अब सेना को मन की बात करने दी जाए

By: Feb 17th, 2018 12:05 am

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक, घुमारवीं, बिलासपुर से हैं

घाटी में शायद कोई ऐसा दिन गुजरता है, जब सेना को आतंकियों से न जूझना पड़े। जैसे समय बीत रहा है, कश्मीर घाटी में पांव पसार चुके पाकिस्तानी तत्त्वों की ताकत बढ़ रही है। सरकारों की तरफ से कोई ठोस कार्रवाई न होने के कारण अब प्रश्न उठ रहा है कि क्यों न ‘ सेना को मन की बात ’ करने दी जाए…

भारत के साथ चार युद्धों में बुरी तरह परास्त होने के बाद एक बात तो पाकिस्तान और उसके आतंकी आकाओं को समझ आ चुकी है कि प्रत्यक्ष युद्ध में पाक सेना कभी भी भारतीय सेना को परास्त नहीं कर सकती, इसीलिए उसने छद्म युद्ध का सहारा लेना शुरू कर दिया। इस समस्या की शुरुआत पाकिस्तान ने आजादी के तुरंत बाद 22 अक्तूबर, 1947 को ही कर दी थी, जिसे हमारे तत्कालीन राजनीतिज्ञ भांपने में विफल रहे थे, जब पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों के भेस में कश्मीर पर हमला कर दिया था, जिसका जवाब देने के लिए भारतीय सेना को पलटवार करना पड़ा था। उस समय 14 महीनों तक चले इस युद्ध में 1500 के लगभग भारतीय सैनिक शहीद हुए थे, मगर इस युद्ध में श्रीनगर को बचाने के लिए चार कुमाऊं रेजिमेंट की एक कंपनी का नेतृत्व कर रहे मेजर सोमनाथ शर्मा ने अपनी शहादत देकर एक अलग ही वीरगाथा रच डाली। इसके लिए उन्हें देश का पहला शौर्य पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ (मरणोपरांत) से नवाजा गया था। उनका संबंध इसी देवभूमि से था। उस युद्ध में जम्मू-कश्मीर को बचाने के लिए इसी देवभूमि के 43 और सैनिकों की भी शहादत हुई थी।

पिछले साल शहादत पाने वाले 11 सैनिक अकेले हिमाचल से थे और यह आंकड़ा बाकी राज्यों से कहीं अधिक है। इसीलिए देवभूमि का जिक्र वीरभूमि में होना स्वाभाविक है। सरहदों पर या आतंकी वारदातों में इतनी बड़ी संख्या में हमारे निर्दोष सैनिकों का मारा जाना बहुत बड़ी चिंता का विषय है और यह सब हमारी गलत विदेश नीति के कारण ही हो रहा है। इस समस्या पर कोई भी राजनीतिक दल आज तक सही रणनीति या स्पष्ट कूटनीति बनाने में सफल नहीं हुआ। वोट बैंक की राजनीति के कारण सुरक्षा के मुद्दे पर देशहित में सही नीति बनाने में राजनीतिक दल कभी एकजुट नहीं हुए। विपक्ष में बैठकर दुश्मन के एक के बदले दस सैनिकों को मारने का दावा करने वाले नेता सत्ता में आने के बाद इन मुद्दों पर मौन व्रत धारण कर लेते हैं।  हमारे कुछ राजनेता और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग जो आए दिन सेनाध्यक्ष के बयानों का विरोध करते हैं और साथ में ‘अफस्पा’ (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट) को हटाने की वकालत करते हैं।

