पैंतालीस दिन का युद्ध

By: Feb 16th, 2018 12:05 am

सरहद ही खींचनी हो, तो हर लम्हा एक युद्ध है, लेकिन हर जीत का मतलब युद्ध नहीं है। ऐसे में हिमाचल का राजनीतिक मंचन अगर पर्दा गिराने की कहानी है, तो केवल भूमिका ही बदलेगी। न तो पैंतालीस दिनों में सरकार बूढ़ी हो गई है और न ही विपक्ष का खुलासा इतना जवान हो गया कि पूरा प्रदेश बहस बन जाए। यह दीगर है कि कुछ छोटे फैसलों का प्रभाव जयराम सरकार दिखा सकती है। कहीं-कहीं हुआ भी और यह प्रशासनिक व पुलिस के स्तर पर देखा जा सकता है, लेकिन जहां नहीं हुआ उससे भी जनता रू-ब-रू है। बेशक नए नेशनल हाई-वे की चर्चा में सरकार का सीना फूल सकता है, लेकिन खराब हालत में जिन सड़कों पर वाहनों की सांस फूल रही है, जिक्र तो उनका होगा। सरकार चाहती तो इन दिनों में पैचवर्क की तहों के नीचे छलनी सड़कों के घाव दबा सकती थी और तब पैंतालीस दिन के श्रमदान में यकीन बढ़ जाता। हम मान सकते हैं और साक्ष्य प्रमाणित करेंगे कि पूर्ववर्ती सरकार ने हजारों अनसुलझे सवाल और उलझन भरा यथार्थ छोड़ा होगा, लेकिन धरातल के मसले तो अब वर्तमान सरकार की अमानत ही माने जाएंगे। इसमें दो राय नहीं कि पैंतालीस दिनों के हिसाब में सियासी गोंद नहीं चिपकेगी या राज्य की तकदीर नहीं बदलेगी। प्रदेश भाजपा के मुख्य प्रवक्ता रणधीर शर्मा ने सरकार को पेश करते हुए जो घंटियां बजाई हैं, वहां कुछ फैसले सुने जाएंगे और केंद्र के रुख की बरसात भी देखी जाएगी। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार अपने हर बिगुल को हिमाचल तक सुनाएगी, तो लाभ के शब्दों का अर्थ ढूंढा जाएगा और इस पड़ताल का हक विपक्ष को सदा अदा करना है। जो पड़ताल केंद्रीय बजट से शुरू हुई है, हिमाचल के बजटीय प्रावधानों तक जाएगी, लेकिन इससे पूर्व सांसदों के कर्त्तव्य की समीक्षा लाजिमी तौर पर आगामी लोकसभा चुनाव को मसाला प्रदान करेगी। ऐसे में विपक्षी होने की पारी में, कांग्रेस के पास लोकसभा चुनाव का मैदान अगर एक सामर्थ्य है, तो भाजपा के लिए सरकार चलाने का यही सबसे बड़ा प्रमाण होगा। यानी सरकार के हर फैसले का दायरा निरंतर बड़ा होगा, तो मोदी सरकार की वापसी का बोझ भी इसके कंधों पर सवार होगा। दूसरी ओर सरकार के राजनीतिक सुकून में जिस तरह जंजैहली में खलल पड़ रहा है, उसका जवाब देना कहीं और कठिन न हो जाए। जंजैहली का मसला महज आंदोलन नहीं, बल्कि सरकारी फैसलों के नासूर की तरह सचेत करता है। जाहिर है यह पैंतालीस दिनों में ही एक ऐसी अग्निपरीक्षा बन गई, जिसका ताल्लुक सीधे मुख्यमंत्री से कभी कड़वे, कभी मीठे या कभी सख्त फैसले की तरह है। इसमें दो राय नहीं कि प्रदेश के विभिन्न भागों में अपेक्षाएं युद्धरत रहेंगी और सरकार को सीधी लकीरें खींचनी पड़ेंगी, लेकिन समाधानों की फेहरिस्त को संबोधित करना इतना भी आसान नहीं कि कहीं अड़चन नहीं आएगी। जिस सीधी लकीर पर चलकर शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज नई शिक्षा नीति को अंजाम तक पहुंचाना चाहते हैं, वहां शिक्षक अपनी राजनीतिक मंशा बता रहे हैं, तो साहस की मंजिल क्या होगी। सरकार के पास अपनी सफलता के कई तराने होंगे और जिनका जिक्र हर मंच से होने लगा है, तो क्या पैंतालीस दिन का तराजू पूरी तरह उपलब्धियों से भर गया या अभी धरातल को समझने का वक्त चाहिए। हमारे चारों ओर मेडिकल कालेजों का अंबार और चिकित्सा क्षेत्र में करवटें बेहिसाब, लेकिन स्त्री रोग विशेषज्ञ के अभाव में कहीं प्रसूतिगृह ही अगर श्मशान सरीखा हो जाए, तो प्रश्न धरातल से पूछा जाएगा। इसलिए जनता जिस परिवर्तन की खातिर भाजपा सरकार को लाई है, उसका असर गांव की डिस्पेंसरी, पशु औषधालय, पटवारखाने, बिजली के लाइनमैन या आईपीएच के फिटर तक नहीं दिखा, तो बड़ी घोषणाएं क्या कर लेंगी। सरकार बेशक पिछली सरकार से हिसाब चुकता कर सकती है या सफाई करते-करते हर अधिकारी को बदल सकती है, लेकिन जब कामकाज के दर्पण पर एचपीसीए की लीज बहाली या पुराने मामलों को खुर्द-बुर्द करने की जोर आजमाइश होगी, तो राजनीतिक महलों के कांच टूटेंगे ही। जब बात भाजपा की चार्जशीट पर होगी, तो जनता यह भी देखेगी कि किस तरह पूर्व में कांग्रेसी मंत्री और अब भाजपा सरकार के मंत्री अनिल शर्मा निर्दोष साबित होते हैं। राजनीतिक हिसाब की अपनी ही दुनिया है, जो आम जनता के यथार्थ से मेल नहीं खाती। ऐसे में पैंतालीस दिन की लकीर हो या पांच साल का मुकाम, सरकार केवल अपना हुलिया बदलने से नहीं, बल्कि अंदाज बदलने से ही कामयाब सिद्ध होगी।


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