हिमाचली शिक्षा ः कुछ अजूबा-कुछ अजीब

By: Jan 10th, 2018 12:05 am

सुरेश कुमार

लेखक, योल, कांगड़ा से हैं

बड़े अधिकारी प्रदेश में शिक्षा की बेहतरी के लिए विदेशों का भ्रमण करके जानते हैं कि कौन सा मॉडल अपनाएं जिससे शिक्षा में गुणवत्ता आए। विदेश में घूमने से शिक्षा में गुणवत्ता नहीं आएगी। इन शिक्षा अधिकारियों को हिमाचल के स्कूलों में जाकर देखना चाहिए, जहां एक कमरे में पांच कक्षाएं चलती हैं और अध्यापक एक ही होता है…

यह अजूबा ही तो है कि प्राइमरी स्कूल, माध्यमिक स्कूल और कालेज एक ही कैंपस में हों। ऐसा विश्व में केवल हिमाचल में ही है। कांगड़ा जिला के मटौर में ऐसा ही नजारा देखने को मिलेगा। यानी जैसे मेमने, बकरी और शेर को एक ही खूंटे से बांध दिया गया हो, तो जाहिर है कि इन तीनों में से शेर ही बचेगा। इस तरह की व्यवस्था करके प्राइमरी स्कूल के बच्चों में जो संस्कार पनपने चाहिए वे तो पनपेंगे ही नहीं, पर कालेज छात्रों को उसी कैंपस में देखकर उनके व्यवहार का उन स्कूली बच्चों पर जरूर विपरीत असर पड़ता होगा। यानी कि हमने बच्चे को शुरू से ही दिशाहीन कर दिया, तो आगे चलकर वह कैसे अपना लक्ष्य पूरा करेगा। पिछली सरकार ने शिक्षा के आंकड़े ही बढ़ाए, उसकी गुणवत्ता को गौण कर दिया। सात किलोमीटर के दायरे में तीन कालेज (मटौर, डीएवी कालेज कांगड़ा और तकीपुर)खोलना शैक्षणिक कम राजनीतिक ज्यादा दिखता है। हिमाचली शिक्षा अजीब इसलिए कि यहां हर साल परीक्षाओं के दौर में कई खामियां सामने आती हैं। कभी प्रश्नपत्रों में गलतियां, तो कभी प्रश्नपत्र ही दूसरे विषय के बांट दिए जाते हैं, जिनका पेपर बाद में होना होता है। सरकार को कितना नुकसान उठाना पड़ता है उन लीक हुए प्रश्नपत्रों को दोबारा बनाने और छापने के लिए। है न अजीब कि शिक्षा विभाग में ही जिम्मेदार पदों पर अशिक्षित लोगों को बिठा दिया गया है। ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा, बस परीक्षाओं का दौर शुरू होने ही वाला है, सब सामने आ जाएगा। हर बार ऐसा ही होता है, पर कार्रवाई कुछ नहीं होती।

सरकार जांच बिठाती है, कुछ दिन के लिए दोषी  सस्पेंड और फिर बहाल। तो कैसे सुधरेगा सिस्टम, जब गलतियों के लिए सजा ही दिखावा हो। शिक्षा का मतलब बच्चों को देश के भावी नागरिक बनाना है, पर यह शिक्षा तो छात्रों से खिलवाड़ सरीखी है। समय के साथ-साथ शिक्षा का स्वरूप बदल रहा है। प्रतिस्पर्धा ज्यादा हो गई है, पर क्या हिमाचल के छात्र इस प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार हो पाते हैं। कई बार समाचारों में आता है कि आठवीं का छात्र पांचवीं के सवाल नहीं कर पाता और पांचवीं का छात्र गुना-भाग से अनजान है। प्रदेश में रूसा ने भी छात्रों में ऊहापोह की स्थिति पैदा कर दी है।

