ईश्वर की उपासना

By: Feb 17th, 2018 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

किसी भी देश में मनुष्य जाति की विशाल बहु संख्या आत्मा की उपासना आत्मा के रूप में कदापि नहीं कर सकेगी। यह अभी संभव नहीं है। मैं नहीं जानता कि कभी ऐसा समय आएगा, जब वह ऐसा कर पाएगी। इस नगर में कितने हजार ऐसे हैं, जो ईश्वर की उपासना सूक्ष्म रूप में करने की क्षमता रखते हैं? बहुत कम। वे नहीं कर सकते। वे अपनी इंद्रियों में रहते हैं। तुमको उन्हें स्पष्ट, निश्चित विचार देने होंगे। उनसे कुछ भौतिक करने को कहो, बीस बार खड़े होओ, बीस बार बैठो। यह उनकी समझ में आएगा। उनसे कहो कि एक नथुने से सांस लें और दूसरे से बाहर निकालें। इसे वे समझ जाएंगे। सूक्ष्म के विषय में यह आदर्शवाद वे बिलकुल स्वीकार नहीं कर सकते। इसमें उनका दोष नहीं है। यदि तुम में सूक्ष्म रूप में ईश्वर की उपासना की क्षमता है, तो ठीक। पर एक समय था, जब तुम यह नहीं कर सकते थे। यदि लोग असंस्कृत होते हैं, तो धार्मिक धाराणएं स्थूल होती हैं, धर्म के बाह्य रूप भद्दे और भौतिक होते हैं। यदि लोग परिष्कृत और संस्कृत होते हैं, तो ये रूप अपेक्षाकृत सुंदर होते हैं। रूप होने ही चाहिए, समय के साथ वे केवल बदलते रहे हैं। यह एक विचित्र बात है कि संसार में इस्लाम से अधिक (रूपों की उपासना का) विरोधी दूसरा धर्म नहीं उत्पन्न हुआ। मुसलमान न चित्रकला सहन कर सकते हैं, न मूर्ति, न संगीत।  ये मूर्तिपूजा के मार्ग हैं। इमाम अपने श्रोताओं की ओर मुंह नहीं करता। यदि वह ऐसा करता है, तो भेद उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह नहीं होता। पर फिर भी पैगंबर की मृत्यु को दो शताब्दियां भी नहीं बीतने पाई थी कि पीर पूजा आरंभ हो गई। यहां पीर का अंगूठा है, वहां पीर की चमड़ी है और इसी प्रकार औपचारिक उपासना उन अवस्थाओं में से एक है, जिनमें से होकर हमें गुजरना होता है। इसलिए इसके विरुद्ध आंदोलन करने के बजाय हमें उपासना में से सर्वोत्तम को ले लेना और उसके आधारभूत सिद्धांतों का अध्ययन करना चाहिए। निश्चय ही, उपासना का निम्नतम स्वरूप वह है जो वृक्ष और प्रस्तर पूजा कहलाती है। प्रत्येक अपरिष्कृत असंस्कृत व्यक्ति किसी भी वस्तु को ले लेगा, उसमें कुछ अपने विचार जोड़ देगा और इससे वह सहारा पाएगा। वह हड्डी के टुकड़े अथवा पत्थर किसी की भी पूजा कर सकता है। उपासना की इन सब अपरिष्कृत अवस्थाओं में मनुष्य ने कभी पत्थर को पत्थर समझकर, वृक्ष को वृक्ष समझकर नहीं पूजा। इस बात को तुम अपनी सहज बुद्धि से जानते हो। विद्वान कभी-कभी कहते हैं कि मनुष्य पत्थरों और वृक्षों को पूजते हैं। वह सब बकवास है। वृक्ष पूजा उन दशाओं में से एक है, जिनमें होकर मानव जाति गुजरी है। मनुष्य ने वास्तव में कभी भी चेतना के अतिरिक्त और किसी की पूजा नहीं की। वह आत्मा है और आत्मा के अतिरिक्त कुछ और अनुभव नहीं कर सकता। दैवी मन कभी आत्मा की पदार्थ के रूप में पूजा करने की भद्दी भूल नहीं कर सकता। इस दशा में मनुष्य ने पत्थर में चेतना की अथवा वृक्ष में चेतना की धारणा की। उसने कल्पना की कि उस सत्ता का कुछ भाग पत्थर में अथवा वृक्ष में रहता है और पत्थर और वृक्ष में आत्मा होती है।


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