जंजैहली के बहाने

By: Feb 13th, 2018 12:05 am

अदालत और अदावत के बीच हिमाचल की सबसे खूबसूरत दृश्यावलियों का संगम आज जंजैहली में उफान पर क्यों है। यह प्रश्न इसलिए कि जिस इलाके की मिट्टी का तिलक पूरे हिमाचल ने लगा लिया, उस सराज के ताज पर विवाद क्यों? सरकार की हकीकत से भिन्न अगर जंजैहली और छतरी का भविष्य है, तो भी मंसूबों को राख बनने से रोकना होगा। हिंसक उन्माद अगर विकास और लोकतंत्र की परिभाषा बन गया, तो सुशासन के मायने क्या होंगे। अदालती फैसले से आहत होने की वजह इस आक्रोश में समाहित है, लेकिन फैसलों की जमीन पर अंगारे बरसा कर हम हिमाचल में कितने मोर्चे खोलेंगे। लोकतांत्रिक अधिकार का अलोकतांत्रिक प्रचार अधिक महत्त्वपूर्ण होगा या इन चिंगारियों को बुझाने का सौहार्द कारगर होगा। जंजैहली मात्र एक आंदोलन का अंत नहीं खोज रहा, बल्कि ऐसी ताकत के एहसास में लंबा हिसाब दिखाई दे रहा है। अदालती फैसले की प्रतिक्रिया में कानून-व्यवस्था घायल हो या मौके पर तैनात कर्मी जख्मी हो जाएं, तो यह किसके सपनों का हिमाचल है। क्या फैसला पथराव से होगा या जंजैहली के रास्तों को खूंखार बना कर हम जीत जाएंगे। संघर्ष की ऐसी लाली से परहेज इसलिए भी कि कहीं इसे राजनीति के नाखून लग गए, तो खून समाज का बहता रहेगा। नागरिक समाज की परिपाटी में राजनीतिक चौराहे जिस तरह बढ़ रहे हैं, उससे भविष्य का बंटवारा तय है। जंजैहली में एसडीएम या छतरी में उपतहसील की अधिसूचना रद्द होने को हम या तो कानूनी दिशा में देख सकते हैं या इसे एक वारदात के तरीके से प्रतिक्रिया दे सकते हैं। यहां समाधान गुंजाइश खत्म नहीं हो रही और न ही आंदोलन की भट्ठी पर कोई समाधान तैयार हो रहा। ऐसे में सरकार की नई अधिसूचना में उपचार को स्वीकार करना होगा। यह स्पष्ट है कि यहां विरोध है, तो विपक्ष भी है, लेकिन कानून को हाथ में लेने की वजह स्पष्ट नहीं। अगर समाज को राजनीतिक नेतृत्व ऐसी विचारधारा में विभक्त करता रहा, तो कानून व क्षेत्रवाद में अंतर क्या रहेगा। यह विडंबना है कि हिमाचल का राजनीतिक नेतृत्व, समाज की बुनियाद को बेअसर कर रहा है और प्रगति के तर्कों को भी अपनी मुट्ठी में बंद कर चुका है, इसलिए औजार बनकर जब ऐसे उपहार बंटते हैं, तो प्रतिकूल परिस्थिति में यही आगे आकर युद्धरत हो जाते हैं। ऐसे में नीति तो केवल वहां होती है, जहां वोट नहीं होता। मुद्दे भी वहां होते हैं, जहां कोई राह नहीं होती। पिछली सरकार या इससे पूर्व भी इमारतें बंटी, कार्यालय बंटे तो इसी खुमारी में भाई-भतीजावाद बढ़ गया। क्या सरकारों में दम है कि गैर जरूरी कार्यालय, स्कूल-कालेज आदि बंद कर दिए जाएं। विडंबना यह कि समाज हिमाचली अधिकारों के लिए सड़क पर नहीं आता। हमारे कितने घर, गांव-कस्बे, मंदिर व उजाले पौंग-भाखड़ा जलाशयों में डूबे, इस पर कभी दुख नहीं हुआ। हमारे सामने