विष्णु पुराण

By: Feb 3rd, 2018 12:05 am

हे ब्राह्मण! फिर महर्षियों ने सर्वत्र बड़ी धूल उड़ती हुई देख कर अपने पास खड़े हुए लोगों से पूछा कि यह क्या है? तब उन्होंने उत्तर दिया कि इस समय राष्ट्र राजा रहित हो गया, इसलिए दीन, दुःखी मनुष्यों ने धनवानों को लूटना आरंभ कर दिया है…

यतश्च मुनयो रेणुं दद्दशुः सर्वतो द्विज

किमेतदिति चासन्ननान्पप्रछूस्ने जनांस्तदां।

आख्यातं च जनेस्तेषां चोरीभूतंरराजके।

रार्ष्ट्रै तु लोकेंराब्त्तं परस्वादानमातुरैः।

तेषामुदीणवेगानां चोराणां मुनिसत्तमाः।

सुमहान द्दव्यते रेणुः परितत्तापहारिणाम्।

तत् सम्मन्व्य ते सर्वे भुतयस्तस्य भूभृतः।

ममंथरूरुं पुत्राथमनत्यस्य यत्नतः

मध्यमानात्सत्तस्थो तस्योरोः पुरुषः किल।

दग्धस्थूला प्रतीकाशः खर्व्हाटास्योऽतिहस्क

कि रोमीति तान्सर्वान्म विद्रानाह चातुरः

निषीदेति तूचुस्ते निषादस्तेन सौऽभवत

ततस्तत्सम्भवा जाता विंध्यशैलिनवासिनः

निषादा मुनिशार्दूल पाकर्मोपलक्षणः

तेनद्वारेण तत्पांप निष्क्रांत भूपतेः

निषादानस्ये ततो आता वेनकल्पषनाशनाः

हे ब्राह्मण! फिर महर्षियों ने सर्वत्र बड़ी धूल उड़ती हुई देख कर अपने पास खड़े हुए लोगों से पूछा कि यह क्या है? तब उन्होंने उत्तर दिया कि इस समय राष्ट्र राजा रहित हो गया, इसलिए दीन, दुःखी मनुष्यों ने धनवानों को लूटना आरंभ कर दिया है। हे मुनिवरो उन अत्यंत वेगवान लुटेरों के उत्पात से ही वह धूल उड़ रही है। तब उन महर्षियों ने परस्पर में परामर्श करके उस पुत्रहीन राजा वेनकी जांघ को पुत्र प्राप्त के लिए मथा। उसके मथे जाने से उससे जले हुए ठूंठ के समान काले वर्झा का अत्यंत नाटा और छोटा मुख का एक पुरुष प्रकट हुआ। उसने अत्यंत आतुरता पूर्वक उन ऋर्षियों से पूछा कि मैं क्या करूं? तब उन ऋर्षियों ने विषींद अर्थात बैठना कहा, इसलिए वह आगे चलकर निषाद कहा गया। इसलिए हे मुनि! इसके वंशज विंध्याचल पर रहने वाले पापकर्मों में रत निषाद हुए। उस निषाद रूप द्वार के मार्ग से राजा वेन का सभी पान निकल गया, इस प्रकार निषादगण राजा वेणु के पापों को नष्ट करने वाला हो गया।

तस्तैव दक्षिण हस्त ममन्थस्ते ततो द्विजाः।

मथ्यमाने च तत्राभृत्पृथवैन्यः प्रतापवान।।

दीप्यमानः स्तवपुषा साधादग्निरवि ज्वलन्।

आद्यमाजगबं नाम खात्पपात ततो धनुः।।

शराक्च दिव्या नभसः कवच च पपात ह।

तस्मिन जाते तु भूतानि सन्प्रहष्टानि सर्वशः।।

सत्पुत्रेणैव जातेन वेनींऽपि त्रिदिव ययौ।

पुन्नाम्ना नरकातत्रात् सुतेन सुमहात्मना।।

त समुदाश्छ नद्यश्च रत्नान्यादाय सर्वशः।

तोयानि चाभिषेकाथ सर्वाण्येर्वोंरतस्थिरे।।

पितामहश्च भगवानन्देवै रांगिरसैः।

स्यापराणि च भूतानि जगमानि च सर्वशः।।

समागम्य तदावैन्यमभ्यषिश्चन्नराधिपम्।

फिर उन ऋषियों ने वेन के दाएं हाथ को मथा, जिससे वेणू पुत्र पृथुक उत्पन्न हुए, जिनका देह प्रज्वलित अग्नि के समान दैदीप्यमान था। इसी अवसर पर आजगव नामक शिव धनुष दिव्य वाण और कवच आकाश से गिरने लगे। उनके प्रकट होने से सब प्राणियों को अत्यंत प्रसन्नता हुई तथा उन सत्पुत्र की उत्पत्ति से वेणू को भी स्वर्ग प्राप्त हुआ। इस प्रकार महात्मा पुत्र के जन्म लेने से वह नरक में जाने से बच गया। उन राजा पृथुक अभिषेक करने के लिए सब समुद्र और नदियां मूर्तिमान होकर सब प्रकार के रत्न और पवित्र जल लेकर वहां आए तब आगिरस देवताओं के सहित सभी प्राणियों ने राजा पृथुक के राज्याभिषेक महोत्सव में भाग लिया।


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