हिमालय से संबद्ध है कुमारसंभव की सारी कथा

By: Jan 3rd, 2018 12:05 am

कुमारसंभव की सारी कथा और मेघदूत का उत्तरार्द्ध हिमालय से ही संबद्ध है। इसी प्रकार विक्रमोर्वशीय का चौथा अंक, शाकुंतलम का सातवां अंक और रघुवंशम के पहले और चौथे सर्ग भी उसी हिमाद्रि के विभिन्न वर्णनों से मुखारित हैं…

पूर्व मध्यकालीन हिमाचल

साहित्यिक क्षेत्र में भी इस काल में बहुत उन्नति हुई। हिमालय का कालिदास  ने अनेक स्थलों पर रोचक वर्णन किया है। उसने हिमालय का वर्णन करते हुए लिखा है कि घने मेघ पर्वत की कटि भाग के चतुर्दिक संचरण करते हुए नीचे अपनी छाया डालते हैं। भोजपत्रों में रह-रहकर मर्मर ध्वनि उठती है और वंशीछिद्रों में प्रवेश करती हुई वायु मधुर ध्वनि प्रस्तुत करती है। वह ध्वनि गंगा की आर्द शीतल वायु के झोंकों के साथ पथिकों की क्लांति हरती और हिमालय की किन्नरियों के संगीत को मधुमय बनाती है। कस्तूरी मृग के स्पर्श से सुवासित शिलाखंडों को नमेरू वृक्ष अपनी घनी शीतल छाया से कृतार्थ करते हैं। देवदारूओं के परस्पर घर्षण से जो अग्नि का प्रादुर्भाव होता है, उससे रात्रि में वन प्रांत सहसा आलोकित हो उठता है। क्रौंच रंध्र-नीति दर्रा हिमालय के उस भाग में परशुराम के प्रताप की घोषणा करता है, क्योंकि  उसी अनुपम धनुर्धर ने अपने हस्तलाघव की परीक्षा के लिए बाण मार-मार यह घाटी सहसा प्रस्तुत कर दी थी। इस घाटी के पीछे नए कटे गजदंत की भांति कैलाश पर्वत खड़ा है, जो सुरनारियों के लिए दर्पण का कार्य करता है। चंवरी मृगों के शालीन गमन से हिमालय का धवल मस्तक और भी तृप्त हो जाता है। इसी हिमालय में वह अनुपम मानसरोवर है, जिसमें स्वर्णाभ कमल खिलते हैं। हिमालय शाश्वत हिम से मंडित पर्वत है। इस प्रलंभ भारतीय पर्वत श्रेणी का वर्णन कवि ने अनेक ग्रंथों में अनेक स्थलों पर किया है। कुमारसंभव की सारी कथा और मेघदूत का उत्तरार्द्ध हिमालय से ही संबद्ध है। इसी प्रकार विक्रमोर्वशीय का चौथा अंक, शाकुंतलम का सातवां अंक और रघुवंशम के पहले और चौथे सर्ग भी उसी हिमाद्रि के विभिन्न वर्णनों से मुखारित हैं। कालिदास ने स्पष्टतः केवल एक दर्रे, क्रौंच रंध्र का वर्णन किया है। क्रौंच रंध्र कुमाऊं जिला का प्रसिद्ध नीति पास है, जो भारत और तिब्बत आने-जाने का मार्ग है और जिस पथ से दोनों देशों के बीच व्यापक व्यापार होता है। भारतीय इतिहास में जहां हिमालय का वर्णन अधिकाधिक होने लगा, वहीं यहां के लोक साहित्य का भी बहुत विकास हुआ। रामायण तथा पंडमायण (महाभारत) कणदेवता (कृष्ण अवतार) जैसी लोक गाथाएं तथा लोक कथाएं रची गईं, जो आज तक हमारे पास मुख- दर-मुख चली आ रही हैं। इस काल में भारतीय कलाओं का विकास चरम सीमा तक पहुंच गया था। मूर्ति निर्माण कला, भवन निर्माण कला, चित्रकला का पूर्ण परिपाक इस काल की अपनी विशेषता है। इसीलिए भारतीय कला इतिहास में यह युग स्वर्ण युग के नाम से प्रसिद्ध है। गुप्त संस्कृति के साथ-साथ कला का भी पांचवीं शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी तक हिमालय इन घाटियों में बड़ा विकास हुआ और कई मंदिर तथा शिव, दुर्गा, गणेश, सूर्य तथा विष्णु की मूर्तियों का निर्माण हुआ।


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