ऐसे लोगों को चाहिए कि पहले नियंत्रण रेखा के तनाव भरे माहौल को जानने की कोशिश करें और आंतरिक सुरक्षा में तैनात सैनिकों के साथ खड़े होकर पत्थरबाजी का सामना करें। सुरक्षाबलों को आने वाली चुनौतियों के जमीनी हालातों का अध्ययन करके उन पर मंथन करें। घाटी में मौसम से निपटाना सेना के लिए एक बड़ी चुनौती है, जिसमें आए दिन हमारे सैनिक बर्फीले तूफान की चपेट में आकर शहीद हो रहे हैं, वहीं आतंकियों से निपटने के लिए पत्थरबाज दूसरी चुनौती हैं, जो आतंकियों की मदद करने के साथ सेना द्वारा चलाए जा रहे आपरेशन में भी खलल डालते हैं। इसके कारण सेना को आत्मरक्षा के लिए मजबूर होना पड़ता है। उनके धैर्य और संयम के बारे में कोई नहीं सोचता, बल्कि सैनिकों पर एफआईआर दर्ज करा दी जाती है। सेना को ऐसे हालातों से निपटने क लिए इन संवेदनशील इलाकों में न कोई प्रशासनिक और न ही राजनीतिक सहयोग मिलता है, बल्कि स्थानीय लोगों व वहां के नेताओं द्वारा पत्थरबाजों का ही समर्थन किया जाता है। इसका उदाहरण वहां की सरकार द्वारा 9730 पत्थरबाजों के ऊपर चल रहे केस वापस लेना है। इसके बाद मानवाधिकारों की एक टीम की चुनौती है, जिन्हें हमारे शहीद होते सैनिक या कश्मीर से निकाले गए लाखों विस्थापित कश्मीरी पंडितों के मानवाधिकार नहीं दिखाई देते, उन्हें भी पत्थरबाजों और अलगावादियों से ही हमदर्दी है। इसीलिए कुछ दिन पहले सेनाध्यक्ष को आतंकियों को ‘जमीन के नीचे अढ़ाई फुट’ वाला बयान देना पड़ा था। उनके बयानों पर टिप्पणी नहीं, बल्कि राजनीतिज्ञों को गंभीरता से विचार करना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि देश सुरक्षा के लिए राजनीतिक पहल जरूरी है, क्योंकि सुरक्षाबलों को घाटी में आतंकियों से लड़ते तीन दशक बीत चुके हैं। हमारी सेना ने घाटी में आपरेशन ऑलआउट के तहत 2016 और 2017 में 363 आतंकियों को मार गिराया है और पाक को उसी की भाषा में माकूल जवाब दिया जा रहा है, मगर 2018 के शुरुआती दौर में ही पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा पर 150 से ज्यादा बार सीज फायर का उल्लंघन कर दिया है। सेना पर साल उठाने वालों को यह जानना जरूरी है कि सरहदों की रक्षा किसी ईश्वरीय कृपा से या भाषणों से नहीं हो रही है, बल्कि इसके लिए जो खून बह रहा है, वह हमारे सैनिकों का ही है।

हमारे राजनेताओं को चाहिए कि काल्पनिक मुद्दों को प्राथमिकता न देकर राष्ट्रीय एकता की मिसाल पेश करते हुए भारतीय सेना के साथ खड़े हों, क्योंकि राष्ट्र सुरक्षा का मुद्दा सीधा देश के अस्तित्व से जुड़ा है। सीमा पर लगातार घुसपैठ और आतंरिक सुरक्षा में आतंकी गतिविधियों के कारण देश में राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता का माहौल पैदा किया जा रहा है। घाटी में शायद कोई ऐसा दिन गुजरता है, जब सेना को आतंकियों से न जूझना पड़े, मगर इतना खूनखराबा होने के बाद और आए दिन सैनिकों के ताबूतों को देखकर भी हमारे राजनीतिज्ञों का हृदय द्रवित नहीं होता। जैसे समय बीत रहा है, कश्मीर घाटी में पांव पसार चुके पाकिस्तानी तत्त्वों की ताकत बढ़ रही है। सरकारों की तरफ से कोई ठोस कार्रवाई न होने के कारण अब प्रश्न उठ रहा है कि क्यों न सेना को मन की बात करने दी जाए।


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