काकभुशुंडि ने दूर किया था गरुड़ का संदेह

By: Feb 17th, 2018 12:05 am

गुरु के द्वारा क्षमा याचना करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा, ‘हे ब्राह्मण! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा। इस शूद्र को 1000 बार जन्म अवश्य ही लेना पड़ेगा, किंतु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है, वह इसे नहीं होगा…

भारत में अध्यात्म व धर्म का बड़ा सम्मान है। वास्तव में इन क्षेत्रों से जुड़े कई ऐसे पात्र हैं जो किसी आध्यात्मिक आश्चर्य से कम नहीं हैं। इन्हीं आश्चर्यों की शृंखला में एक नाम है काकभुशुंडि जी का। इस अंक में हम इसी पात्र की कहानी लेकर आए हैं। काकभुशुंडि रामचरितमानस के एक पात्र हैं। संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा है कि काकभुशुंडि परमज्ञानी रामभक्त हैं। रावण के पुत्र मेघनाद ने राम से युद्ध करते हुए उन्हें नागपाश से बांध दिया था। देवर्षि नारद के कहने पर गरुड़, जो कि सर्पभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर राम को नागपाश के बंधन से छुड़ाया। राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर राम के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को संदेह हो गया। गरुड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद ने उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेजा। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा संदेह भगवान शंकर दूर कर सकते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका संदेह मिटाने के लिए काकभुशुंडि जी के पास भेज दिया। अंत में काकभुशुंडि जी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुना कर गरुड़ के संदेह को दूर किया। गरुड़ के संदेह समाप्त हो जाने के पश्चात् काकभुशुंडि जी ने गरुड़ को स्वयं की कथा सुनाई जो इस प्रकार है ः पूर्व के एक कल्प में कलियुग का समय चल रहा था। उसी समय काकभुशुंडि जी का प्रथम जन्म अयोध्या पुरी में एक शूद्र के घर में हुआ। उस जन्म में वे भगवान शिव के भक्त थे, किंतु अभिमानपूर्वक अन्य देवताओं की निंदा करते थे। एक बार अयोध्या में अकाल पड़ जाने पर वे उज्जैन चले गए। वहां वे एक दयालु ब्राह्मण की सेवा करते हुए उन्हीं के साथ रहने लगे। वे ब्राह्मण भगवान शंकर के बहुत बड़े भक्त थे, किंतु भगवान विष्णु की निंदा कभी नहीं करते थे। उन्होंने उस शूद्र को शिव जी का मंत्र दिया। मंत्र पाकर उसका अभिमान और भी बढ़ गया। वह अन्य द्विजों से ईर्ष्या और भगवान विष्णु से द्रोह करने लगा। उसके इस व्यवहार से उनके गुरु (वे ब्राह्मण) अत्यंत दुःखी होकर उसे श्री राम की भक्ति का उपदेश दिया करते थे। एक बार उस शूद्र ने भगवान शंकर के मंदिर में अपने गुरु, अर्थात् जिस ब्राह्मण के साथ वह रहता था, उसका अपमान कर दिया। इस पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके उसे शाप दे दिया कि रे पापी! तूने गुरु का निरादर किया है, इसलिए तू सर्प की अधम योनि में चला जा और सर्प योनि के बाद तुझे 1000 बार अनेक योनि में जन्म लेना पड़े। गुरु बड़े दयालु थे, इसलिए उन्होंने शिव जी की स्तुति करके अपने शिष्य के लिए क्षमा प्रार्थना की। गुरु के द्वारा क्षमा याचना करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा, ‘हे ब्राह्मण! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा। इस शूद्र को 1000 बार जन्म अवश्य ही लेना पड़ेगा, किंतु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है, वह इसे नहीं होगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। इसे अपने प्रत्येक जन्म का स्मरण बना रहेगा, जगत् में इसे कुछ भी दुर्लभ न होगा और इसकी सर्वत्र अबाध गति होगी। मेरी कृपा से इसे भगवान श्री राम के चरणों के प्रति भक्ति भी प्राप्त होगी।’ इसके पश्चात् उस शूद्र ने विंध्याचल में जाकर सर्प योनि प्राप्त की। कुछ काल बीतने पर उसने उस शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया। वह जो भी शरीर धारण करता था, उसे बिना कष्ट के सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र पहन लेता है। प्रत्येक जन्म की याद उसे बनी रहती थी। श्री रामचंद्र जी के प्रति भक्ति भी उसमें उत्पन्न हो गई। अंतिम शरीर उसने ब्राह्मण का पाया। ब्राह्मण हो जाने पर ज्ञानप्राप्ति के लिए वह लोमश ऋषि के पास गया। जब लोमश ऋषि उसे ज्ञान देते थे, तो वह उनसे अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करता था। उसके इस व्यवहार से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि जा तू चांडाल पक्षी (कौआ) हो जा। वह तत्काल कौआ बनकर उड़ गया। शाप देने के पश्चात् लोमश ऋषि को अपने इस शाप पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने उस कौए को वापस बुला कर राममंत्र दिया तथा इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया। कौए का शरीर पाने के बाद ही राममंत्र मिलने के कारण उस शरीर से उन्हें प्रेम हो गया और वे कौए के रूप में ही रहने लगे तथा काकभुशुंडि के नाम से विख्यात हुए।


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