मंडी को चीरती बीबीएमबी परियोजना आज भी हिमाचली हिस्से की खुशहाली लूट रही है, लेकिन यहां समाज खुद को राष्ट्र नहीं बनाता। करीब छह हजार करोड़ दबाए बैठे बीबीएमबी से पूछें, तो मालूम होगा कि हिमाचल में भी प्रदेशहित की भावना है। हमारे सामने अनावश्यक खर्च करती सरकारों से हम नहीं पूछते कि हर छह महीने बाद सड़क गायब क्यों हो जाती है। आईपीएच की पाइप कहां चली जाती है। जंजैहली के ही आसपास देखें तो कौन चुपचाप जंगल को लूट रहा है, कौन है जो सस्ते अनाज के डिपो से सबका हक लूट रहा है। अगर जंजैहली सुशासन के लिए एसडीएम कार्यालय के लिए चीख रहा है, तो इसे सुनना चाहिए, लेकिन क्या वहां बीपीएल में समाहित लोग ईमानदारी से गरीब हैं या चयन के हर बिंदु पर समाज एक धोखा बन चुका है। अगर हमें आंदोलन की राख में बहुत कुछ भस्म करना है, तो सबसे पहले भ्रष्ट तंत्र को चुनें। क्यों न फर्जी बीपीएल परिवारों के खिलाफ समाज आवाज ऊंची करे, ताकि लाभ की गुंजाइश, हमारी ईमानदारी से तौली जाए। क्यों न स्कूल में पढ़ाई, अस्पताल में इलाज और कार्यालयों के कामकाज के समर्थन में हिमाचली समाज आंदोलनरत हो। क्या हमारे वजूद के फैसले केवल राजनीति ही करेगी और अगर ऐसा नहीं है, तो हम अपनी वकालत में राजनीति को क्यों चेहरा बनाते हैं। समाज के पतन की निशानियों के कुछ चेहरे सियासत, सरकारी कार्य संस्कृति, कानून-व्यवस्था या आपराधिक प्रवृत्तियों में नजर आ जाएंगे, लेकिन हम चुनकर ही कुछ पत्थर फेंकेंगे क्या। कांगड़ा के शाहपुर क्षेत्र में एक और बेटी की लाश जिस अवस्था में मिली है, वहां पुनः कोटखाई प्रकरण विलाप कर रहा है। क्या फिर उत्तेजना से हम अपनी बेटी की अस्मिता की अग्नि जलाएंगे या कोटखाई में थाना फूंक कर कानून के पहरे लंबे हो गए। ऐसे में कहीं आंदोलन हमारे चरित्र को राजनीतिक बंधक तो नहीं बना रहे, यह भी देखना होगा। हिमाचल के आर्थिक व विकासशील पहलुओं में छिपे आंदोलनों का जो सिलसिला विद्युत परियोजनाओं, औद्योगिक केंद्रों या निजी व्यापारिक संस्थानों के इर्द-गिर्द मंडरा रहा है, उस सियासी माहौल में उजड़ने की वजह मौजूद है। आंदोलनों के ऐसे मुहाने निजी निवेश की ईमानदारी को अगर भ्रष्ट इरादों की मंजिल तक ले जा रहे हैं, तो सियासत की चिंगारियां हर हिमाचली तक सेंक पहुंचा चुकी हैं। बहरहाल जंजैहली आंदोलन के तर्क न तो बेमानी हैं और न ही ये असंवैधानिक, लेकिन जिरह को जल्लाद बनाने की सियासी मंशा को निरस्त करना होगा। क्षेत्रीय विकास की पहचान को तरस रहे जंजैहली के विकास का रास्ता कतई पथराव से भरा नहीं हो सकता। समाधान को आग बना देने के बजाय न्याय सम्मत रास्ते पर लोकतांत्रिक अधिकारों से निष्कर्ष असंभव नहीं, इसलिए शांति से, गैर राजनीतिक विकल्पों पर जनभावना का संदेश ही असरदार होगा।


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