मस्जिद दी, तो बुतखाने !

By: Feb 14th, 2018 12:05 am

अयोध्या विवाद पर सुलह, सहमति का कोई फार्मूला कारगर होगा या नहीं, इसे वक्त ही तय करेगा, लेकिन एमआईएम अध्यक्ष एवं सांसद ओवैसी जिस तरह की भाषा बोल रहे हैं, शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल कर रहे हैं, ‘मोदी के अब्बा’ सरीखे आपत्तिजनक विशेषणों का प्रयोग कर रहे हैं, उसके मद्देनजर साफ कहा जा सकता है कि ओवैसी देश में जहर घोल रहे हैं, नफरत की सियासत कर रहे हैं, मुसलमानों को भड़काने पर आमादा हैं। सांसद होने के बावजूद वह हिंदू-मुस्लिम के बीच दरारें पैदा कर सांप्रदायिकता फैलाने की हरकतें कर रहे हैं। आजादी से पूर्व जो भाषा और तेवर जिन्ना के थे, आज उसी अंदाज में ओवैसी हैं। हालांकि आज न तो हालात की दरकार है और न ही जिन्ना की ‘सांप्रदायिक मांग’ मानने की जरूरत है, तो फिर आजाद हिंदोस्तान में पैदा होने वाले और वरिष्ठ सांसद ओवैसी क्यों ऐसी सियासत पर तुले हैं, जिससे देश में दोफाड़ स्थितियां पैदा हो सकती हैं? बेशक ओवैसी इस मुगालते में न रहें कि वह ‘नए जिन्ना’ का अवतार साबित होंगे। दलीलें सिर्फ मस्जिद तक सीमित हैं। यदि ओवैसी सरीखे मुसलमानों को अयोध्या की विवादित जमीन चाहिए, ताकि मस्जिद दोबारा बनाई जा सके, तो वही मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। वैसे बाबर इस कुलीन, सुसंस्कृत, सभ्य देश का बाप-दादा नहीं है। ओवैसी यह भी साफ करें कि वह बाबर की औलाद हैं या आजाद हिंदोस्तान की! बाबर एक बादशाह था, जिसका अयोध्या से कोई सरोकार, संबंध नहीं रहा है। अयोध्या भगवान राम की जन्मस्थली है, कितनी बार चीख-चीख कर यह बताना पड़ेगा, ताकि बाबरवादी नेता भी सुन सकें। ओवैसी की दलील है कि यदि (कथित) बाबरी मस्जिद दे दी, जमीन भी दे दी और अंततः राम मंदिर बन गया, तो हजारों और मसले निकल आएंगे। यदि ताजमहल को ‘तेजो मंदिर’ कहा जाने लगा है, तो दूसरी मस्जिदों की जगह पर भी ‘बुतखाने’ बनाए जा सकते हैं। ओवैसी इसलिए भी आशंकित हैं कि अयोध्या में राम मंदिर बन गया, तो उनकी सियासत ही खत्म हो जाएगी और वह भारत के ‘नए जिन्ना’ नहीं बन सकेंगे। मौलाना सलमान नदवी ने ऐसे ‘मस्जिदवादियों’ से सवाल किया है कि पंजाब और हरियाणा में हजारों मस्जिदें लावारिस पड़ी हैं। दिल्ली में भी सैकड़ों मस्जिदें वीरान पड़ी हैं। वहां माफियागिरी की जाती है, शराब पी जाती है, नशेबाजी के साथ-साथ जुआ भी खेला जाता रहा है। वे मस्जिदें असामाजिक तत्त्वों के अड्डे बनी हैं। ओवैसी को उन मस्जिदों की चिंता क्यों नहीं है? लेकिन ओवैसी उल्टे ही मौलाना नदवी को कोस रहे हैं कि जो मस्जिद का नहीं हुआ, वह इस्लाम का क्या होगा? जो मस्जिद का नहीं हुआ, वह यूनिवर्सिटी का क्या होगा? जो मस्जिद का नहीं हुआ, वह कौम का क्या होगा? परोक्ष तौर पर ओवैसी कह रहे हैं कि मौलाना नदवी का कौम बहिष्कार करे। सवाल है कि क्या देश का औसत मुसलमान ओवैसी के आह्वानों को मानता है या मानने को तैयार है? क्या ऐसे भड़काऊ भाषणों से मस्जिदों को बचाए रखा जा सकता है या देश में अमन, भाईचारा कायम किया जा सकता है? मुद्दा यह था कि श्रीश्री रविशंकर और मौलाना नदवी सरीखे कुछ ‘संतपुरुषों’ ने आपस में विमर्श किया था कि हिंदू-मुस्लिम भाईचारे से अयोध्या विवाद को कैसे निपटाया जा सकता है? वह एक विचार ही था। फैसला अदालत को देना है या अंततः संसद तय करेगी, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अतिवादी सदस्य इतना उत्तेजित हुए कि मौलाना नदवी सरीखे 35 साल पुराने सदस्य को ही निकाल बाहर किया। उन पर आरोप चस्पां किए गए, वे अलग थे। क्या ऐसे बर्ताव से मस्जिद को बचाया जा सकता है? क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायने ये हैं कि कभी भी, कुछ भी, अराजकतावादी, गाली-गलौज सरीखा और सांप्रदायिक दुष्प्रचार किया जाए? दरअसल ओवैसी के मंसूबे कुछ और हैं। यदि कर्नाटक के मुस्लिम नेता बोर्ड से गुहार करते हैं कि ओवैसी को कर्नाटक आने से रोका जाए, क्योंकि उससे मुसलमानों को ही सियासी घाटा होता है, तो समझ लेना चाहिए कि ओवैसी की शख्सियत कैसी है और वह मुसलमानों के कितने बड़े नेता हैं! यह देश हिंदू और मुसलमानों की ‘गंगा-जमुनी’ संस्कृति का है, यह कितनी बार दोहराना पड़ेगा? लगता है, अब ओवैसी का ही बहिष्कार करना पड़ेगा।


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