योग्यता-अयोग्यता के बीच

By: Feb 20th, 2018 12:05 am

शिक्षा के एक सर्वेक्षण ने हिमाचल के सरकारी ढांचे की करतूत स्याह कर डाली। इसी तर्ज पर अगर सरकारी अस्पतालों, परिवहन सेवाओं तथा तमाम बोर्ड-निगमों की वस्तुस्थिति का पता कराएं तो पता चलेगा कि इनके मुकाबले वास्तव में निजी क्षेत्र कितनी सेवा कर रहा है। आश्चर्य यह कि हिमाचल में विभागीय कौशल प्रायः निजी क्षेत्र को ही तोहमत लगाता है, जबकि सार्वजनिक उपक्रमों को प्राइवेट संस्थानों से सीखना होगा अन्यथा सरकार के पास गूंगी इमारतें ही रह जाएंगी। राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद ने सरकारी स्कूलों में शिक्षा की घटती गुणवत्ता के कारण तो ढूंढ लिए, लेकिन उस मंशा और मंतव्य का क्या होगा जो सरकारी नौकरी मिलते ही अपने वित्तीय लाभ की कसौटी बन जाते हैं। पिछले चार सालों में अगर करीब सवा लाख विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों से किनारा किया, तो इस टिप्पणी का इतना सरल निष्कर्ष भी नहीं कि सार्वजनिक मंच अपना शृंगार बदल कर सब सही कर लेगा। इसे जरा इस तरह देखें कि चार सालों में अगर सवा लाख छात्र घट गए, तो यही बढ़ोतरी निजी स्कूलों में आदर्श स्वरूप ले रही है। यानी हर साल करीब तीस हजार बच्चे यह साबित कर रहे हैं कि उनके भविष्य का भरोसा सरकारी ढांचे में नहीं है। कमोबेश इसी तरह का हुलिया हिमाचल के सरकारी अस्पतालों का भी है, जहां से हर दिन कितनी ही एंबुलेंस मरीजों को हिमाचल की सीमा के बाहर ले जाती हैं या प्रदेश के किसी निजी अस्पताल को मंजिल मान लेती हैं। यह इसलिए कि भारतीय चिकित्सा पद्धति के दो समानांतर लक्ष्य दौड़ रहे हैं। सरकारी अस्पतालों से मरीजों का अन्यत्र रैफर होने का लक्ष्य बढ़ रहा है, तो निजी अस्पतालों में इन्हें अपने हिसाब से पाने का उद्देश्य है। किसी भी निजी डाक्टर के अपने ध्येय में बढ़ते मरीज अगर पगार हैं, तो इसके विपरीत सरकारी डाक्टर के लिए मरीज भगाने का फार्मूला भी कई तरह के फायदे गिन लेता है। मरीजों को यह नहीं पता कि वे दवाई खा क्यों रहे और कितनी अनावश्यक खा रहे हैं, जबकि औषधीय गुणवत्ता के हिसाब से भी हिमाचल पर कलंकित होने के प्रमाण बढ़ रहे हैं। जेनेरिक दवाइयों का छलावा केवल एक पोस्टर है, जो हकीकत में है ही नहीं। इसी तरह हिमाचल परिवहन सेवाओं का सर्वेक्षण भी आवश्यक हो जाता है, ताकि पता चले कि सरकारी बसें खाती कितना हैं और व्यर्थ कितना गंवा देती हैं। अगर प्रदेश के सबसे बड़ी निजी परिवहन सेवा नगरोटा बगवां से बिना किसी बड़े ढांचे के चल सकती है, तो परिवहन निगम को अपनी औकात समझ लेनी चाहिए और यह भी कि पूर्व परिवहन मंत्री ने सरकारी बसों का एक और डिपो नगरोटा बगवां में क्यों स्थापित किया। वर्तमान सरकार के यथार्थ में भी परिवहन सेवाओं का हिसाब मंत्री का अपना दस्तूर हो चला है। इलेक्ट्रिक टैक्सियों के रूट बांटने की सूची का मंथन अगर कुल्लू, मंडी व शिमला की हिस्सेदारी में आधे वाहन खींचना है, तो ये तर्क जरूरतों से कहीं ऊपर सियासी हैं। बिना उचित प्रशिक्षण के वाहनों पर रूट के तमगे चढ़ा कर अंतर नहीं आएगा। यह भी विडंबना है कि हिमाचल के अब तक के सभी परिवहन मंत्री केवल सरकारी बसों के हिसाब से फैसले लेते रहे हैं, जबकि निजी बसों के मार्फत यात्रियों का सुकून और भरोसा एक स्थायी रिश्ते की तरह है। कम संख्या के स्कूल-कालेजों को जिस तरह बंद करने के तर्कसंगत फैसले के करीब जयराम सरकार दिखाई देती है, क्या उसी तरह घाटे के रूट व अनावश्यक डिपो बंद होंगे। जयराम ठाकुर सरकार अगर वाकई कुछ सकारात्मक करना चाहती है, तो प्रदेश की कुछ व्यावसायिक व व्यापारिक जिम्मेदारियां निजी क्षेत्र को दे दे, ताकि बोर्ड-निगमों के बढ़ते घाटे रुक जाएं। उदाहरण के लिए प्रदेश में मिल्क फेडरेशन व पशुपालन विभाग के औचित्य का मूल्यांकन करना हो, तो रोजाना प्रदेश में बाहरी राज्यों से आते दुग्ध उत्पादों से पता चल जाएगा कि हिमाचल की औकात क्या है। यही नहीं, हर दिन तूड़ी से लदे ट्रक हमारे पशुओं की रक्षा करते हैं, जबकि कृषि व बागबानी विश्वविद्यालयों के शोध ने तो हमें माकूल चारा उत्पादन के योग्य भी नहीं छोड़ा। हिमाचल की योग्यता-अयोग्यता का फैसला ही अगर निजी व सरकारी क्षेत्र में बंट रहा है, तो यह प्रदेश आर्थिक व प्रशासनिक सुधारों की दिशा में अधिकतम विनिवेश करके अपने हानिकारक ढांचे से मुक्त हो सकता है। प्रदेश में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की आवश्यकता को समझते हुए निवेश का मैत्री माहौल बनाया जाए। शिक्षा की अधूरी जरूरतों को पूरा करने का वर्तमान ढर्रा न सरकारी और न ही समस्त निजी स्कूलों से पूरा माना जाएगा। ऐसे में सरकार के शहरी स्कूलों को श्रेष्ठ शिक्षा शृंखलाओं के साथ या इन्हें केंद्रीय स्कूल शिक्षा बोर्ड के तहत चलाना होगा, जबकि स्कूल बोर्ड को परीक्षा बोर्ड बनने की आदत छोड़कर शिक्षा के उन्नयन में क्रांतिकारी परिवर्तन करने होंगे।


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