मिर्जा गालिब : अलग अंदाज से शायरी को दिया नया अंजाम

By: Feb 25th, 2018 12:10 am

गालिब अथवा मिर्जा असदउल्ला बेग खान (जन्म-27 दिसंबर, 1797 ई. आगरा; निधन-15 फरवरी, 1869 ई. दिल्ली) को सारी दुनिया ‘मिर्जा गालिब’ के नाम से जानती है। इनको उर्दू-फारसी का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फारसी कविता के प्रवाह को हिंदुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है। गालिब के लिखे पत्रों, जो उस समय प्रकाशित नहीं हुए थे, को भी उर्दू लेखन का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है। गालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है। उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज्म-उद-दौला का खिताब मिला। गालिब नवाबी खानदान से ताल्लुक रखते थे और मुगल दरबार में ऊंचे ओहदे पर थे। गालिब (असद) नाम से लिखने वाले मिर्जा मुगल काल के आखिरी शासक बहादुर शाह जफर के दरबारी कवि भी रहे। गालिब शिया मुसलमान थे, पर मजहब की भावनाओं में बहुत उदार एवं मित्रपराण स्वतंत्र चेता थे। जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। उन्होंने अपने बारे में स्वयं लिखा था कि दुनिया में यूं तो बहुत से अच्छे कवि-शायर हैं, लेकिन उनकी शैली सबसे निराली है :

हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे

कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए बयां और

परिचय

गालिब उर्दू-फारसी के प्रख्यात कवि तथा महान शायर थे। इनके दादा मिर्जा कौकन बेग खां समरकंद से भारत आए थे। बाद में वह लाहौर में मुइनउल मुल्क के यहां नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्जा कौकन बेग खां के बड़े बेटे अब्दुल्ला बेग खां से मिर्जा गालिब हुए। अब्दुल्ला बेग खां, नवाब आसफउद्दौला की फौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा बख्तावर सिंह के यहां लग गए। लेकिन जब गालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए।

बचपन एवं शिक्षा

आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा। कर्ज में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौकत में कभी कमी नहीं आने देते थे। इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बंद कर दी गई थी। इनका पालन-पोषण पिता की मृत्यु के बाद इनके चचा ने किया था, पर शीघ्र ही उनकी भी मृत्यु हो गई थी और गालिब अपने ननिहाल में आ गए। पिता स्वयं घर-जमाई की तरह सदा ससुराल में रहे। वहीं उनकी संतानों का भी पालन-पोषण हुआ। ननिहाल खुशहाल था। इसलिए गालिब का बचपन अधिकतर वहीं पर बीता और बड़े आराम से बीता। उन लोगों के पास काफी जायदाद थी।

निकाह

जब असदउल्ला खां गालिब सिर्फ 13 वर्ष के थे, इनका विवाह लोहारू के नवाब अहमद बख्श खां के छोटे भाई मिर्जा इलाही बख्श खां ‘मारूफ’ की बेटी उमराव बेगम के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को संपन्न हुआ था। उमराव बेगम 11 वर्ष की थीं। इस तरह लोहारू राजवंश से इनका संबंध और दृढ़ हो गया। पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 वर्ष बाद तो दिल्ली के ही हो गए। गालिब को शिक्षा देने के बाद मुल्ला अब्दुस्समद उन्हीं (गालिब) के साथ आगरा से दिल्ली गए।

