न किसान की जय, न जवान की

By: Feb 15th, 2018 12:10 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

नीतियां ऐसी बना दी गई हैं कि खेती एक अलाभप्रद व्यवसाय बन गया है। यह नीतियों की असफलता है, किसानों की नहीं। यहां भी सरकार के पास कोई योजना अथवा दूरदृष्टि नहीं है। यह स्थिति ऐसी है कि न जवान की जय है, न किसान की जय है। अब और इंतजार घातक ही होगा। इन समस्याओं को समझने और इनका ईमानदार समाधान ढूंढने की आवश्यकता है, वरना किसान मरते रहेंगे, जवान शहीद होते रहेंगे और हम निरर्थक बहस करते रहेंगे, नारे लगाते रहेंगे…

विदेशों में मजबूत छवि, धर्म के नाम पर देश में समाज के धु्रवीकरण और कमजोर तथा दिशाहीन विपक्ष के चलते मोदी देश में बहुत लोकप्रिय हैं। जनता को अभी उनका कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है। दलबदल विरोधी कानून के कुछ प्रावधानों के कारण राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों में बदल गए हैं और उनमें चेतना का नितांत अभाव है। कांग्रेस को पंजाब में सत्ता का स्वाद मिल रहा है, तो इसलिए कि जनता बादल सरकार की अक्षमता, तानाशाही और भ्रष्टाचार से बेहद नाराज थी। यह नाराजगी का वोट था, पसंदगी का नहीं। यही कारण है कि जिस तरह से पंजाब में अकाली-भाजपा सरकार को सत्ता से जाना पड़ा, वैसे ही हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस भी विपक्ष में बैठने को विवश हुई। गुजरात में पूरा जोर लगाकर भी अपने ही गृह प्रदेश में मोदी और शाह की जोड़ी पिछली विधानसभा सीटों की गिनती तक भी नहीं पहुंच पाई और उसके कई वरिष्ठ मंत्री चुनाव हार गए।

हाल ही में राजस्थान में दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनावों में भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है। वह भी तब, जब भाजपा वहां सत्ता में है। अपनी इस छोटी सी जीत पर कांग्रेस गाल बजा रही है, लेकिन जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है और चुनाव होने वाले हैं, वहां वह अपनी सत्ता को कैसे बचाएगी, इसके लिए उसके पास कोई योजना नहीं है। कांग्रेस इस समय कई चुनौतियों से जूझ रही है। राहुल गांधी की लोकप्रियता कितनी भी बढ़ जाए, वह मोदी के करीब भी नहीं हैं। विपक्ष राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान ले इसकी संभावना बहुत कम है। वह तो राहुल के नेतृत्व में आने को भी तैयार नहीं होगा। कहीं न कहीं वहां सोनिया गांधी का नाम और चेहरा काम आएगा। भाजपा की तुलना में कांग्रेस के पास धन का घोर अभाव है। यही नहीं, उसके पास कार्यकर्ताओं की भी कमी है और उसके अधिकांश नेता जमीन से कटे हुए हैं। कांग्रेस को इस रूप में देखा जा रहा है कि वह कुछ सीटों पर भाजपा को हरा सकती है, मजबूत विपक्ष बन सकती है लेकिन वह सत्ता में आने की स्थिति में नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं कि अगले कुछ महीनों में भाजपा कुछ और किले जीत ले और गुजरात और राजस्थान का कलंक धूमिल पड़ जाए, वैसे ही जैसे दिल्ली और बिहार की हार अब पुरानी बात हो गई है। मीडिया मोदी के गुणगान में व्यस्त है और पार्टी के अंदर से उन्हें कोई गंभीर चुनौती नहीं है। व्यक्तिपूजा के चलते मोदी का सार्थक विकल्प और भी मुश्किल नजर आता है।

इन सब कारणों ने मिलकर मोदी और अमित शाह को तानाशाह बना दिया है। शाह और मोदी सच्चे अर्थों में एक-दूसरे के पूरक हैं। मोदी ‘स्टेट्समैन’ हैं, बोलते बहुत अच्छा हैं। छोटी से छोटी कामयाबी को बड़ा बना कर पेश करने में माहिर हैं, दूरदृष्टि वाले हैं और उनका आकलन-विश्लेषण गहरा होता है तथा वह जनता की सारी कमजोरियों को पहचानते हैं और उसका पूरा लाभ लेते हैं। अमित शाह भी गहरी निगाह वाले हैं, जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं से संवाद बनाते हैं। धन, संगठन और मीडिया का लाभ लेना जानते हैं। समस्या सिर्फ एक ही है कि शाह और मोदी की जोड़ी बहुत शक्तिशाली है और उनका विरोध करने वाला व्यक्ति ट्विटर या अखबारों में तो छा सकता है, पार्टी का समर्थन नहीं ले पाता और अंततः अप्रासंगिक हो जाता है। वह चाहे आडवाणी हों, अरुण शौरी हों या शत्रुघ्न सिन्हा।