केंद्र से मिलने वाले 100 करोड़ के बजट की खातिर सरकार ने बिन तैयारी के ही रूसा को छात्रों पर थोंप दिया। और बात तो यहां तक जा पहुंची कि जब रूसा का पहला बैच आउट हुआ, तो दूसरी यूनिवर्सिटीज ने हिमाचल से रूसा सिस्टम से डिग्री लिए छात्रों को दाखिला देने से ही इनकार कर दिया। शिक्षा विभाग ने कुछ वर्षों में शिक्षा को प्रयोगशाला ही बनाकर रख दिया है। कैसे होगा शिक्षा में सुधार जिस प्रदेश के शिक्षा बोर्ड पर बैंकों के पेपर करवाने का जिम्मा हो। प्रदेश के बड़े अधिकारी प्रदेश में शिक्षा की बेहतरी के लिए विदेशों का भ्रमण करते हैं कि देखा जाए कि कौन सा मॉडल अपनाएं कि प्रदेश की शिक्षा में गुणवत्ता आए। विदेश में घूमने से शिक्षा में गुणवत्ता नहीं आएगी। इन शिक्षा अधिकारियों को हिमाचल के गांवों के स्कूलों में जाकर देखना चाहिए, जहां एक कमरे में पांच कक्षाएं चलती हैं और अध्यापक एक ही होता है। कहीं स्कूल मंदिर में चलाया जा रहा है, तो कहीं पेड़ के नीचे ही पाठशाला चल रही है। कई स्कूलों में भवन नहीं, जहां भवन हैं वहां अध्यापक नहीं, जहां अध्यापक हैं वहां खेल मैदान नहीं, जहां खेल मैदान है वहां स्कूल स्टाफ की गाडि़यां पार्क की जाती हैं। कक्षा में अध्यापक नहीं और खेलने को मैदान नहीं, तो कैसे होगा छात्रों का मानसिक और शारीरिक विकास। कहीं अध्यापक क्लर्क का काम करते हैं, तो कहीं मिड-डे मील की जिम्मेदारी उन पर है। हिमाचल की शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़ी खामी तो यही है कि यहां अध्यापक ही हड़ताल पर रहते हैं। उदाहरण कम्प्यूटर अध्यापकों का ही ले लीजिए या फिर कम मेहनताने पर शिक्षकों द्वारा छात्रों के पेपर चैक न करने का  उदाहरण। हजारों में वेतन लेने के बावजूद शिक्षकों द्वारा पेपर चैक करने के पैसे लेना हैरान करता है। कई अध्यापक तो अपने स्थानांतरण के जुगाड़ में सचिवालय  में ही आए दिन दिखते रहते हैं। बजट में सबसे ज्यादा पैसा शिक्षा को ही मिलता है और हमारी शिक्षा यह है कि आंकड़ों में तो अव्वल है, पर जमीनी स्तर पर फिसड्डी साबित हो रही है। ज्यादा दूर न भी जाएं तो हिमाचल में एमए इंग्लिश करने वाला छात्र भी धाराप्रवाह न तो इंग्लिश बोल पाता है और न ही समझ पाता है। दूसरों की देखादेखी हिमाचल ने स्कूलों, कालेजों में इंग्लिश मीडियम तो चला दिया, पर वे साधन- संसाधन नहीं जुटा पाया, जिससे छात्र इसमें पारंगत हो सकें।

नई सरकार को शुरू से ही शिक्षा से संबद्ध हर पालिसी को पॉलिश करना होगा। अध्यापकों की नियुक्तियों से लेकर स्थानांतरण तक, कक्षाओं के संचालन से लेकर परीक्षाओं के परिणामों तक हर पालिसी की ओवरहॉलिंग करनी होगी और शिक्षा में राजनीतिक दखल को बिलकुल बंद करना होगा। शिक्षा में राजनीतिक दखल ने इसे अंदर तक खोखला कर दिया है। तभी हिमाचल के शिक्षा में सिर्फ आंकड़ों में अव्वल है और जमीनी स्तर पर सब सच्चाई जानते हैं। केंद्र से मिला सेंट्रल यूनिवर्सिटी का तोहफा सिर्फ राजनीति के कारण ही नौ साल से अपने स्थायी ठिकाने को तरस रहा है। सरकार की सबसे पहली प्राथमिकता ही यह हो कि राजनीति को स्कूलों -कालेजों में पूरी तरह बैन कर दे। काम मुश्किल है,पर विकल्प यही है। वर्तमान सरकार के सामने चुनौतियों का पहाड़ है, जिसे उसे पार करना ही है।

ई-मेल : sureshakrosh@gmail.com


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