बैंकों का राष्ट्रीकरण रद्द करें

By: Feb 22nd, 2018 12:02 am

1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ था, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के बैंकों का राष्ट्रीकरण किया था। उसे जोखिम भरा, ऐतिहासिक और गरीबोन्मुख कदम माना गया। चूंकि इंदिरा गांधी ने उसके बाद ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। माना गया कि राष्ट्रीकृत बैंक औसत गरीब, किसान और मजदूर के हितकारी साबित होंगे और उन्हें व्यवसाय और जीवन के लिए कर्ज देंगे, लेकिन हुआ इसके उलट। बैंकों का राष्ट्रीकरण अमीरों और मोटे उद्योगपतियों के लिए ‘तिजौरी’ साबित हुआ। बैंकों का राष्ट्रीकरण जारी रहा, इंदिरा गांधी का ‘फर्जी समाजवाद’ भी जारी रहा, वह चुनाव-दर-चुनाव जीतती रहीं, लेकिन गरीबों का बिलकुल भी कायाकल्प नहीं हुआ। आज जब भारत कहने को दुनिया की 5-6वीं अर्थशक्ति है और बहुत जल्दी तीसरे स्थान तक आ सकती है, तब भी देश में करीब 30 करोड़ लोग गरीबी रेखा के तले जी रहे हैं। जो अमीर और धन्नासेठ कारोबारी बैंकों से करोड़ों, अरबों रुपए के कर्ज-दर-कर्ज लेते रहे, लेकिन भुगतान करने की बारी आई, तो आज एनपीए की राशि करीब नौ लाख करोड़ रुपए तक पहुंच चुकी है। कमोबेश गरीब, किसान, मजदूर के कारण तो एनपीए यहां तक नहीं पहुंचा। मध्यम वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग ने बैंकों से जो भी कर्ज लिए, उसे किलस-किलस कर चुकाया, क्योंकि सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा उसके लिए बेहद महत्त्वपूर्ण थी। उस दौर में बैंकों का ही राष्ट्रीकरण नहीं हुआ, बल्कि बीमा कंपनियों और वित्तीय संस्थाओं पर भी सरकारी स्वामित्व बढ़ता गया। बेशक वह फैसला इंदिरा गांधी का जोखिम भरा और साहसिक करार दिया गया था, लेकिन आज विनाशकारी साबित हो रहा है नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, विजय माल्या, ललित मोदी और विक्रम कोठारी तक लंबी कलंक सूची है, जिनके घोटाले और फर्जीवाड़ों के कारण देश की अर्थव्यवस्था को करीब 650 अरब रुपए का नुकसान हो चुका है। बैंकों का राष्ट्रीकरण समाप्त हो या सार्वजनिक बैंकों में निजी हिस्सेदारी तय की जाए, यह बहसतलब मुद्दा है। आखिरी फैसला सरकार और संसद को लेना है, लेकिन यह यथार्थ है कि घोटाले और फ्रॉड सार्वजनिक बैंकों में ही हुए हैं। आज भी एचडीएफसी सरीखे निजी बैंक की तुलना में सार्वजनिक बैंकों की बाजार पूंजी कम है। कारण, निजी बैंक अपने कर्जों की वसूली में सफल रहे हैं और सार्वजनिक बैंकों में कई तरह की सांठगांठ, मिलीभगत, दलाली आदि काम करती है, लिहाजा वसूली प्रभावित होती रही है। इंदिरा गांधी का इरादा कुछ भी रहा हो, लेकिन बैंकों के राष्ट्रीकरण से आम आदमी, खासकर गरीब, को फायदा नहीं हुआ। अलबत्ता कारपोरेट और अमीर घराने फलते-फूलते रहे। एक आकलन है कि यदि सार्वजनिक बैंकों का बाजार पूंजीकरण निजी बैंकों की तुलना में आधा भी होता, तो भारत सरकार और औसत करदाता कमोबेश 10 लाख करोड़ रुपए से अमीर होते। यह प्रक्रिया कैसे होती, इसका विश्लेषण फिर कभी करेंगे, लेकिन सवाल है कि निजी बैंक माल्या जैसे बिगड़ैल उद्योगपति से अपना कर्ज वसूल सकते हैं, तो सरकारी बैंक ऐसा क्यों नहीं कर सके? लिहाजा हर तरह के सुधार अनिवार्य हैं। 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण के दौर में कई प्रयोग किए। भारतीय अर्थव्यवस्था और बाजार को इंस्पेक्टर राज और लालफीताशाही से मुक्त करने की चुनौतीपूर्ण, जोखिमी कोशिशें की गईं। घोटाले उस दौर में भी हुए और प्रधानमंत्री पर एक करोड़ रुपए की ‘घूस’ का आरोप भी लगा, लेकिन आर्थिक सुधार जारी रहे। उनका पालन बाद के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी  और उनके वित्त मंत्रियों-यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह-ने भी किया। आज चुनौती प्रधानमंत्री मोदी के सामने है। बदलाव  की अपेक्षा और उम्मीद उन्हीं से की जा रही है, क्योंकि मोदी को भी इंदिरा गांधी की तरह साहसी, जोखिमी और नवोन्मेषी माना जाता है। प्रधानमंत्री मोदी को विरासत में ऐसे बैंक मिले हैं, जिन्हें इंदिरा ने दिवालिया सी स्थिति में अधिगृहीत किया था। आज भी डिफाल्टरों की जो एक निश्चित जमात है, वह बार-बार सामने आती है, क्योंकि बैंकों की प्रबंधन जमात तक उनकी पहुंच रही है। वह अपना मोटा कर्ज चुकाने में नाकाम रही है, लेकिन फिर ऐसे प्रस्ताव तैयार किए जाते हैं और पीएमओ तक सिफारिश कर देता है और फिर नए सिरे से करोड़ों का कर्ज बैंकों से मिल जाता है। आखिर यह दुष्चक्र टूटेगा कैसे? शायद इसका एक ही इलाज है कि बैंकों का निजीकरण कर दिया जाए या सरकारी बैंकों में बराबर की हिस्सेदारी के साथ निजी निदेशकों को भी बिठा दिया जाए। क्या प्रधानमंत्री मोदी ऐसा कुछ कर पाएंगे? अब इतना तो साबित हो चुका है कि बैंकों की पतली हालत आम आदमी या गरीब किसान के कारण नहीं है। किसानों के तो हजारों करोड़ के कर्ज माफ कर दिए जाते हैं और बैंकों को सरकारें पैसा देती हैं, लेकिन मौजूदा दौर के ‘चोर-लुटेरों’ के करोड़ों की भरपाई कौन करेगा? प्रधानमंत्री मोदी इस मुद्दे पर विमर्श शुरू करें और कोई ऐतिहासिक निर्णय लें। नहीं तो इन आर्थिक घोटालों की गाज उन पर भी पड़ सकती है!


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