प्रारंभिक काव्य

दिल्ली में ससुर तथा उनके प्रतिष्ठित साथियों एवं मित्रों के काव्य प्रेम का इन पर अच्छा असर हुआ। इलाही बख्श खां पवित्र एवं रहस्यवादी प्रेम से पूर्ण काव्य-रचना करते थे। वह पवित्र विचारों के आदमी थे। उनके यहां सूफियों तथा शायरों का जमघट रहता था। निश्चय ही गालिब पर इन गोष्ठियों का अच्छा असर पड़ा होगा। यहां उन्हें तसव्वुफ (धर्मवाद, अध्यात्मवाद) का परिचय मिला होगा और धीरे-धीरे यह जन्मभूमि आगरा में बीते बचपन तथा बाद में किशोरावस्था में दिल्ली में बीते दिनों के बुरे प्रभावों से मुक्त हुए होंगे। दिल्ली आने पर भी शुरू-शुरू में तो मिर्जा का वही तर्ज रहा, पर बाद में वह संभल गए। कहा जाता है कि मनुष्य की कृतियां उसके अंतर का प्रतीक होती हैं। मनुष्य जैसा अंदर से होता है, उसी के अनुकूल वह अपनी अभिव्यक्ति कर पाता है। चाहे कैसा ही भ्रामक पर्दा हो, अंदर की झलक कुछ न कुछ परदे से छनकर आ ही जाती है। इनके प्रारंभिक काव्य के कुछ नमूने इस प्रकार हैं :

नियाज़े-इश्क़,ख़िर्मनसोज़ असबाबे-हविस बेहतर।

जो हो जावें निसारे-बर्क मुश्ते-खारो-खस बेहतर।

आर्थिक कठिनाइयां

विवाह के बाद ‘गालिब’ की आर्थिक कठिनाइयां बढ़ती ही गईं। आगरा के ननिहाल में इनके दिन आराम व रईसीयत से बीतते थे। दिल्ली में भी कुछ दिनों तक रंग रहा। साढ़े सात सौ सालाना पेंशन नवाब अहमद बख्श खां के यहां से मिलती थी। वह यों भी कुछ न कुछ देते रहते थे। मां के यहां से भी कभी-कभी कुछ आ जाता था। अलवर से भी कुछ मिल जाता था। इस तरह जिंदगी मजे में गुजरती थी। पर शीघ्र ही पासा पलट गया। 1822 ई. में ब्रिटिश सरकार एवं अलवर दरबार की स्वीकृति से नवाब अहमद बख्श खां ने अपनी जायदाद का बंटवारा यों किया कि उनके बाद फिरोजपुर झुर्का की गद्दी पर उनके बड़े लड़के शम्सुद्दीन अहमद खां बैठे तथा लोहारू की जागीरें उनके दोनों छोटे बेटों अमीनुद्दीन अहमद खां और जियाउद्दीन अहमद खां को मिली। शम्सुद्दीन अहमद खां की मां बहूखानम थीं और अन्य दोनों की बेगमजान। स्वभावतः दोनों औरतों में प्रतिद्वंद्विता थी और भाइयों के भी दो गिरोह बन गए। आपस में इनकी पटती नहीं थी।

गालिब का दौर

मिर्जा असद उल्लाह खां ‘गालिब’ 27 सितंबर, 1797 को पैदा हुए। सितंबर, 1796 में एक फ्रांसीसी, पर्रों, जो अपनी किस्मत आजमाने हिंदुस्तान आया था, दौलत राव सिंधिया की शाही फौज का सिपहसालार बना दिया गया। इस हैसियत से वह हिंदुस्तान का गवर्नर भी था। उसने दिल्ली का मुहासरा करके उसे फतह कर लिया और अपने एक कमांडर, ले मारशां को शहर का गवर्नर और शाह आलम का मुहाफिज मुकर्रर किया। उसके बाद उसने आगरा पर कब्जा कर लिया।

