शांत मन को पाने की चेष्टा

By: Feb 17th, 2018 12:05 am

ओशो

लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं, एक शांत मन को कैसे पाया जाए। मैं उनसे कहता हूं, शांत मन, ऐसा कुछ भी नहीं पाया जाता है, इसके बारे में कभी कुछ सुना ही नहीं। मन कभी शांत नहीं होता। मन अपने आप में कभी भी शांत, मौन नहीं होता, क्योंकि मन का स्वभाव ही है तनाव ग्रस्त होना, उलझन में पडे़ रहना। मन कभी भी स्पष्ट नहीं होता, उसे स्पष्टता नहीं मिल सकती, क्योंकि मन स्वभाव से उलझन है, अस्पष्टता है। स्पष्टता तभी संभव है जब मन न हो, मौन तभी संभव है, जब मन न हो, इसलिए कभी भी शांत मन को पाने की चेष्टा न करें। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम आरंभ से ही एक असंभव आयाम में जा रहे हो। सदा स्मरण रखें कि जो कुछ भी तुम्हारे आसपास घट रहा है उन सब की जडं़े तुम्हारे मन में निहित हैं। मन ही सदा कारण होता है। वह एक प्रक्षेपण करने वाला यंत्र है और बाहर केवल पर्दे ही पर्दे हैं। तुम उन पर्दों पर अपने आप को प्रक्षेपित कर लेते हो। यदि तुम्हें यह भद्दा प्रतीत होता है, तो अपने मन को परिवर्तित कर लो। यदि तुम्हें प्रतीत होता है कि जो कुछ भी मन से आ रहा है वह नारकीय है और भयानक है, तो मन को गिरा दो। मन पर कार्य करना है, पर्दे पर नहीं, उस पर बार-बार चित्रकारी कर के उसे बदलते मत रहो। परंतु एक समस्या है, क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम मन हो, तो तुम इसे गिरा कैसे सकते हो। तो तुम्हें लगता है कि तुम सब कुछ गिरा सकते हो, सब कुछ बदल सकते हो, उसे फिर से रंग सकते हो, फिर से संवार सकते हो, पुनर्व्यवस्थित कर सकते हो, किंतु तुम खुद को कैसे गिरा सकते हो। यही सारे उपद्रव की जड़ है। तुम मन नहीं हो, तुम मन के पार हो। यह सत्य है कि तुमने उसके साथ तादात्म्य बना लिया है, किंतु तुम मन हो नहीं और यही ध्यान का उद्देश्य है। तुम्हें छोटी झलकियां दिखाना कि तुम मन नहीं हो। यदि कुछ क्षण के लिए भी मन ठहर जाए, तुम तब भी वहीं के वहीं हो। इसके विपरीत तुम और भी ज्यादा उपस्थित होते हो, तुम्हारी उपस्थिति और भी ज्यादा प्रवाहमान हो जाती है। मन का ठहर जाना ऐसा होता है जैसे एक जल निकास जो लगातार तुम्हें खाली करता, रुक जाए। अचानक तुम ऊर्जा से भर गए, तुम और संवेदनशील हो गए। यदि तुम क्षण भर के लिए भी इस बात के प्रति सचेत हो जाओ कि मन नहीं है, केवल मैं हूं, तुम सत्य के भीतरी केंद्र तक पहुंच गए। तब मन को गिरा देना सरल हो जाएगा। तुम मन नहीं हो अन्यथा तुम अपने आप को गिराओगे कैसे। पहले तादात्म को गिराना होगा, तब मन को गिराया जा सकता है। जब मन के साथ सारे तादात्म्य गिरा दिए जाएं, जब तुम पर्वत पर बैठे एक द्रष्टा रह जाते हो और मन अंधेरी घाटियों की गहराइयों में छूट जाता है। जब तुम सूर्य से प्रकाशित शिखरों पर होते हो, बस शुद्ध साक्षी, द्रष्टा मात्र, देखते हुए, परंतु किसी भी चीज से कोई तादात्म्य न बनाते हुए अच्छा या बुरा। पापी या पुण्यात्मा, यह या वह, केवल एक शुभ उपस्थिति, एक श्वास, एक धड़कता हुआ हृदय, उस द्रष्टा भाव में सब प्रश्न मिट जातें हैं। मन मिट जाता है,भाप बन कर उड़ जाता है। तुम बस एक शुद्ध आत्मा की तरह रह जाते हो, एक शुद्ध अस्तित्व, एक श्वास, एक हृदय की धड़कन, पूर्णता क्षण में, न अतीत, न भविष्य इसलिए वर्तमान भी नहीं। मन भ्रामक है, जो होता तो नहीं है पर दिखता है और इतना दिखता है कि तुम सोचते हो कि तुम मन हो। मन माया है, मन मात्र एक स्वप्न है, मन एक प्रक्षेपण है। एक पानी का बुलबुला, जिस में कुछ भी नहीं है, परंतु ये एक पानी का बुलबुला नदी में तैरता प्रतीत

होता है।


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