यथार्थ से कटी योजनाओं का हश्र

By: Feb 8th, 2018 12:10 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

योजना बनाते समय जमीनी स्थिति को ध्यान में न रखने का परिणाम ऐसा ही होता है कि सरकार प्रचार करती रहती है और जनता माथा पीटती रहती है। मौजूदा सरकार की अधिकांश योजनाओं का यही हाल है। वह उज्ज्वला योजना हो, स्मार्ट पुलिस प्रोजेक्ट हो, स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट हो, स्वच्छ भारत अभियान हो या मेक इन इंडिया स्कीम हो, नमामि गंगे अभियान हो, हर घोषणा में इतना उथलापन है कि अंततः जनता स्वयं को ठगा हुआ महसूस करती है…

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वर्तमान कार्यकाल का अपना अंतिम पूर्ण बजट पेश कर दिया। यह हमारी आशाओं के अनुरूप ही था कि भाजपा ने इसे विकासोन्मुखी, किसानों और गरीबों का हितैषी, सामाजिक समानता के लक्ष्य का अभूतपूर्व बजट बताया है। हालांकि विपक्षी दलों ने इसे जनता से धोखा करार दिया है। यह एक संयोग ही है कि जिस दिन वित्त मंत्री गरीबों, किसानों, निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग के लिए एक ‘क्रांतिकारी’ और ‘जनहितकारी’ बजट पेश कर रहे थे, उसी दिन भाजपा शासित प्रदेश राजस्थान में उनकी पार्टी दो लोकसभा सीटों और एक विधानसभा सीट पर उपचुनाव हार गई। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा प्रमुख अमित शाह के गृह प्रदेश गुजरात में प्रधानमंत्री सहित भाजपा की पूरी फौज उतरने के बावजूद वह अपनी पुरानी सीटों की संख्या तक नहीं पहुंच सकी और उसके कई वरिष्ठ मंत्री चुनाव हार गए। गुजरात की इस चोट के बाद राजस्थान की हार ने एक बार फिर इस तथ्य की पुष्टि की है कि जनता सिर्फ वादों से खुश नहीं होती, काम जमीन पर भी दिखना चाहिए। समस्या यह है कि प्रधानमंत्री ने इस हद तक नारे उछाले हैं कि उन सबकी पूर्ति संभव नहीं है और बहुत से वादों में इतने सारे झोल हैं कि प्रधानमंत्री की फोटो वाले विज्ञापन कुछ भी कहते रहें, जमीनी सच्चाई निराशाजनक है।

देशभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली इस सरकार ने अपने ताजा बजट में एक छोटा सा संशोधन पेश किया है जिसका भावार्थ है कि  ‘वित्त विधेयक 2016 के सेक्शन 236 के शुरुआती पैराग्राफ में ‘26 सितंबर 2010’ को ‘5 अगस्त 1976’ माना जाए।’ यह निर्दोष सा दिखने वाला संशोधन असल में इसलिए पेश किया गया है, क्योंकि सन् 2014 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने पाया था कि भाजपा और कांग्रेस ने अपने चुनाव अभियान के संचालन के लिए नियमों के विरुद्ध जाकर विदेशी कंपनियों से धन स्वीकार किया है। न्यायालय द्वारा रंगे हाथों पकड़े जाने पर और यह मामला चुनाव आयोग को भेजे जाने पर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सन् 2016 के वित्त विधेयक में चुपचाप एक संशोधन पास करवा लिया, जिसमें सन् 2010 के कानून में उल्लिखित विदेशी कंपनियों की परिभाषा ही बदल दी गई। ‘फारेन कंट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) एक्ट 2010’ को इससे पूर्व सन् 1976 के कानून के बदले में पास किया गया था। लेकिन गड़बड़ यह हुई कि दोनों दलों को बहुत बार धनराशि 2010 से पहले भी आई थी और इस कानूनी पेंच से बचने के लिए अब वित्त मंत्री ने दोबारा यह संशोधन पेश कर दिया है, ताकि चुनाव से संबंधित नियमों के कारण भाजपा को अयोग्य करार न दिया जा सके।

ताजा बजट के बहुत से बिंदु भाजपा सरकार की कई अन्य कमजोरियों को भी उजागर करते हैं। जीएसटी को लेकर बार-बार घोषणा की गई कि सारे टैक्स खत्म कर दिए गए हैं और उन्हें एक ही टैक्स में शामिल कर दिया गया है, जिससे इस टैक्स की दर दिखाई तो ज्यादा देती है पर यह असल में महंगाई को घटाएगा क्योंकि बाकी टैक्स खत्म हो गए हैं। पर सरकार की नीयत कहीं भी इस घोषणा पर पूरा अमल करने की नहीं है। इसी बजट में चुपचाप एजुकेशन सेस को एक प्रतिशत बढ़ा दिया गया है।

