कवि प्रदीप : देशभक्ति को घर-घर पहुंचाया

By: Feb 4th, 2018 12:05 am

जन्म दिवस  विशेष

कवि प्रदीप (जन्म : 6 फरवरी, 1915, उज्जैन, मध्य प्रदेश;  मृत्यु : 11 दिसंबर, 1998, मुंबई) का मूल नाम रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी था। प्रदीप हिंदी साहित्य जगत और हिंदी फिल्म जगत के एक अति सुदृढ़ रचनाकार रहे। कवि प्रदीप ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ सरीखे देशभक्ति गीतों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान शहीद हुए सैनिकों की श्रद्धांजलि में यह गीत लिखा था। भारत रत्न से सम्मानित स्वर कोकिला लता मंगेशकर द्वारा गाए इस गीत का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में 26 जनवरी 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान से सीधा प्रसारण किया गया था। यूं तो कवि प्रदीप ने प्रेम के हर रूप और हर रस को शब्दों में उतारा, लेकिन वीर रस और देश भक्ति के उनके गीतों की बात ही कुछ अनोखी थी। देश प्रेम और देश-भक्ति से ओत-प्रोत भावनाओं को सुंदर शब्दों में पिरोकर जन-जन तक पहुंचाने वाले कवि प्रदीप के पिता का नाम नारायण भट्ट था। प्रदीप जी उदीच्य ब्राह्मण थे।

शिक्षा

कवि प्रदीप की शुरुआती शिक्षा इंदौर के शिवाजी राव हाई स्कूल में हुई, जहां वे सातवीं कक्षा तक पढ़े। इसके बाद की शिक्षा इलाहाबाद के दारागंज हाई स्कूल में हुई। इसके बाद इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। दारागंज उन दिनों साहित्य का गढ़ हुआ करता था। वर्ष 1933 से 1935 तक का इलाहाबाद का काल प्रदीप जी के लिए साहित्यिक नजरिए से बहुत अच्छा रहा। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की एवं अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया। विद्यार्थी जीवन में ही हिंदी काव्य लेखन एवं हिंदी काव्य वाचन में उनकी गहरी रुचि थी।

विवाह

कवि प्रदीप का विवाह मुंबई निवासी गुजराती ब्राह्मण चुन्नीलाल भट्ट की पुत्री सुभद्रा बेन से 1942 में हुआ था। विवाह से पूर्व कवि प्रदीप ने अपनी भावी पत्नी से एक प्रश्न पूछा था-मैं आग हूं, क्या तुम मेरे साथ रह सकोगी। इसका बड़ा माकूल उत्तर सुभद्रा बेन ने दिया-जी हां, मैं पानी बनकर रहूंगी। इसका निर्वाह उन्होंने जीवन भर किया।

कविता का शौक

किशोरावस्था में ही कवि प्रदीप को लेखन और कविता का शौक लगा। कवि सम्मेलनों में वह खूब दाद बटोरा करते थे। कविता तो आम तौर पर हर व्यक्ति जीवन में कभी न कभी करता ही है, परंतु रामचंद्र द्विवेदी की कविता केवल कुछ क्षणों का शौक या समय बिताने का साधन नहीं थी, वह उनकी सांस-सांस में बसी थी, उनका जीवन थी। इसीलिए अध्यापन छोड़कर वह कविता की सरंचना में व्यस्त हो गए। इलाहाबाद के साहित्यिक वातावरण में कवि प्रदीप की अंतश्चेतना में दबे काव्यांकुरों को फूटने का पर्याप्त अवसर मिला। यहां उन्हें हिंदी के अनेक साहित्य शिल्पियों का स्नेहिल सान्निध्य मिला। वह गोष्ठियों में कविता का पाठ करने लगे।  वर्ष 1939 में लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद कवि प्रदीप ने शिक्षक बनने का प्रयास किया, लेकिन इसी दौरान उन्हें मुंबई में हो रहे एक कवि सम्मेलन में हिस्सा लेने का न्योता मिला। कवि सम्मेलन में उनके गीतों को सुनकर बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो के मालिक हिमांशु राय काफी प्रभावित हुए और उन्होंने प्रदीप को अपने बैनर तले बन रही फिल्म ‘कंगन’ के गीत लिखने की पेशकश की। इस फिल्म में अशोक कुमार एवं देविका रानी ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं। 1939 में प्रदर्शित फिल्म कंगन में उनके गीतों की कामयाबी के बाद प्रदीप बतौर गीतकार फिल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फिल्म के लिए लिखे गए चार गीतों में से प्रदीप ने तीन गीतों को अपना स्वर भी दिया था। इस प्रकार ‘कंगन’ फिल्म के द्वारा भारतीय हिंदी फिल्म उद्योग को गीतकार, संगीतकार एवं गायक के रूप में एक नई प्रतिभा मिली। वर्ष 1943 में मुंबई की बॉम्बे टॉकीज की पांच फिल्मों- ‘अंजान’, ‘किस्मत’, ‘झूला’, ‘नया संसार’ और ‘पुनर्मिलन’ के लिए भी कवि प्रदीप ने गीत लिखे।

