बाल फिल्म बनाना, जिससे बच्चों में देशभक्ति की भावना जागे और वे देश से प्यार करें। 1965 में बाल फिल्म बनाने का उनका विचार धरातल पर उतरा सन् 1968 में…

अकसर लहरें शोर मचाती हैं, पर यह ऐसी लहर है, जो बिना शोर के किनारों की तरफ बढ़ रही है। जी हां, प्रमेश चड्डा ही वो लहर हैं। आपने अकसर टीवी पर एमडीएच मसालों का विज्ञापन जरूर देखा होगा ‘असली मसाले सच-सच, एमडीएच।’ इस विज्ञापन को बनाने वाले प्रमेश चड्डा ही हैं। 25 जून, 1947 को धर्मशाला में पिता हंसराज चड्डा और माता सरस्वती चड्डा के घर जन्मे प्रमेश चड्डा के पूर्वजों, जो आजादी से पहले पाकिस्तान के लाहौर के साथ लगने वाले इछरा गांव में रहते थे, को आभास हो गया था कि भारत-पाकिस्तान का बंटवारा होने वाला है और इसी अंदेशे को भांपते हुए यह परिवार आजादी से पहले ही धर्मशाला में आ बसा। यहां पर आकर छोटा-मोटा कारोबार शुरू किया और फिर धर्मशाला को ही अपना नसीब मान लिया। प्रमेश चड्डा जब सवा साल के थे, तो पिता का साया सिर से उठ गया, तो जाहिर है कि परिवार पर पहाड़  टूटा होगा मुसीबतों का। समय चलता रहा और प्रमेश ने धर्मशाला में ही अपनी प्राथमिक और मैट्रिक तक की शिक्षा पूरी की। हालात ऐसे थे कि वह मजबूरीवश अपनी पढ़ाई आगे नहीं जारी रख सके और छोटा-मोटा कारोबार करने लगे। इसी दौरान 1965 में भारत पर पाकिस्तान ने अटैक किया, तो उसकी धमक धर्मशाला तक भी पहुंची। पाक ने दो बम धर्मशाला के कोतवाली बाजार को निशाना बनाकर भी गिराए, पर निशाना चूका और ये बम चरान खड्ड के पास, जहां अब पीडब्ल्यूडी परिसर है, वहां गिरे और इसमें दो लोगों की मौत भी हुई थी। बस यहीं से प्रमेश का मन बदला और सेना में जाने की सोची। स्कूल में एनसीसी तो रखी ही थी। मन की इच्छा पूरी हुई और नेवी ब्वाय के तौर पर दो-तीन साथियों के साथ प्रमेश की सिलेक्शन भी हो गई, पर किन्हीं कारणों से वह ज्वाइन नहीं कर पाए। देश के लिए कुछ करने का जज्बा था, तो उन्होंने उसे जिंदा रखने के लिए एक और रास्ता चुना। वह रास्ता था एक बाल फिल्म बनाना, जिससे बच्चों में देशभक्ति की भावना जागे और वे देश से प्यार करें। 1965 में बाल फिल्म बनाने का उनका विचार धरातल पर उतरा सन् 1968 में। 1968 में बिना पैसे, बिना इस फील्ड के नॉलेज और बिना किसी क्वालिफिकेशन के इस फिल्म को बनाना शुरू कर दिया। जहन  में था कि सब से एक-एक रुपया चंदा लेकर पैसे का जुगाड़ हो जाएगा। इसी मकसद से उस समय के मुख्यमंत्री वाइर्एस परमार से भी शिमला में जाकर मिले, उन्होंने आर्थिक मदद देना तो दूर इस फिल्म को बनाने का विचार दिल से निकालने के लिए कह दिया। थके- हारे वापस धर्मशाला आ गए। शिमला तक के सफर से शरीर थका, तो मुख्यमंत्री की कही बात ने मन को थका दिया। पर प्रमेश ने हिम्मत नहीं हारी और कहीं से पैसे का जुगाड़ करके सवा घंटे की देशभक्ति की बाल फिल्म तैयार कर ली। अब इस फिल्म को प्रचार-प्रसार के लिए सपोर्ट चाहिए थी। 1968 में शुरू हुई यह फिल्म 32 साल बाद सन् 2000 में बनकर तैयार हुई। इस फिल्म की ओपनिंग तत्कालीन केंद्रीय मंत्री शांता कुमार ने सन् 2000 में धौलाधार होटल धर्मशाला में की। इस फिल्म को प्रसारित करने के लिए कई जगह अप्रोच की, पर बात नहीं बनी।

जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट ः प्रमेश की जिंदगी में टर्निंग प्वाइंट तब आया, जब वह अपनी इस फिल्म को लेकर एमडीएच कंपनी के चेयरमैन महाशय धर्मपाल गुलाटी जी से मिले। उन्होंने प्रमेश की इस फिल्म को देखा और बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने प्रमेश को अपनी कंपनी के विज्ञापन बनाने का ऑफर दिया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब से लेकर अब तक एमडीएच मसालों के लगभग 45 विज्ञापन बना चुके प्रमेश साथ ही साथ अपनी फिल्म का काम भी करते रहे और अब उन्होंने यह फिल्म लगभग सवा दो घंटे की बना ली है। पहले एक घंटे की फिल्म में एक गाना था, पर अब सवा दो घंटे की फिल्म में छह गाने हैं। इसमें एक गाना पार्श्वगायिका लता मंगेशकर ने भी गाया है। अब यह फिल्म फाइनल स्टेज पर पहुंच चुकी है।

क्यों खास है यह फिल्म ः इस फिल्म की खास बात यह है कि इसमें कोई काल्पनिक पात्र नहीं है और सारे शॉट ओरिजनल हैं। 1947 को देश की आजादी से अब तक हुए सभी युद्धों तथा नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने तक  उन्होंने इस फिल्म में मौलिकता का समावेश किया है।  इस फिल्म में उनके परिवार की तीन पीढि़यों ने काम किया है। 48 साल से इस पेशे से जुड़े प्रमेश का कहना है कि वह उस काम को तब तक नहीं छोड़ते, जब तक वह पूरा न हो जाए। जिसने भी उनकी इस फिल्म को देखा, उसका यही विचार था कि यह फिल्म बच्चों में देशभक्ति जाग्रत करने के लिए स्कूलों में राष्ट्रीय दिवसों पर जरूर दिखाई जानी चाहिए। बच्चों के साथ-साथ अब यह सवा दो घंटे की फिल्म युवाओं में भी देश प्रेम पैदा करती है।

पत्नी ने प्रोत्साहित किया ः प्रमेश जी की पत्नी मीनाक्षी चड्डा ने शुरू से लेकर अब तक उन्हें बड़ा प्रोत्साहित किया। कभी भी उन्होंने फिल्म बनाने के इस काम में उनका मनोबल नहीं गिरने दिया। प्रमेश जी कहते हैं कि कई बार महसूस हुआ कि यह कैसे संभव हो पाएगा, पर तब उनकी पत्नी ने उन्हें फिर से इस काम में जुटने का हौसला दिया और काम का यह कारवां आगे बढ़ता गया और आज यह अपनी मंजिल के करीब है।

उम्र के इस पड़ाव पर भी काम करने की लगन ः परिवार में तीन बेटों की शादियां और उनके सेटल होने के बावजूद प्रमेश की काम करने की भूख कम नहीं हुई है। आज भी वह व्यस्त जीवन बिताते हैं और आज भी वह इस इंतजार में हैं कि युवा रहते उन्होंने बच्चों में देशभक्ति का जज्बा भरने का जो प्रयास 1968 में शुरू किया था, जरूर फलीभूत होगा और बच्चों तथा युवाओं तक उनकी यह फिल्म जरूर पहुंचेगी। प्रयास जारी रहें तो राहें बनती जाती हैं, यही प्रमेश की सोच है यही पहचान है।

 – सुरेश कुमार, योल

जब रू-ब-रू हुए…

45 विज्ञापन फिल्में बनाकर भी सीख रहा हूं …

आपके भीतर कलाकार मन कब जागा और कैसे पता चला कि आप व्यापार-कारोबार की चारदीवारी के बीच कैद नहीं रह सकते?

भारत- पाक युद्ध 1965 को ही मैं इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा मानता हूं। उस समय  मैं राजकीय हाई स्कूल धर्मशाला में नवमी कक्षा में पढ़ता था, जब मेरे मन में कला का अकुंर फूटा।

कैमरा पकड़ने का पहला दिन, पहला विषय और पहला मकसद क्या रहा ?

