मोदी-महबूबा के एक सुर कब

By: Feb 15th, 2018 12:05 am

एक ओर रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन का कहना है कि कश्मीर में आतंकवाद के मद्देनजर पाकिस्तान को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। लेकिन जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का मानना है कि कश्मीर में खून-खराबा खत्म करना है, तो पाकिस्तान के साथ बातचीत करनी चाहिए। दोनों संवैधानिक हस्तियों के सरपरस्त हैं प्रधानमंत्री मोदी। रक्षा मंत्री उन्हीं की कैबिनेट की सदस्या हैं, तो मुख्यमंत्री की पार्टी पीडीपी के साथ भाजपा का गठबंधन है और यह गठबंधन फिलहाल जम्मू-कश्मीर में सत्तारूढ़ है। यदि मोदी सरकार और महबूबा के कश्मीर पर सुर अलग-अलग हैं, तो यह सरकारों की नाकामी है, गठबंधन का विरोधाभास है और अंततः कश्मीर पर प्रधानमंत्री मोदी की नीति सार्थक नहीं है। एक ओर रक्षा मंत्रालय 15,935 करोड़ रुपए की हथियार खरीद को मंजूरी देता है। इस राशि में लाइट मशीन गन, स्नाइपर और असॉल्ट राइफल्स आदि हथियार खरीदे जाने हैं। तात्कालिक जरूरत आतंकवाद के खिलाफ मोर्चेबंदी और सेना की ताकत को ज्यादा मजबूत और व्यापक करना है। यदि सेना को इस तरह हथियारबंद करना है, तो फिर बातचीत के मायने क्या हैं? हालांकि दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) विदेशी जमीन पर लगातार संवाद कर रहे हैं। सवाल है कि यदि संवाद के बावजूद एलओसी पर और जम्मू-कश्मीर के भीतर बारूद के गोले बरस रहे हैं, तो बातचीत बेमानी है। यदि बातचीत भी बेमानी है, तो पाकिस्तान को कब और कैसी कीमत चुकानी पड़ेगी? क्या कुछ और शहादतें…! नए साल के 44 दिनों  में हमारे 26 जवान ‘शहीद’ हो चुके हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे जांबाज सैनिकों ने कोई चूडि़यां पहन रखी हैं। उन्होंने बीते साल 2017 में 138 पाकिस्तानी फौजियों और 218 आतंकियों को मार गिराया है। क्या कश्मीर को लेकर यही सिलसिला जारी रहेगा? यह वक्त भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत का नहीं है। जिन संदर्भों में महबूबा ने बातचीत का आग्रह किया है, उन पर संवाद होना फिजूल है। अलबत्ता महबूबा को अपनी सियासी जमीन की चिंता है। वह अपने बिखरे, नाराज जनाधार को संबोधित कर रही हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर तो यह संदेश जाता रहा है कि मोदी-महबूबा के कश्मीर पर सुर और नीतियां अलग-अलग हैं। गठबंधन होने के बावजूद भाजपा-पीडीपी में गहरे विरोधाभास हैं। तो सवाल है कि आखिर कब तक यह विरोधाभास कश्मीर को झेलना पड़ेगा? आखिर कब दिल्ली और श्रीनगर के सुर एक होंगे? यदि संभव नहीं है, तो ऐसे गठबंधन को तोड़ना ही बेहतर होगा। यह फैसला प्रधानमंत्री मोदी के स्तर पर ही संभव है। हमने सेना कैंप पर आतंकी हमले के दौरान शहीद अशरफ मीर के जनाजे और उसमें उमड़े जन सैलाब के चित्र टीवी चैनलों पर देखे। हुजूम रो रहा था, चेहरे गमजदा थे, लेकिन गुस्सा और आक्रोश भी था। ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ और ‘शहीद अशरफ’ के नारे भारी उत्तेजना के साथ सुनाई दे रहे थे। शहादतें कश्मीर के अवाम को भीतरी तौर पर तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती हैं। सात शहादतों में से छह मुसलमान थे, लेकिन तिरंगे में लिपटी शहादत ‘हिंदोस्तानी’ की थी। शहीद का धर्म, मजहब नहीं होता। मजहब की पहचान और सियासत का अलगाव ‘शहादत’ खत्म कर देती है। हुजूम चीख-चीख कर कह रहा था-घर, घर से ‘अशरफ’ और ‘अयूब पंडित’ निकलेंगे। पाकिस्तान किन-किन को मारेगा! कश्मीर का रंग बदल गया है। 1990 से लेकर आज तक करीब 5000 सुरक्षाकर्मी ‘शहीद’ हो चुके हैं। सभी आतंकवाद के नाम होम हुए हैं। अब एकजुट कश्मीर मानो सत्ता और सियासत से पूछ रहा है कि आखिर केंद्र और कश्मीर के सुर एक कब होंगे! पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई कब और क्या होगी? बहुत हो चुका…जंग के खौफ भी देख लिए…यह जंग नहीं तो क्या है…भारत सरकार किसका इंतजार कर रही है? यही फैसले की घड़ी है। यदि वक्त पर फैसला नहीं लिया जा सका, तो कश्मीर में क्या हो सकता है, उसकी कल्पना ही की जा सकती है।


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