मोदी प्रचारक, सरकार ‘संघी’ नहीं

By: Feb 16th, 2018 12:05 am

प्रधानमंत्री मोदी वर्षों तक आरएसएस के प्रचारक रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी संघ के प्रचारक थे। पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी भी लंबे समय तक प्रचारक रहकर फिर सक्रिय राजनीति में आए। पूर्व केंद्रीय मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी और शांता कुमार सरीखे कई दिग्गज भाजपा नेता संघ की ही देन हैं। मौजूदा मोदी सरकार में कई मंत्री संघ से आए हैं, लेकिन सुषमा स्वराज, प्रकाश जावड़ेकर, स्मृति ईरानी, सुरेश प्रभु, पीयूष गोयल, जनरल वीके सिंह, चौ. बीरेंद्र सिंह आदि कई मंत्री ऐसे भी हैं, जो कभी भी संघ की शाखा तक में नहीं गए। वे सम्मानित और महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री हैं। भाजपा में, राज्यों के मुख्यमंत्री भी संघ के चेहरे रहे हैं। सांसदों और विधायकों के पूर्व प्रचारक होने और संघ से जुड़े रहने की संख्या तो बेहद लंबी है। नीति आयोग, लोकसभा/राज्यसभा टीवी चैनलों, दूरदर्शन, आकाशवाणी, प्रसार भारती और मंत्रालयों में शीर्ष पदों पर भी संघ समर्थक या भूतपूर्व निक्करधारी लोग हैं। क्या ये तमाम नियुक्तियां असंवैधानिक और अपराध की श्रेणी में आती हैं? यदि आरएसएस से जुड़े होना अपराध और अवैध है, तो संविधान के मुताबिक प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री क्यों बनाए गए? देश के राष्ट्रपति और कई राज्यों के राज्यपाल भी आरएसएस से जुड़े रहे हैं। उन्हें संविधान के संरक्षक माना जाता है। वही प्रधानमंत्री, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाते रहे हैं। क्या 1998 (जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की स्थिर सरकार बनी) से लेकर अभी तक तमाम संवैधानिक व्यवस्थाएं गलत या अवैध रही हैं? अटल और आडवाणी तो 1977 की मोरारजी देसाई सरकार में मंत्री रहे हैं। मोरारजी तो बुनियादी तौर पर ‘कांग्रेसी’ थे। वहां से बगावत करके जनता पार्टी में आए थे। उन्होंने पूर्व संघी प्रचारकों को मंत्री क्यों बनाया था? क्या वे नियुक्तियां भी असंवैधानिक थीं? अटल-आडवाणी-जोशी और अब मोदी सरीखे भाजपा नेताओं ने कभी भी देश से छिपाया नहीं कि उनका संघ से जुड़ाव रहा है। देश जानता ही नहीं, स्वीकार भी करता आया है। दरअसल सवाल यह होना चाहिए कि मनमोहन सिंह सरकार में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की व्यवस्था क्या थी? क्या अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में ‘समानांतर सरकार’ ने काम नहीं किया? परिषद में सोनिया को छोड़कर सभी सदस्य गैर निर्वाचित थे। सोनिया भी कैबिनेट का हिस्सा नहीं थीं। लेकिन उन्होंने खाद्य सुरक्षा बिल, मनरेगा, सूचना का अधिकार बिल आदि को पारित कराने को तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह पर अतिरिक्त दबाव डाला। क्या यह कवायद असंवैधानिक नहीं थी? मनमोहन सिंह ने तीन बार खाद्य सुरक्षा बिल वापस किया, लेकिन  सोनिया गांधी की जिद के सामने उन्हें समझौता करना पड़ा और फिर बिल संसद में पारित कराया गया। इसके अलावा, जिन राज्यों में वाम मोर्चा सरकारें रही हैं या अब भी हैं, क्या उन सरकारों में कामरेडों को भर्ती नहीं किया गया? सरकार से लेकर पुलिस थानों और गली-मोहल्लों तक के स्तर पर वामदलों के काडर की ‘दादागिरी’ नहीं रही है? इस दादागिरी को आपराधिक स्तर पर भी सक्रिय देखा जा सकता है। कमोबेश संघ और उसके सहयोगी संगठन मोदी सरकार में या भाजपा शासित राज्य सरकारों में ‘समानंतर सरकार’ की तरह सक्रिय नहीं हैं। कुछ अराजक और अपवाद वाले तत्त्वों को छोड़ना पड़ेगा। सरकार के गलियारों में कुछ ‘भगवाधारी’ चेहरे वाजपेयी सरकार के दौरान भी घूमते थे और आज भी सक्रिय हैं, लेकिन उनमें से एक भी चेहरा सरकार की अंतःरचना में दखल नहीं दे सकता। नोटबंदी के फैसले के पीछे बेशक आरएसएस का दिमाग हो या नहीं, लेकिन सरकारों और पार्टी के सभी संस्थानों में आरएसएस के लोग हैं। अलबत्ता फिर भी सरकार और संगठनों का ‘संघीकरण’ नहीं हुआ है। यह पुख्ता दावा वे कर सकते हैं, जो संघ को वैचारिक स्तर पर जानते हैं। यदि राहुल गांधी का ऐसा मानना है कि नोटबंदी संघ के इशारे पर लागू की गई थी, तो उनका अभिनंदन करना चाहिए। कमोबेश वह संघ को जानने की चेष्टा तो कर रहे हैं। राहुल आरएसएस को क्या जानेंगे? उन्हें अपनी कांग्रेस और पूर्वजों का इतिहास ही पता नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष अपने सलाहकारों को सामने बिठाएं और पूछें कि 1962 के चीन युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सरसंघचालक को क्यों बुलाया था? 1971 के पाकिस्तान युद्ध के बाद संघ के नेताओं को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने क्यों न्योता भजा था और पाबंदी की मांग करने वाले कांग्रेसियों को क्यों फटकारा था? यदि राहुल गांधी को अपना ही इतिहास मालूम होता, तो वह कभी भी मोदी सरकार और भाजपा को संघ की ‘कठपुतली’ न कहते। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के काडर का छोटे से छोटा कार्यकर्ता भी आरएसएस की विचारधारा से प्रेरित हैं, यह वे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी करते हैं, लेकिन अंधभक्त कोई नहीं है और न ही संघ ‘तानाशाही आदेश’ की मुद्रा में रहता है। आरएसएस एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है, जो राष्ट्र-समाज निर्माण में जुटा है। शिक्षा और दलितों-आदिवासियों में संघ का व्यापक कार्य है, जो निरंतर जारी रहता है। उसे वही जान सकता है, जो संघ का अध्येता हो। यदि सरकार के फैसलों के पीछे संघ की सोच साबित हो जाए, तो उसे कुछ पल के लिए गैर संवैधानिक माना जा सकता है, लेकिन यदि संवाद सलाह के तौर पर हुआ है, तो उसमें बुराई क्या है? आखिर सरकारें कई संगठनों से सलाहें लेती रही हैं, लेकिन राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन करना असंवैधानिक है और था। राहुल गांधी को कुछ तार्किक मुद्दों की तलाश करनी चाहिए और कुछ बोलने से पहले अध्ययन करना चाहिए, नहीं तो वह कांग्रेस अध्यक्ष  बनकर भी मोदी की छाया के करीब नहीं पहुंच पाएंगे।


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