रामकृष्ण परमहंस

By: Feb 17th, 2018 12:05 am

रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।

जन्म-मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी, 1836 को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। बाल्यावस्था में वह गदाधर के नाम से प्रसिद्ध थे। वह अपने साधु माता-पिता के लिए ही नहीं, बल्कि अपने गांव के भोले-भाले लोगों के लिए भी शाश्वत आनंद के केंद्र थे। गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किंतु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा। जब परमहंस सात वर्ष के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया।

दर्शन से कृतार्थ- रामकृष्ण परमहंस ने जगन्माता की पुकार के उत्तर में गांव के वंशपरंपरागत गृह का परित्याग कर दिया और सत्रह वर्ष की अवस्था में कोलकाता चले आए तथा झामपुकुर में अपने बड़े भाई के साथ ठहर गए और कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मंदिर कोलकाता में पूजा के लिए नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने मां महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। रामकृष्ण परमहंस भाव में इतने तन्मय रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। वे घंटों ध्यान करते और मां के दर्शनों के लिए तड़पते। जग जननी के गहन चिंतन में उन्होंने मानव जीवन के प्रत्येक संसर्ग को पूर्ण रूप से भुला दिया। मां के दर्शन के निमित्त उनकी आत्मा की अंतरंग गहराई से रुदन के जो शब्द प्रवाहित होते थे वे कठोर हृदय को दया एवं अनुकंपा से भर देते थे। अंत में उनकी प्रार्थना सुन ली गई और जगतमाता के दर्शन से वह कृतकार्य हुए। किंतु यह सफलता उनके लिए केवल संकेत मात्र थी। परमहंस जी असाधारण दृढ़ता और उत्साह से बारह वर्षों तक लगभग सभी प्रमुख धर्मों एवं संप्रदायों का अनुशीलन कर अंत में आध्यात्मिक चेतनता की उस अवस्था में पहुंच गए, जहां से वह संसार में फैले हुए धार्मिक विश्वासों के सभी स्वरूपों को प्रेम एवं सहानुभूति की दृष्टि से देख सकते थे।

आध्यात्मिक विचार- इस प्रकार परमहंस जी का जीवन द्वैतवादी पूजा के स्तर से क्रमबद्ध आध्यात्मिक अनुभवों द्वारा निरपेक्षवाद की ऊंचाई तक निर्भीक एवं सफल उत्कर्ष के रूप में पहुंचा हुआ था। उन्होंने प्रयोग करके अपने जीवन काल में ही देखा कि उस परमोच्च सत्य तक पहुंचने के लिए आध्यात्मिक विचार द्वैतवाद, संशोधित अद्वैतवाद एवं निरपेक्ष अद्वैतवाद, ये तीनों महान श्रेणियां मार्ग की अवस्थाएं थीं। वे एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि यदि एक को दूसरे में जोड़ दिया जाए तो वे एक दूसरे की पूरक हो जाती थीं।

विवाह- बंगाल में बाल विवाह की प्रथा है। गदाधर का भी विवाह बाल्यकाल में हो गया था। उनकी बालिका पत्नी शारदामणि जब दक्षिणेश्वर आईं, तब गदाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। मां शारदामणि का कहना है. ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूं, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है। परमहंस जी कहा करते थे, जो मां जगत का पालन करती हैं, जो मंदिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं। ये विचार उनके अपनी पत्नी मां शारदामणि के प्रति थे।

अमृतोपदेश- एक दिन संध्या को सहसा एक वृद्धा संन्यासिनी स्वयं दक्षिणेश्वर पधारीं। परमहंस रामकृष्ण को पुत्र की भांति उनका स्नेह प्राप्त हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक तांत्रिक साधनाएं कराईं। उनके अतिरिक्त तोतापुरी नामक एक वेदांती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।

आध्यात्मिक प्रेरणा- समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। आचार्य ने चुने हुए कुछ लोगों को अपना घनिष्ठ साथी बनाया। आचार्य परमहंस जी अधिक दिनों तक पृथ्वी पर नहीं रह सके। परमहंस जी को 1885 के मध्य में उन्हें गले के कष्ट के चिह्न दिखलाई दिए। 15 अगस्त, सन् 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया।

 


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