गीता रहस्य

By: Feb 10th, 2018 12:05 am

स्वामी रामस्वरूप

परमात्मा इस सृष्टि का स्वामी है। वह सृष्टि को उत्पन्न करके पालना एवं संहार करता है। रचना, पालना, प्रलय एवं जीवों को कर्मानुसार शरीर देना यह सब परमात्मा के अधीन है। इन सभी व्यवस्थाओं को श्रीकृष्ण महाराज ने अनुशासितारम पद में प्रस्तुत किया है …

वेद मंत्रों का प्रयोग श्रीकृष्ण महाराज जी ने श्लोक 8/9 में किया है। ‘कविम’ पद यजुर्वेद मंत्र 40/ 8 से लिया है जिसका अर्थ है संसार के कण-कण को जानने वाले तथा सभी जीवात्माओं को भली प्रकार जानने वाले परमात्मा। वेदों में ईश्वर को पुराणम अर्थात अनादि सनातन पुरुष कहा है। जैसे कि सामवेद मंत्र 1633 में ईश्वर से उत्पन्न वेद वाणी को भी पराज्य सनातन गाथा गाने योग्य वेद वाणी द्वारा अभ्यूनषत विद्वान स्तुति करते हैं, ऐसा कहा है। त्रग्वेद मंत्र 3/58/ 6 में कहा कि जीव विद्वानों से विद्या प्राप्त करके पुराणम अनादि काल से सिद्ध ‘ओक’ सब ऋतुओं में सुख देने वाले स्थान के समान शिवम कल्याण कारक ब्रह्म के ऐश्वर्य और विज्ञान को प्राप्त करके सुखी होएं। ऋग्वेद मंत्र 10/29/7 का भाव है कि यह विधि प्रकार की सृष्टि जड़ प्रकृति से ईश्वर की शक्ति द्वारा उत्पन्न होती है। परमात्मा इस सृष्टि का स्वामी है। वह सृष्टि को उत्पन्न करके पालना एवं संहार करता है। रचना, पालना, प्रलय एवं जीवों को कर्मानुसार शरीर देना यह सब परमात्मा के अधीन है। इन सभी व्यवस्थाओं को श्रीकृष्ण महाराज ने ‘अनुशासितारम’ पद में प्रस्तुत किया है । अर्थात परमात्मा प्रकृति में उत्पन्न जड़ संसार एवं संसार के शरीर धारण करने वाले जीवों दोनों पर अनुशासन करता है। ‘अणो’ वह परमात्मा परमाणुओं से भी अति सूक्ष्म है।  श्लोक 8/10 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि वह त्याग के समय भक्ति से युक्त होकर अर्थात भक्ति से जुड़े होकर योग बल के द्वारा दोनों भवों के मध्य में प्राण को भलीभांति स्थिर करके अचल मन से परमात्मा का स्मरण करता है वह पुरुष उस दिव्य परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। भाव- देह त्याग के समय भक्ति युक्त होना तभी संभव है जब यजुर्वेद मंत्र 40/14 के अनुसार बाल्यकाल से ही मनुष्य आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों उन्नतियों के साथ-साथ करता है। तभी प्राणी बाल्यकाल से लेकर वृद्धावस्था तक भौतिक/ सांसारिक शुभ कर्मों के साथ-साथ आध्यात्मिक पूजा, वेदाध्ययन, यज्ञ, योगाभ्यास आदि का भी अभ्यास करता रहता है। जिसके पुण्य से अंत समय में भी प्राणी ईश्वर से जुड़ा रहता है। जो यह कहते हैं कि बच्चों के अभी खेलने का समय है, वृद्धावस्था में नाम ले लेंगे, वे अत्यंत अंधकार में हैं, क्योंकि वृद्धावस्था में ही जीव बाल्य एवं युवा अवस्था में किए गए अभ्यास का ही चिंतन करता है।


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