सन् 1968 में जब मेरी आयु 18 वर्ष की थी, तब मेरे मन को भारत- पाक युद्ध की  घटना ने प्रभावित किया और विचार आया कि मैं ऐसी फिल्म बनाऊं, जो बच्चों में राष्ट्र प्रेम, त्याग व वलिदान की भावना जाग्रत करे।  इसी सोच ने कैमरा पकड़ा दिया।

जिस जिंदगी से बाहर आपको देश की पीड़ा सताती है, उस लिहाज से आपकी अभिव्यक्ति को क्या कैमरा छू पाया या इससे भी आगे आक्रोश की कोई मंजिल है?

भारत- पाक युद्ध की घटना का आक्रोश ‘नन्हे- मुन्ने वीर सिपाही’ का निर्माण कर मैं समझता हूं कि मैंने अपने मन के भीतर के आक्रोश को प्रकट करने का प्रयास किया है । यह ऐसा आक्रोश है, जिसकी शांति के लिए और प्रयास जरूरी है जिसके लिए मैं अभी प्रयासरत हूं।

अचानक फिल्म निर्माण से विज्ञापन फिल्मों की तरफ कैसे बढ़े और यह सफर कैसा रहा?

मैंने 18 मार्च, 2000 को सांसद श्री शांता कुमार जी को यह फिल्म धर्मशाला के धौलाधार होटल के सभागार में पहली बार दिखाई थी। तब यह फिल्म एक घंटे की अवधि की थी और  सेंसर बोर्ड से पारित थी। उन्होंने इसे मुक्त कंठ से सराहा था और उसी से प्रेरित होकर मैं फिल्म को सिनेमा हाल पर दिखाने की इच्छा से महाशय धर्मपाल जी को अपने निवास धर्मशाला में इस फिल्म को दिखाया। उन्होंने  जब फिल्म को देखा तो बड़े प्रसन्न और प्रभावित हुए, तो उन्होंने  अपने व्यापार संबंधी विज्ञापन मुझ से तैयार करवाने की इच्छा जाहिर की।

जिस विज्ञापन फिल्म ने आपको पहचान दी या समझते हैं चंद मिनटों ने आपके वर्षों की मेहनत सफल कर दी?

मेरी पहली विज्ञापन फिल्म एमडीएच दंत मंजन थी, जिसका विज्ञापन गीत था ‘असली दंत मजंन है जहां दांतों की सुरक्षा है वहां, असली दंत मजंन सच-सच एमडीएच एमडीएच’। यह विज्ञापन फिल्म मैंने 2001 में बनाई थी। उसके बाद मैं अब तक इनसे जुड़ा हूं और लगभग  45 से ज्यादा विज्ञापन फिल्में 2017 तक बना चुका हूं।

आपने 94 साल के महाशय जी को कैसे मॉडल बनाया और यह आइडिया कैसे बना?

मैं उन्हें क्या मॉडल बना सकता हूं, वह खुद ही मॉडल हैं। जैसा कि इनके उत्पाद स्वास्थ्यवर्द्धक होते हैं, अतः मैंने यह विचार किया कि क्यों न महाशय जी को इन का मॉडल बना कर पेश करूं, जो दर्शकों को स्वतः प्रेरित करें। जब 94 साल का मॉडल जो स्वयं उत्पादन करता है, उन्हें कैमरे के माध्यम से दर्शकों तक अपने उत्पादकों के साथ दिखाऊंगा, तो मैं समझता हूं कि वह ज्यादा प्रभावी होगा। क्योंकि आज वह 94 वर्ष के होकर भी उतने ही चुस्त- दुरुस्त हैं और अभी भी अपने विज्ञापनों में मॉडलिंग करते हैं।

जो कैमरे से देखते हैं, उन्हें आंखें कैसे भरोसेमंद मान लें। विज्ञापन बनाने के लिए किन बातों पर गौर करते हैं?

मेरे विचार से आर्ट फिल्म की तुलना में विज्ञापन फिल्म बनाना बड़ा मुश्किल कार्य है। क्योंकि इस में 5 सेकंड से 20 सेकंड की अवधि में ही उत्पाद व उसकी विशेषता को दर्शकों के दिमाग में डालना पड़ता है। अतः विज्ञापन में कम से कम समय में अधिक से अधिक दिखाने की कोशिश होती है।

पिछले चार दशकों बाद भी आपकी फीचर फिल्म, ‘नन्हे-मुन्ने वीर सिपाही’ सामने नहीं आई, वजह?