मुकदमा

असलियत यह थी कि नसरुल्लाबेग की मृत्यु के बाद उनकी जागीर (सोंख और सोंसा) अंग्रेजों ने ली थी। बाद में 25 हजार सालाना पर अहमद बख्श को दे दी गई। 4 मई, 1806 को लॉर्ड लेक ने अहमद बख्श खां से मिलने वाली 25 हजार वार्षिक मालगुजारी इस शर्त पर माफ कर दी कि वह दस हजार सालाना नसरुल्लाबेग खां के आश्रितों को दे। पर इसके चंद दिनों बाद ही 7 जून, 1806 को नवाब अहमद बख्श खां ने लॉर्ड लेक से मिल-मिलाकर इसमें गुपचुप परिवर्तन करा लिया था कि सिर्फ 5 हजार सालाना ही नसरुल्लाबेग खां के आश्रितों को दिए जाएं और इसमें ख्वाजा हाजी भी शामिल रहेगा। इस गुप्त परिवर्तन एवं संशोधन का ज्ञान ‘गालिब’ को नहीं था। इसलिए फिरोजपुर झुर्का के शासक पर दावा दायर कर दिया कि उन्होंने एक तो आदेश के विरुद्ध पेंशन आधी कर दी, फिर उस आधी में भी ख्वाजा जी को शामिल कर लिया।

आगा मीर से मुलाकात की शर्त

जब मिर्जा गालिब लखनऊ पहुंचे तो उन दिनों गाजीउद्दीन हैदर अवध के बादशाह थे। वह ऐशो-इशरत में डूबे हुए इनसान थे। यद्यपि उन्हें भी शेरो-शायरी से कुछ न कुछ दिलचस्पी थी। शासन का काम मुख्यतः नायब सल्तनत मोतमुद्दौला सय्यद मुहम्मद खां देखते थे, जो लखनऊ के इतिहास में ‘आगा मीर’ के नाम से मशहूर हैं। अब तक आगा मीर की ड्योढ़ी मुहल्ला लखनऊ में ज्यों की त्यों कायम है। उस समय आगा मीर में ही शासन की सब शक्ति केंद्रित थी। वह सफेद स्याहा, जो चाहते थे करते थे। यह आदमी शुरू में एक रसोइए के रूप में नौकर हुआ था, किंतु शीघ्र ही नवाब और रेजीडेंट को ऐसा खुश कर लिया कि वे इसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहते थे। उन्हीं की मदद से वह इस पद पर पहुंच पाया था। बिना उसकी सहायता के बादशाह तक पहुंच नहीं हो सकती थी।

व्यक्तित्व

गालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था। ईरानी चेहरा, गोरा-लंबा कद, सुडौल इकहरा बदन, ऊंची नाक, कपोल की हड्डी उभरी हुई, चौड़ा माथा, घनी उठी पलकों के बीच झांकते दीर्घ नयन, संसार की कहानी सुनने को उत्सुक लंबे कान, अपनी सुनाने को उत्सुक, मानों बोल ही पडेंगे। ऐसे होंठ कि अपनी चुप्पी में भी बोल पड़ने वाले, बुढ़ापे में भी फूटती देह की कांति जो इशारा करती है कि जवानी के सौंदर्य में न जाने क्या नशा रहा होगा। सुंदर गौर वर्ण, समस्त जिंदादिली के साथ जीवित, इसी दुनिया के आदमी, इनसान और इनसान के गुण-दोषों से लगाए-यह थे मिर्जा वा मीरजा गालिब। ये रईसजादे थे और जन्म भर अपने को वैसा ही समझते रहे। इसीलिए वस्त्र विन्यास का बड़ा ध्यान रखते थे। जब घर पर होते, प्रायः पाजामा और अंगरखा पहनते थे। सिर पर कामदानी की हुई मलमल की गोल टोपी लगाते थे। जाड़ों में गर्म कपड़े का कलीदार पाजामा और मिर्जई। बाहर जाते तो अक्सर चूड़ीदार या तंग मोहरी का पाजामा, कुर्ता, सदरी या चपकन और ऊपर कीमती लबादा होता था।

