जीवात्मा का स्वरूप

By: Feb 3rd, 2018 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

कोई स्वयं अपनी मृत्यु की कल्पना भी नहीं कर सकता। आत्मा अनंत, चिरंतन है। वह मर कैसे सकती है? वह देह बदलती है। जिस प्रकार मनुष्य अपने पुराने फटे कपड़े उतार देता है और नए स्वच्छ वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार जीर्ण शरीर त्याग दिया जाता है और एक नवीन शरीर ग्रहण किया जाता है। जीवात्मा का स्वरूप क्या है? आत्मा भी (सर्वशक्तिमान) और सर्वव्यापी है। आत्मा में न लंबाई होती है, न चौड़ाई, न मोटाई। वह यहां है और वहां है, यह कैसे कहा जा सकता है? यह शरीर नष्ट हो जाता है, तो (आत्मा) दूसरे शरीर (के द्वारा) काम करती है। आत्मा एक वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, पर जिसका केंद्र शरीर है। ईश्वर एक वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है और जिसका केंद्र सर्वत्र है। आत्मा अपने स्वभाव से ही आनंद मय, शुद्ध और पूर्ण है। यदि इसका स्वरूप ही अशुद्ध होता, तो यह कभी शुद्ध नहीं हो सकती थी। शुद्धता आत्मा का स्वभाव है, इसलिए जीवात्मा शुद्ध (हो सकती) है। वह (स्वभाव से) आनंदमय है, इसीलिए वह आनंदमय (हो सकती) है। वह शांति है, (इसीलिए शांतिमय हो सकती है)। हम सब, जो अपने को इस स्तर पर शरीर की ओर आकृष्ट पाते हैं, ईर्ष्या, द्वेष और कठिनाइयों के बीच जीविका के लिए घोर परिश्रम करते हैं और फिर मृत्यु आ जाती है। इससे प्रकट होता है कि जो हमें होना चाहिए, वह हम नहीं हैं। हम स्वतंत्र, पूर्ण शुद्ध आदि नहीं है। जैसे आत्मा का अधःपतन हो गया हो। अतः जीवात्मा को आवश्यकता है, विस्तार की। तुम इसे कैसे कर सकते हो? क्या तुम स्वयं इसका उपाय निकाल सकते हो? नहीं। यदि मनुष्य के चेहरे पर धूल जमी हो, तो क्या तुम उसे धूल से धो सकते हो? यदि मैं धरती में एक बीज होता हूं, तो बीज एक वृक्ष उत्पन्न होता है, वृक्ष बीज उत्पन्न करता है, और बीज दूसरा वृक्ष आदि। मुर्गी और अंडा, अंडा और मुर्गी। यदि तुम कुछ बुरा करते हो, तो तुमको उसका फल भोगना होगा, तुम फिर जन्म लोगे और दुःख भोगोगे। एक बार इस अनंत भोगना शृंखला के चल पड़ने के बाद तुम रुक नहीं सकते। तुम चलते रहते हो ऊपर और नीचे स्वर्गों को और पृथवियों को और इन सब (शरीरों) को.। बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं है। तो तुम फिर इस सबसे बाहर कैसे निकल सकते हो, और तुम यहां किस लिए हो?

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्लाति नरोथऽपराणि

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।

एक विचार है कि हम दुःख से छुटकारा पा जाएं। हम सब दिन-रात दुःख से छुटकारा पाने का प्रयास कर रहे हैं। हम कर्म के द्वारा यह नहीं कर सकते। कर्म से अधिक कर्म उत्पन्न होगा। यह तभी संभव है, यदि कोई ऐसा हो, जो स्वयं मुक्त हो और वह हमें अपने हाथ का सहारा दे। हे अमरता के पुत्रो, वे सब जो इस स्तर पर रहते हैं और वे सब जो ऊपर स्वर्गों में निवास करते हैं, सुनो, मैंने रहस्य को पा लिया, महान ऋषि कहता है। मैंने उसे पा लिया है, जो समस्त अंधकार से परे है। केवल उसी की अनुकंपा से हम भवसागर के पार होते हैं।


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