छद्म नाम से गीत लेखन

‘फिल्मीस्तान’ फिल्म निर्माण संस्था से अनुबंधित होने पर भी आंतरिक राजनीति के कारण कवि प्रदीप से गीत नहीं लिखाए जा रहे थे। इससे दुखी होकर वे ‘मिस कमल बीए’ के छद्म नाम से गीत लिखने लगे।

स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान

कवि प्रदीप गांधीवादी विचारधारा के कवि थे। प्रदीप जी ने जीवन मूल्यों की कीमत पर धन-दौलत को कभी महत्त्व नहीं दिया। कठोर संघर्षों के बावजूद उनके निवास स्थान ‘पंचामृत’ पर स्वर्ण के कंगुरे भले ही न मिलें, परंतु वैश्विक ख्याति का कलश जरूर दिखेगा। प्रदीप जी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। एक बार स्वतंत्रता के आंदोलन में उनका पैर फ्रैक्चर हो गया था और कई दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा। वह अंग्रेजों के अनाचार-अत्याचार आदि से बहुत दुखी होते थे। उनका मानना था कि यदि आपस में हम लोगों में ईर्ष्या-द्वेष न होता तो हम गुलाम न होते। परम देशभक्त चंद्रशेखर आजाद की शहादत पर कवि प्रदीप का मन करुणा से भर गया था और उन्होंने अपने अंतर्मन से एक गीत रच डाला था।

देशभक्ति के गीत

वर्ष 1940 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। देश को स्वतंत्र कराने के लिए छिड़ी मुहिम में कवि प्रदीप भी शामिल हो गए और इसके लिए उन्होंने अपनी कविताओं का सहारा लिया। अपनी कविताओं के माध्यम से प्रदीप देशवासियों में जागृति पैदा किया करते थे। 1940 में ज्ञान मुखर्जी के निर्देशन में उन्होंने फिल्म ‘बंधन’ के लिए भी गीत लिखा। यूं तो फिल्म बंधन में उनके रचित सभी गीत लोकप्रिय हुए, लेकिन ‘चल चल रे नौजवान…’ के बोल वाले गीत ने आजादी के दीवानों में एक नया जोश भरने का काम किया। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था और हर प्रभात फेरी में इस देश भक्ति के गीत को गाया जाता था। इस गीत ने भारतीय जनमानस पर जादू-सा प्रभाव डाला था। यह राष्ट्रीय गीत बन गया था। चालीस के दशक में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का अंग्रेज सरकार के विरुद्ध ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ अपने चरम पर था। वर्ष 1943 में प्रदर्शित फिल्म ‘किस्मत’ में प्रदीप के लिखे गीत ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’ जैसे गीतों ने जहां एक ओर स्वतंत्रता सेनानियों को झकझोरा, वहीं अंग्रेजों की तिरछी नजर के भी वह शिकार हुए। प्रदीप का रचित यह गीत ‘दूर हटो ए दुनिया वालो’ एक तरह से अंग्रेज सरकार पर सीधा प्रहार था। कवि प्रदीप के क्रांतिकारी विचार को देखकर अंग्रेज सरकार द्वारा गिरफ्तारी का वारंट भी निकाला गया। गिरफ्तारी से बचने के लिए कवि प्रदीप को कुछ दिनों के लिए भूमिगत रहना पड़ा। इसके अलावा भी उन्होंने देशभक्ति के कई गीत लिखे। वर्ष 1954 में प्रदर्शित फिल्म ‘नास्तिक’ में उनके रचित गीत ‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इनसान’ समाज में बढ़ रही कुरीतियों के ऊपर उनका सीधा प्रहार था। वर्ष 1954 में ही फिल्म ‘जागृति’ में उनके रचित गीत की कामयाबी के बाद वह शोहरत की बुलंदियों पर जा बैठे। यह फिल्म कवि प्रदीप के गानों के लिए आज भी स्मरणीय है। प्रदीप द्वारा रचित गीत ‘हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के’ और ‘दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ जैसे गीत आज भी लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हैं।