बहुत से मामलों में यूपीए-2 की तरह मोदी सरकार भी इस समय अंधेरे में लट्ठ मार रही है। किसानों की आत्महत्याएं और कश्मीर समस्या ऐसे ही दो प्रमुख मुद्दे हैं, जहां मोदी सरकार के पास कोई हल नजर नहीं आता है। टीवी चैनल एक और सर्जिकल स्ट्राइक की मांग कर रहे हैं, बिना यह सोचे कि सर्जिकल स्ट्राइक की सफलता ही इस बात पर निर्भर करती है कि दुश्मन अवाक रह जाए। पाकिस्तान उस स्थिति से उबर चुका है और ऐसी कोई अगली कोशिश हिमाकत भी हो सकती है। आतंकवादियों द्वारा सेना के शिविरों पर हमले या सीमा के उल्लंघन की घटनाओं के बाद उन्हीं जाने-पहचाने ‘रक्षा विशेषज्ञों’ को बुलाते हैं और वे हर बार घिसी-पिटी बातें करके चले जाते हैं। किसी ने यह समझने-बताने की कोशिश नहीं की कि सुरक्षा के घेरों से लैस सेना के शिविरों में फिदायीन कैसे घुस आते हैं और सेना की निगरानी अपने ही ठिकानों पर क्योंकर कमजोर हो जाती है। वह भी उस हाल में जब हमें पता है कि पाकिस्तानी आतंकवादी हर रोज हमारे ठिकानों पर चोट की फिराक में हैं। वातानुकूलित कमरों में बैठकर सलाह देने वाले रक्षा विशेषज्ञ और सवाल पूछने वाले एंकर जानते ही नहीं हैं कि कमी कहां है। इसका एक बहुत छोटा सा उदाहरण सुंजवां सेना शिविर है जहां सामने ऊंची दीवारें हैं, बड़ा-सा मजबूत दरवाजा है, कंटीली तारों की बाड़ है, लेकिन उसी कैंप के पिछले हिस्से में पक्की दीवार तक नहीं है। पहली निगाह में ही नजर आ जाने वाली इस कैंप की यह कमजोरी सेना के अधिकारियों की निगाह से कैसे बची रह गई, यह एक बड़ा सवाल है। निश्चय ही सेना की तत्परता, वीरता और निष्ठा पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता, पर यह एक बड़ी प्रशासनिक चूक है जिसकी जांच होनी चाहिए। शेष सैनिक शिविरों की ऐसी कमजोरियों को पहचान कर उन्हें तुरंत दूर किया जाना चाहिए। मोहम्मद अकबर लोन द्वारा ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन विधानसभा में पाकिस्तान के विरोध में या पक्ष में नारे लगाने से या पाकिस्तान को हमले में उसकी सेना के शामिल होने का ‘सबूत’ देने से कुछ नहीं होने वाला। बातचीत भी बहुत हो चुकी। जम्मू-कश्मीर के भिन्न-भिन्न नेताओं द्वारा पाकिस्तान से बातचीत का सुझाव भी अदूरदर्शितापूर्ण है। बातचीत से पाकिस्तान की राजनीति नहीं बदलेगी। हमें अपनी कमजोरियां दुरुस्त करने, कश्मीरी जनता का विश्वास जीतने और पाकिस्तान की ‘पहल छीनने’ की रणनीति पर काम करना होगा। पाकिस्तानी हमलों को रोकने का यही एक रास्ता है। समस्या यह है कि भारत सरकार सही राह को देख ही नहीं पा रही है।

किसानों की आत्महत्याओं का मामला भी ऐसा ही है, जिसे अब तक की सभी सरकारों ने और भी उलझाया है और केंद्र और राज्यों की सरकारें समस्या की जड़ तक पहुंच ही नहीं पा रही हैं। उथले प्रयास कृषि जगत का और भी नुकसान कर रहे हैं और किसानों के बच्चों की मानसिकता भी खेती से विरत होने लगी है। नीतियां ऐसी बना दी गई हैं कि खेती एक अलाभप्रद व्यवसाय बन गया है। यह नीतियों की असफलता है, किसानों की नहीं। यहां भी सरकार के पास कोई योजना अथवा दूरदृष्टि नहीं है। यह स्थिति ऐसी है कि न जवान की जय है, न किसान की जय है। अब और इंतजार घातक ही होगा। इन समस्याओं को समझने और इनका ईमानदार समाधान ढूंढने की आवश्यकता है, वरना किसान मरते रहेंगे, जवान शहीद होते रहेंगे और हम निरर्थक बहस करते रहेंगे, नारे लगाते रहेंगे।

ई-मेल : indiatotal.features@gmail.com


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