पकौड़े बेचना भी रोजगार

By: Feb 7th, 2018 12:05 am

बेशक रोजगार के मुद्दे पर मोदी सरकार अपेक्षाकृत नाकाम रही है या उसके पास संतोषजनक आंकड़े नहीं हैं, जो देश की युवा जनता को आश्वस्त कर सकें। लेकिन यह भी सच है कि यदि 10 करोड़ से ज्यादा फुटपाथ वालों, खोमचे-रेहड़ी वालों और चाय-पकौड़े-समोसे वालों को कुछ भी रोजगारी राहत मिली है, तो मोदी सरकार को उसे राज्यवार गिनानी चाहिए और मीडिया में बड़े-बड़े विज्ञापन देने चाहिएं। विपक्ष के ऐसे दुष्प्रचार पर खामोश रहकर कुछ भी हासिल नहीं होगा। दरअसल विडंबना यह है कि मंडल आयोग लागू होने के बाद नौकरियों का संकट उमड़ा था और रोजगार के मायने सिर्फ सरकारी नौकरी तक सीमित होकर रह गए थे, लिहाजा आज चपरासी की नौकरी के लिए भी एमए और पीएचडी पास युवा आवेदन कर रहे हैं। क्या ये हमारी शिक्षा नीति के गंभीर छिद्र नहीं हैं? सिर्फ रोजगार का सवाल नहीं है। यदि चार करोड़ से अधिक आवेदन सरकार के नौकरी वाले पोर्टल पर आते हैं और नौकरी करीब 2.5 लाख आवेदकों को ही मिल पाती है, तो यह स्थिति प्रधानमंत्री मोदी ने पैदा नहीं की है। मोदी सरकार से पहले की सरकारों में नौ करोड़ के करीब ही नौकरियां दी जा सकीं। बेरोजगारी एक निरंतर विरासत है, जो मुटियाती जा रही है। मोदी और भाजपा ने चुनाव प्रचार के दौरान एक करोड़ नौकरियां सालाना देने का मुद्दा देश के सामने रखा था, तो कोई संवैधानिक उल्लंघन और नैतिक पाप नहीं किया गया था। चुनाव प्रचार और सत्ता के दरमियान यथार्थ के गहरे, व्यापक फासले होते हैं, लेकिन गौरतलब यह होता है कि सरकार प्रयासरत है या निठल्ली बैठी है! इस मुद्दे पर पकौड़े वाले रोजगार ने बहस को एक नई दिशा दे दी है। प्रधानमंत्री मोदी ने सवाल किया था कि चाय-पकौड़े बेचना क्या रोजगार नहीं है? उसकी मजाकिया व्याख्या पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम ने की और कहा कि फिर तो भीख मांगना भी रोजगार है! इस बहस को नया आयाम दिया अमित शाह ने राज्यसभा में अपने प्रथम वक्तव्य के जरिए। उनका कहना था कि पकौड़े बेचना कोई शर्म की बात नहीं है। बेरोजगारी से बेहतर है कि कुछ मेहनत करके कमाई करना। यह भी स्वरोजगार का एक प्रकार है और आज के युवाओं में स्वरोजगार की प्रवृत्ति खूब बल पकड़ रही है। बेशक पकौड़े-चाय बेचना, सब्जी बेचना, छोले-भटूरे-चावल बेचना, चाय-परांठे-ब्रेड पकौड़े बेचना-ये सभी रोजगार हैं। यदि राजधानी दिल्ली के ही कुछ उदाहरणों की बात की जाए, तो ऐसे कारोबारी कई हैं, जो चाय-पकौड़े के खोखे लगाते हैं और औसतन छह-आठ युवाओं को रोजगार दिए हुए हैं। वे खोखों का किराया ही हजारों रुपए देते हैं, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसे रोजगार से कमाई कितनी होती होगी! कमोबेश सरकारी नौकरी से तो कई गुना बेहतर हैं ये रोजगार। बीकानेर और हल्दीराम के जिंदा उदाहरण सामने हैं। वे किसी रईस के संस्थान नहीं हैं। उन्होंने भी पकौड़े और सामान्य भुजिया से रोजगार की शुरुआत की थी, लेकिन आज वे एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड हैं। पकौड़े और भुजिया बेचने वाले ऐसे और ब्रांड देश के दूसरे हिस्सों में भी मिल जाएंगे। अमित शाह का कथन सटीक है कि बेरोजगारी से बेहतर है पकौड़े बेचना। कमोबेश उसके पीछे भी मेहनत है, श्रम है, निरंतरता है और लाभांश भी है। यह लाभांश अपेक्षाकृत कम है, लेकिन अपवाद भी हैं, जो 50 रुपए का एक समोसा भी बेचते हैं। चाय-पकौड़े-समोसे तो अमरीका और यूरोप के उन बाजारों में भी बेचे जाते हैं, जहां अधिकतर भारतीय रहते हैं, लेकिन अब विदेशी भी हिंदोस्तान के बाजारों में पकौड़े खाते देखे जा सकते हैं। हमारा मकसद मोदी सरकार की रोजगार नीति का अंधा समर्थन करना नहीं है, लेकिन ठेला लगाना, रेहड़ी लगाना, खोमचे पर कुछ बेचना या चाय-पकौड़े का काम करना एक पूरा रोजगार है। यदि नौजवान विदेशों में माइक्रोसॉफ्ट और गूगल सरीखी कंपनियों की संपन्न नौकरियां छोड़ कर भारत आ रहे हैं और अपने स्टार्टअप शुरू कर रहे हैं, तो भारत के बेरोजगार पकौड़े क्यों नहीं तल सकते? हमने गुदड़ी के लालों को आईएएस बनते देखा है, एक चायवाले का बेटा प्रधानमंत्री बन सकता है, प्रमाण पूरे देश के सामने है, तो पकौड़े वाले की नई पीढ़ी विकास क्यों नहीं कर सकती? उनमें भी कई ऐसे हो सकते हैं, जो बीकानेर और हल्दीराम बन सकते हैं, रिलायंस और टाटा बन सकते हैं। कमोबेश भिखारी से तुलना नहीं की जा सकती। भीख मांगना विवशता भी है, अपंगता भी है और आदतन भी है, लेकिन पकौड़े बनाना और बेचना पूरा रोजगार है। यदि मोदी सरकार 10 करोड़ से अधिक फुटपाथिया कारोबारियों को करीब पांच लाख करोड़ रुपए के कर्ज दे चुकी है, तो हमारा मानना है कि इस योजना को और अधिक लोकप्रिय बनाया जाए। सरकार और उसके अधिकारी गली-गली, मोहल्ला, बाजार जाएं और रेहड़ी, खोमचे, खोखे वालों से बात कर, उन्हें कर्ज मुहैया कराएं। देश देखेगा कि एक दिन यही हमारी अर्थनीति और प्रबंधन क्षमता की मिसाल बनेंगी और विश्व उन पर चर्चा करेगा।


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