राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजों के विरुद्ध किया विद्रोह

By: Feb 21st, 2018 12:05 am

कांगड़ा, नूरपुर, दत्तारपुर, जसवां, कुल्लू आदि राज्यों को सीधा अंग्रेजी शासन के अधीन कर दिया था। इसके विरुद्ध नूरपुर के राजा वीर सिंह के वजीर श्याम सिंह के पुत्र राम सिंह पठानिया ने विद्रोह करके युद्ध आरंभ कर दिया था…

जन आंदोलन व पहाड़ी रियासतों का विलय

स्वतंत्रता की इच्छा प्रत्येक जीव की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। फिर यह चाहे स्थानीय निरंकुश शासकों से हो या फिर विदेशी आक्रांताओं से, विद्रोह दोनों ही परिस्थितियों में एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। हिमाचल प्रदेश के इतिहास की चर्चा, स्वतंत्रता संग्राम के वर्णन के बिना अधूरी ही मानी जाएगी। पहाड़ी लोगों ने सदा ही बाहरी आक्रामकों तथा भीतरी दमन का विरोध किया है। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि कांगड़ा के राजा विधि चंद (1586 ई.) ने जम्मू और कांगड़ा के राजाओं को संगठित करके मुगल सम्राट अकबर के विरुद्ध सन् 1588-89 में महासंघ बनाया था। वे सब विद्रोह में उठ खड़े हुए थे। सन् 1594-95 में मुगल सत्ता के विरुद्ध एक और विद्रोह हुआ इसका नेतृत्व जसरोटा और जसवां के राजाओं ने किया था। नूरपुर के राजा वासुदेव (1580-1613) राजा जगत सिंह (1613-1646) और उसके पुत्र राजा राजरूप (1646-1661) भी मुगल सम्राट अकबर, जहांगीर और शाहजहां के विरुद्ध यदाकदा विद्रोह करते रहे। गुरु गोबिंद सिंह की बढ़ती हुई शक्ति तथा उनके द्वारा पहाड़ी राज्यों को हड़प करने के भय से राजा तथा लोग संगठित हो गए, ताकि आपत्ति के समय मिलकर अपने राज्यों की रक्षा कर सकें। सन् 1814-1815 के प्रथम अंग्रेज-सिख युद्ध ने कांगड़ा तथा कुल्लू की पहाड़ी सियासतों को अंग्रेजों के चुंगल में धकेल दिया। मंडी और सुकेत की रियासतें तो इससे बच गईं, परंतु कांगड़ा, नूरपुर, दत्तारपुर, जसवां, कुल्लू आदि राज्यों को सीधा अंग्रेजी शासन के अधीन कर दिया था। इसके विरुद्ध नूरपुर के राजा वीर सिंह के वजीर श्याम सिंह के पुत्र राम सिंह पठानिया ने विद्रोह करके युद्ध आरंभ कर दिया। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध कांगड़ा क्षेत्र के अन्य राजाओं के साथ संधि करके एक सेना तैयार की। जसवां के राजा उमेद सिंह दत्तारपुर के राजा जगत चंद, गुलेर के राजा और संसार चंद के पौत्र प्रमोद चंद ने उसकी भरपूर सहायता की। उसने शाहपुर के किले पर अधिकार कर लिया और साम्राज्य शक्ति के साथ लड़ता रहा। दो वर्ष तक भीषण युद्ध के उपरांत उसके मित्रों में से एक पहाड़ सिंह ने उसे धोखा दिया और वह पकड़ा गया। उसे पहले कांगड़ा किला में बंदी रखा गया फिर उसे मृत्युदंड सुनाया गया, परंतु बाद में जालंधर के कमिशनर ने इस सजा को आजीवन कारावास में परिवर्तित करके 23 मार्च, 1848 को देश निकाला देकर उसे सिंगापुर भेज दिया। वहीं पर उसकी मृत्यु हो गई। आज भी कांगड़ा क्षेत्र में उनकी वीरता के गीत गाए जाते हैं। नवंबर 1848 में कांगड़ा, जसवां और दत्तारपुर के राजाओं ने फिर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठाया, लेकिन वे जल्दी ही पराजित हो गए। प्रमोद चंद को अंग्रेजों ने सुजानपुर टीहरा में पकड़ लिया और बंदी बना कर अल्मोड़ा भेज दिया।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App