क्योंकि यह करोड़ों की इन्वेस्टमेंट है, जिसका मैं खुद फाइनांसर हूं। जब- जब कारोबार से कुछ कमा पाता, तो इस में लगा देता। इसी चाव और धनाभाव के कारण इतना समय लगा। दूसरा जो मैं इसमें दिखाना चाहता हूं वह पूरा नहीं होता रहा। फिल्म की सबसे अलग बात यह भी कि  जब भी कोई  फीचर फिल्म बनती है तो उसमें सैकड़ोें लोगों का सहयोग होता है, तब वह संपूर्ण होती है। यह फिल्म कई लोगों के सहयोग से बनी और आगे बढ़ी, जिसके सभी मुख्य कार्य मैंने खुद किए हैं। यह अपनी तरह की अकेली ऐसी फिल्म है, जिसे बनाने में 48 साल लगे और इसमें तीन पीढि़यों  ने काम किया है।

यह विचार कब आया और इतने लंबे दौर के बीच आप अपने सपने में किस यथार्थ के लिए संघर्ष कर रहे हैं?

भारत के अतीत के गौरवपूर्ण इतिहास से वर्तमान युवा पीढ़ी को परिचित कराना और उनमें वैसी बलिदान और त्याग की भावना जगाना था, जैसे हमारे आजादी के दीवानों में थी।

फिल्म बनाते-बनाते आप खुद कितने फिल्मकार बन गए?

मुझे सिनेमा, पटकथा, लेखन, संवाद, रचना, गीत रचना आदि का  कौशल प्राप्त हुआ  और विशेष कर कैमरा संपादन कला का कौशल मैं समझता हूं इस फिल्म निर्माण की मेरी विशेष उपलब्धि रही है।

अब तक कितने बदलाव फिल्म में कर चुके हैं और इसके लिए कहां-कहां खोज करते रहे या कर रहे हैं?

लगभग 35 से ज्यादा बदलाव इसमें हो चुके हैं, जो अनुभव और निर्माण चेतना के कारण स्वयं हुए। उसके लिए मुंबई और कोलकाता मुख्य केंद्र रहे, क्योंकि मेरे उद्देश्य के रियल शॉट यहां उपलब्ध थे।

आपके लिए फिल्म का निर्माण क्या महत्त्व रखता है और इसके कब तक पूरा होने की उम्मीद है?

मेरे लिए इसका महत्त्व यही है कि मैं जो कुछ इस फिल्म के माध्यम से दिखाऊं उससे न केवल मनोरंजन हो, बल्कि बच्चों में राष्ट्र प्रेम की भावना जाग्रत हो। देश की आजादी को युवा पीढ़ी संभालने का प्रयत्न करे। यह फिल्म अब  पूर्ण रूप से तैयार है और इसी वर्ष 2018 में इसे हर हाल में रिलीज करूंगा।

फिल्म निर्माण से आपके व्यवसाय, व्यापार व परिवार को कितना हर्जाना देना पड़ रहा है। कोई खास लम्हे जो फिल्म की तरह इन सालों में जुड़ते गए?

फिल्म को बनाने में मेरे परिवार का बहुत बड़ा सहयोग रहा है। इनके सहयोग के बिना यह कार्य संपूर्ण होना नामुमकिन था। आरंभ में तो परेशानियां व अभाव सहने पड़े। परंतु एमडीएच से जुड़ने पर मुझे  कुछ आर्थिक सामर्थ्य मिलना शुरू हुआ और मेरी रुचि और निवेश दोनों बढ़ते गए।

भारत के लिए आपका सपना?

मेरा इस फिल्म का निर्माण देश निर्माण को समर्पित है। मेरा सपना यही है कि युवा अपने देश से प्रेम करें।

सपने कुछ और भी होंगे, मंजिलें कहीं और भी होंगी, तो दुनिया के लिए किस ख्वाब की पलकें अभी खुलनी बाकी हैं?

सपनों की सीमा कहां होती है। सपने और भी हैं और रहेंगे भी। मंजिलें भी निरंतर बढ़ती दिखाई देती हैं, उसके लिए प्रयत्नशील रहना जरूरी है। समय और सांसों ने साथ दिया, तो ऐसी ही एक और फिल्म बनाना चाहता हूं,जो वर्तमान व भावी पीढ़ी को राष्ट्र प्रेम की ओर  अग्रसर और प्रेरित करती रहे।


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