बॉम्बे टॉकीज का त्याग

हिमांशु राय के निधन के बाद ही बॉम्बे टॉकीज में जो राजनीति दबे पांव घुस आई थी, अब वह सतह पर आ गई। दोनों यूनिटों में संघर्ष तेज हो गया था। मामला अदालत तक आ गया। फैसला देविका रानी के पक्ष में हुआ। देविका रानी फिल्म जगत् से ऊब चुकी थीं, क्योंकि उसका स्वार्थों से भरा स्याह चेहरा उन्होंने देखा था। उन्होंने चार फिल्मों का निर्माण किया था, जिसमें दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वारभाटा’ (1944) भी शामिल थी।  सभी फिल्में फ्लॉप हो गई थीं। उन्हें लगा कि चित्रपट जगत् से सदा के लिए विदा लेने का अवसर आ गया है। रूसी चित्रकार स्वेतोस्लोव रोरिक से शादी करने के बाद उन्होंने 1945 में बॉम्बे टॉकीज को बेच दिया और मुंबई से चली गईं। बॉम्बे टॉकीज के मालिक बदल गए थे और निर्देशक नितिन बोस उससे जुड़कर दिलीप कुमार के साथ सफल फिल्में बना रहे थे। राय बहादुर चुन्नीलाल के साथ शशधर मुखर्जी, ज्ञान मुखर्जी, अशोक कुमार, सावक वाचा और कवि प्रदीप बॉम्बे टॉकीज से अलग हो गए। अपने शेयर के पैसों से इन लोगों ने ‘फिल्मीस्तान’ नामक कंपनी की स्थापना की और फिल्म निर्माण की योजना आरंभ की। बॉम्बे टॉकीज छोड़ने का निर्णय प्रदीप पर भारी पड़ा। ‘फिल्मीस्तान’ की पहली फिल्म ‘चल-चल रे नौजवान’ (1944) थी। जितनी आशा थी, उतनी न फिल्म चली और न ही इसके गाने। इस फिल्म के लिए प्रदीप ने बारह गीत लिखे थे। फिल्म के असफल होने पर इस संस्था में भी राजनीति आ गई। उन्होंने प्रदीप को अलग-थलग कर दिया और गाने लिखाने बंद कर दिए गए। प्रदीप फिल्मीस्तान से हुए कांट्रेक्ट से बंधे थे। वेतन मिल रहा था, किंतु काम नहीं। प्रदीप के कोमल मन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा। वह नहीं चाहते थे कि उनकी कलम कुंठित हो जाए। अतः अपनी आत्मा की आवाज के विरुद्ध ‘मिस कमल बीए’ के नकली नाम से बाहर की फिल्मों के लिए गीत लिखने लगे। ‘लक्ष्मी प्रोडक्शंस’ की तीन फिल्में-‘कादंबरी’ (1944), ‘सती तोरल’ (1947), ‘वीरांगना’ (1947) तथा मुरली मूटीटोन की एक फिल्म ‘आम्रपाली’ (1945) के गीत लिखे। इस बीच फिल्मीस्तान ने प्रदीप से 1946 में ‘शिकारी’ फिल्म के लिए गीत लिखवा लिए। इन फिल्मों के गीतों में साहित्यिकता भले ही हो, पर पहले जैसी लोकप्रियता का तत्त्व कहीं खो गया था। अनेक उतार-चढ़ावों के बाद कवि प्रदीप बाद में एक सफल गीतकार बन गए।

सम्मान और पुरस्कार

कवि प्रदीप को अनेक सम्मान प्राप्त हुए थे, जिनमें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1961) तथा फिल्म जर्नलिस्ट अवार्ड (1963) शामिल हैं। यद्यपि साहित्यिक जगत् में प्रदीप की रचनाओं का मूल्यांकन पिछड़ गया, तथापि फिल्मों में उनके योगदान के लिए भारत सरकार, राज्य सरकारें, फिल्मोद्योग तथा अन्य संस्थाएं उन्हें सम्मानों और पुरस्कारों से अलंकृत करते रहे। उन्हें सर्वश्रेष्ठ फिल्मी गीतकार का पुरस्कार राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा दिया गया। 1995 में राष्ट्रपति द्वारा ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि दी गई और सबसे अंत में, जब कवि प्रदीप का अंत निकट था, फिल्म जगत् में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1998 में भारत के राष्ट्रपति केआर नारायणन द्वारा प्रतिष्ठित ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ दिया गया।

निधन

कवि प्रदीप ने अपने जीवन में 1700 गाने लिखे। ‘बंधन’ के अपने गीत ‘रुक न सको तो जाओ तुम’ को यथार्थ करते हुए 11 सितंबर, 1998 को राष्ट्रकवि प्रदीप का कैंसर से लड़ते हुए 83 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके मर्मस्पर्शी गीतों के कारण लोग उन्हें दीवानगी की हद तक प्यार करते थे।


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