गिरफ्तारी

सन् 1845 के लगभग आगरा से बदलकर एक नया कोतवाल फैजुलहसन आया। इसको काव्य से कोई अनुराग नहीं था। इसीलिए गालिब पर मेहरबानी करने की कोई बात उसके लिए नहीं हो सकती थी। फिर वह एक सख्त आदमी भी था। आते ही उसने सख्ती से जांच करनी शुरू की। कई दोस्तों ने मिर्जा को चेतावनी भी दी कि जुआ बंद कर दो, पर वह लोभ एवं अहंकार से अंधे हो रहे थे। उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की। वह समझते थे कि मेरे विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हो सकती। एक दिन कोतवाल ने छापा मारा और लोग तो पिछवाड़े से निकल भागे, पर मिर्जा पकड़ लिए गए। मिर्जा की गिरफ्तारी से पूर्व जौहरी पकड़े गए थे। पर वह रुपया खर्च करके बच गए थे। मुकदमे तक नौबत नहीं आई थी। मिर्जा के पास रुपया कहां था। हां, मित्र थे।

गदर से खराब हुई हालत

1857 के गदर के अनेक चित्र मिर्जा गालिब के पत्रों में तथा इनकी पुस्तक ‘दस्तंबू’ में मिलते हैं। इस समय इनकी मनोवृत्ति अस्थिर थी। यह निर्णय नहीं कर पाते थे कि किस पक्ष में रहें। सोचते थे कि पता नहीं ऊंट किस करवट बैठे? इसीलिए किले से भी थोड़ा संबंध बनाए रखते थे। ‘दस्तंबू’ में उन घटनाओं का जिक्र है जो गदर के समय इनके आगे गुजरी थीं। उधर फसाद शुरू होते ही मिर्जा की बीवी ने उनसे बिना पूछे अपने सारे जेवर और कीमती कपड़े मियां काले साहब के मकान पर भेज दिए ताकि वहां सुरक्षित रहेंगे। पर बात उलटी हुई। काले साहब का मकान भी लुटा और उसके साथ ही गालिब का सामान भी लुट गया। चूंकि इस समय राज मुसलमानों का था, इसीलिए अंग्रेजों ने दिल्ली विजय के बाद उन पर विशेष ध्यान दिया और उनको खूब सताया। बहुत से लोग प्राण-भय से भाग गए। इनमें मिर्जा के भी अनेक मित्र थे। इसीलिए गदर के दिनों में उनकी हालत बहुत खराब हो गई। घर से बाहर बहुत कम निकलते थे। खाने-पीने की भी मुश्किल थी।

मुसलमान हूं, पर आधा

यद्यपि पटियाला के सिपाही आस-पास के मकानों की रक्षा में तैनात थे, और एक दीवार बना दी गई थी। लेकिन 5 अक्तूबर को (18 सितंबर को दिल्ली पर अंग्रेजों का दोबारा से अधिकार हो गया था) कुछ गोरे, सिपाहियों के मना करने पर भी, दीवार फांदकर मिर्जा के मुहल्ले में आ गए और मिर्जा के घर में घुसे। उन्होंने माल-असबाब को हाथ नहीं लगाया, पर मिर्जा, आरिफ के दो बच्चों और चंद लोगों को पकड़कर ले गए और कुतुबउद्दीन सौदागर की हवेली में कर्नल ब्राउन के सामने पेश किया। उनकी हास्यप्रियता और एक मित्र की सिफारिश ने रक्षा की। बात यह हुई जब गोरे मिर्जा को गिरफ्तार करके ले गए, तो अंग्रेज सार्जेंट ने इनकी अनोखी सज-धज देखकर पूछा-‘क्या तुम मुसलमान हो?’ मिर्जा ने हंसकर जवाब दिया कि, ‘मुसलमान तो हूं, पर आधा।’ वह इनके जवाब से चकित हुआ। पूछा-‘आधा मुसलमान हो, कैसे?’ मिर्जा बोले, ‘साहब, शराब पीता हूं, हेम (सूअर) नहीं खाता।’ जब कर्नल के सामने पेश किए गए, तो इन्होंने महारानी विक्टोरिया से अपने पत्र-व्यवहार की बात बताई और अपनी वफादारी का विश्वास दिलाया। कर्नल ने पूछा, ‘तुम दिल्ली की लड़ाई के समय पहाड़ी पर क्यों नहीं आए, जहां अंग्रेजी फौजें और उनके मददगार जमा हो रहे थे?’ मिर्जा ने कहा, ‘तिलंगे दरवाजे से बाहर आदमी को निकलने नहीं देते थे। मैं क्यों कर आता? अगर कोई फरेब करके, कोई बात करके निकल जाता, जब पहाड़ी के करीब गोली की रेंज में पहुंचता तो पहरे वाला गोली मार देता। यह भी माना कि तिलंगे बाहर जाने देते, गोरा पहरेदार भी गोली न मारता, पर मेरी सूरत देखिए और मेरा हाल मालूम कीजिए। बूढ़ा हूं, पांव से अपाहिज, कानों से बहरा, न लड़ाई के लायक, न मश्विरत के काबिल। हां, दुआ करता हूं, सो वहां भी दुआ करता रहा।’ कर्नल साहब हंसे और मिर्जा को उनके नौकरों और घरवालों के साथ घर जाने की इजाजत दे दी।

