प्रभु के निकट

By: Feb 3rd, 2018 12:05 am

अवधेशानंद गिरि

परमात्मा को जानने के लिए उपनिषद  पहले उक्त तीन अवस्थाओं को जानने के लिए कहते हैं, फिर इनके निषिद्ध स्वरूप शेष रूप तुरीयावस्था में परमात्मा का अनुभव होता है। यही अवस्था परम आनंद और शांति प्रदान करने वाली होती है…

मनुष्य जन्म अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके द्वारा अपनी एवं विश्व की समृद्धि के उच्चतम आयाम स्थापित किए जा सकते हैं। शांति और आनंद जो केवल आत्मज्ञान से ही संभव है, वह भी इसी शरीर से प्राप्त किया जा सकता है। मांडूक्य उपनिषद में कहा गया है सर्वहि एतत ब्रह्म सोऽयंमात्मा चतुष्पाद अर्थात समस्त चराचर जगत ब्रह्म है और हमारे अंदर भी यही परमात्मा है। यह परमात्मा  चार पाद में अनुभव होता है। इसमें तीन अवस्थाएं जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति है तथा इन तीनों का आधार चौथी तुरीय  अवस्था है। हमें तीन अवस्थाएं  जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति दिखाई पड़ती हैं। हम इन तीनों अवस्थाओं को सत्य मानते हैं और इन्हीं में अच्छे-बुरे कर्म करके कभी खुशी तो कभी दुख का अनुभव करते हैं। परमात्मा को जानने के लिए उपनिषद  पहले उक्त तीन अवस्थाओं को जानने के लिए कहते हैं फिर इनके निषिद्ध स्वरूप शेष रूप तुरीयावस्था में परमात्मा का अनुभव होता है। यही अवस्था परम आनंद और शांति प्रदान करने वाली होती है। यही सर्वश्रेष्ठ अवस्था है। जाग्रत अवस्था में चिदात्मक सत्ता विभिन्न प्रकार के जीवों के रूप को ब्रह्य चेतना द्वारा अपनी अव्यक्त, महत् एवं पंच महाभूत निर्मित स्थूल शरीर तथा पांच कर्मेंद्रिय, पांच ज्ञानेंद्रिय, पांच प्राण, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार आदि 19 स्थूल उपकरणों से अपनी वासना के अनुसार स्थूल भोग करता रहता है। समस्त देहंद्रिय एवं मन के शांत होने के कारण ही मनुष्य आनंद का अनुभव करता है। जब प्राज्ञ जाग्रत होता है तो कहता है कि मैं सुख में सोया परंतु  इस अवस्था में वासना बीज रूप धनीभूत हो जाती है। वासनाओं के जाग्रत होने से पुनः देहेंद्रिय व्यपार एवं तीनों अवस्थाएं प्रारंभ हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य बार-बार सुखी और दुखी होता रहता है। परंतु जब वह प्रभु की कृपा से वासनाओं पर नियंत्रण कर लेता है तब उसका विवेक जाग्रत हो जाता है। ऐसे में मनुष्य पाता है कि वह इन तीनों अवस्थाओं से पृथक द्रष्टा मात्र है। साथ ही साथ वह अनंत चैतन्य को इन तीनों अवस्थाओं  का आधार स्वरूप अनुभव करता है। ऐसा मनुष्य अदृश्य और अगम्य होते हुए भी इन तीनों अवस्थाओं में उसी प्रकार उद्भासित होता है जिस प्रकार रज्जु में सर्प या सीप में रजत उद्भासित होता है। तब साधक इन तीनों अवस्थाओं से परे  इसी चैतन्य ज्ञाननंद स्वरूप में स्वयं को स्थापित करके एकाकार हो जाता है। हमें इस बात का गर्व नहीं करना चाहिए कि हमने कितनी संपत्ति अर्जित की है और सुख-सुविधाओं के  कितने संसाधन एकत्रित किए हैं। गर्व करने की बात यह है कि हमारे द्वारा अर्जित संसाधन तथा संपत्ति कितने जरूरतमंदों के काम आ सके। यही धर्म है और यही प्रभु की इच्छा भी है। हमारी शाश्वत पूंजी हमारे द्वारा किए गए भलाई और पुण्य के कार्यों का प्रतिफल है। भलाई-बुराई तथा पाप-पुण्य के रास्ते हमेशा साथ-साथ चलते हैं। अब यह हमें अपने विवेक तथा बुद्धि से तय करना है कि हम किस रास्ते पर आगे बढ़ें। हम अपने आपको समाज के प्रति जितना समर्पित करेंगे, उतने ही हम प्रभु के निकट होंगे।


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