आम जनता के विरोध के बावजूद डीजल, पेट्रोल और शराब को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है। दिखाने के लिए पेट्रोल और डीजल पर आधारभूत एक्साइज ड्यूटी रुपए प्रति लीटर की दर से घटा दी है लेकिन साथ ही पेट्रोल और डीजल पर इतना ही ‘रोड सेस’ लगा दिया, जिसके बारे में जनता को बताया नहीं जा रहा है। यह ‘जनहितकारी’ बजट अब भी ‘सुपर रिच’ के लिए ही हितकारी है। निम्न वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग का गरीब आदमी यही सोचकर खुश हुआ जा रहा है कि उसकी गरीबी दूर हुई या नहीं, पर इस सरकार ने बड़े पूंजीपतियों की तो ऐसी-तैसी कर ही डाली है, जबकि असलियत इसके बिलकुल उलट है। यही नहीं, सारी लोकलुभावन घोषणाओं के बावजूद भाजपा ने सड़क और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च घटा दिया है। यह स्थिति इस तथ्य के बावजूद है कि सरकार ने इक्विटी पर होने वाले लाभ पर भी टैक्स लगा दिया है। सरकार न केवल टैक्स का दायरा बढ़ा रही है, बल्कि अधिकाधिक लोगों को टैक्स के दायरे में ला रही है तो भी इसे सड़क और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च घटाने के लिए विवश होना पड़ रहा है और कहा यह जा रहा है कि सरकार बजटीय घाटे को कम करने में सफल रही है। एक और वस्तुस्थिति की बात करें तो बजट के घालमेल का दूसरा पहलू भी नजर आता है। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की स्वास्थ्य बीमा योजना, जिसे ‘ओबामा केयर’ के नाम से बेहतर जाना गया, की तर्ज पर स्वास्थ्य बीमा योजना की घोषणा की है। इसे भाजपा समर्थक ‘मोदीकेयर’ के नाम से प्रचारित कर रहे हैं। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का सिर्फ एक प्रतिशत ही जनस्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है। खराब स्वास्थ्य और महंगे इलाज के कारण तीन से पांच प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने को विवश हैं। ग्रामीण इलाकों वाले लोग अपनी सेहत पर खर्च की जाने वाली धनराशि के बड़े हिस्से का प्रबंध उधार लेकर या संपत्ति बेचकर करते हैं। हर परिवार को पांच लाख रुपए वार्षिक अनुदान की इस योजना का कार्यान्वयन कैसे होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है, क्योंकि सरकारी अस्पतालों की मौजूदा शोचनीय स्थिति को कैसे बदला जाएगा, इसके लिए कोई पुख्ता कार्ययोजना नहीं बनाई गई है। घोषणा और अमल का अंतर इसी से नजर आता है कि यूपीए सरकार के दूसरे दौर में खाद्य सुरक्षा बिल का खूब शोर मचाया गया। राहुल गांधी ने इस कानून के नाम पर लोगों से वोट मांगे, लेकिन असल स्थिति क्या है? क्या गरीबों को अन्न मिला? क्या भूख से होने वाली मौतों पर रोक लगी?

उज्ज्वला योजना में गरीबी रेखा से नीचे के जिन परिवारों को गैस के कनेक्शन दिए गए, वे जंगल से मुफ्त लकड़ी काटकर जलाते थे। गैस का सिलेंडर एक बार खत्म होने के बाद वे उसे दोबारा इसलिए नहीं भरवा सके क्योंकि इस अतिरिक्त खर्च के लिए उनके पास कोई जुगाड़ नहीं था। योजना बनाते समय जमीनी स्थिति को ध्यान में न रखने का परिणाम ऐसा ही होता है कि सरकार प्रचार करती रहती है और जनता माथा पीटती रहती है। मौजूदा सरकार की अधिकांश योजनाओं का यही हाल है। वह उज्ज्वला योजना हो, स्मार्ट पुलिस प्रोजेक्ट हो, स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट हो, स्वच्छ भारत अभियान हो या मेक इन इंडिया स्कीम हो, नमामि गंगे अभियान हो, हर घोषणा में इतना उथलापन है कि अंततः जनता स्वयं को ठगा हुआ महसूस करती है। सरकार कुछ भी कहे, कितने ही आंकड़े दे, लोग सिर्फ यह देखते हैं कि उनका कुल मासिक खर्च कितना कम हुआ या बढ़ा। उसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, सामान्य रहन-सहन और रसोई का बजट आदि सब शामिल है, अन्यथा सरकार कोई भी, कितनी भी लुभावनी बातें करे, उसका हाल वही होगा जो 2014 में सत्तासीन होने के बावजूद यूपीए का हुआ और अब राजस्थान में भाजपा का हुआ है।

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