मृत्यु

मिर्जा गालिब की मृत्यु 15 फरवरी, 1869 ई. को दोपहर ढले हुई थी। इस दिन एक ऐसी प्रतिभा का अंत हो गया, जिसने इस देश में फारसी काव्य को उच्चता प्रदान की और उर्दू गद्य-पद्य को परंपरा की शृंखलाओं से मुक्त कर एक नए सांचे में ढाला। गालिब शिया मुसलमान थे, पर मजहब की भावनाओं में बहुत उदार और स्वतंत्र चेता थे। इनकी मृत्यु के बाद ही आगरा से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘जखीरा बालगोविंद’ के मार्च, 1869 के अंक में इनकी मृत्यु पर जो संपादकीय लेख छपा था और जो शायद इनके संबंध में लिखा सबसे पुराना और पहला लेख है, उससे तो एक नई बात मालूम होती है कि यह बहुत पहले चुपचाप ‘फ्रीमैसन’ हो गए थे और लोगों के बहुत पूछने पर भी उसकी गोपनीयता की अंत तक रक्षा करते रहे। मृत्यु के बाद इनके मित्रों में इस बात को लेकर मतभेद हुआ कि शिया या सुन्नी, किस विधि से इनका अंतिम संस्कार हो। गालिब शिया थे, इसमें किसी को संदेह की गुंजाइश न थी, पर नवाब जियाउद्दीन और महमूद खां ने सुन्नी विधि से ही सब क्रिया-कर्म कराया और जिस लोहारू खानदान ने 1847 ई. में समाचार पत्रों में छपवाया था कि गालिब से हमारा दूर का संबंध है, उसी खानदान के नवाब जियाउद्दीन ने संपूर्ण संस्कार करवाया और उनके शव को गौरव के साथ अपने वंश के कब्रिस्तान (जो चौसठ खंभा के पास है) में अपने चचा के पास जगह दी।

रचनाएं

गालिब ने अपनी रचनाओं में सरल शब्दों का प्रयोग किया है। उर्दू गद्य-लेखन की नींव रखने के कारण इन्हें वर्तमान उर्दू गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है। इनकी अन्य रचनाएं-लतायफे गैबी, दुरपशे कावेयानी, नामाए ग़ालिब, मेह्नीम आदि गद्य में हैं। फारसी के कुलियात में फारसी कविताओं का संग्रह हैं। दस्तंब में इन्होंने 1857 ई. के बलवे का आंखों देखा विवरण फारसी गद्य में लिखा हैं। गालिब ने निम्न रचनाएं भी की हैं-उर्दू-ए-हिंदी, उर्दू-ए-मुअल्ला, नाम-ए-गालिब, लतायफे गैबी, दुवपशे कावेयानी आदि। इनकी रचनाओं में देश की तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति का वर्णन हुआ है। उनकी खूबसूरत शायरी का संग्रह दीवान-ए-गालिब के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है, जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App