शून्य लागत खेती को खाद-पानी दे बजट

By: Feb 13th, 2018 12:05 am

डा. राजेश्वर सिंह चंदेल

लेखक, नौणी विश्वविद्यालय में संयुक्त निदेशक (अनुसंधान) हैं

प्रदेश में कृषि कार्यों में हर वर्ष लगभग 515 मीट्रिक टन रसायनों का प्रयोग सरकारी आंकड़ों के अनुसार हो रहा है, लेकिन निश्चित रूप से यह आंकड़ा 700-750 मीट्रिक टन तक जाएगा। योजनाकार, वैज्ञानिक एवं कृषि विकास से जुड़े अधिकारियों ने इस गंभीर होती परिस्थिति को नहीं समझा…

दुनिया भर में उर्वरक उद्योग के पितामह कहे जाने वाले जर्मन वैज्ञानिक डा. जस्टस फीहर वॉन लीविग ने नाइट्रोजन एवं अन्य सूक्ष्म तत्त्वों को पौधों के लिए अति आवश्यक बताया था। इस वैज्ञानिक की सोच थी कि भूमि एक कूड़ा-कर्कट है। इसमें कोई पौष्टिक तत्त्व नहीं है। इन्हें यदि हम बाहर से डालते हैं, तो पैदावार दस गुना बढ़ेगी। लेकिन बाहर से डालने वाली यह मात्रा यदि 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 75 किलोग्राम फास्फोरस तथा 150 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर तक पड़ना आरंभ हो जाएगी, तो ऐसा शायद डा. लीविग ने भी नहीं सोचा होगा। लेकिन यह सच सेब की फसल में है। इसी प्रक्रिया में देश की कृषि योग्य 35 एकड़ भूमि बंजर बनने की ओर अग्रसर है। बांधों के पानी में अन्य भारी धातुओं की मात्रा बढ़ने से इसके सिंचाई उपयोग पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है।

हिमाचल प्रदेश जैसे अन्य पहाड़ी राज्य की 8,000 करोड़ रुपए की आर्थिकी फल-सब्जी पर निर्भर है, लेकिन यह उत्पाद रसायन मुक्त नहीं है। हाल के अनुसंधान यह बताते हैं कि 10 प्रतिशत से अधिक फल-सब्जियों के नमूनों में कई कीटनाशक-फफूंदनाशकों केअंश विद्यमान हैं, जिनमें सेब, शिमला मिर्च, टमाटर इत्यादि प्रमुख फसलें हैं। यह चिंता का विषय है। प्रदेश में हर वर्ष लगभग 515 मीट्रिक टन कीटनाशक-फफूंदनाशक का प्रयोग सरकारी आंकड़ों में है, लेकिन निश्चित रूप से यह आंकड़ा 700-750 मीट्रिक टन तक जाएगा क्योंकि बहुत सारे गैर अनुमोदित रसायन धड़ल्ले से बाजार में बिक रहे हैं। कीटनाशकों एवं उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग ने जल, जमीन एवं पर्यावरण को तो प्रभावित किया है, मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी इसके खतरे प्रत्यक्ष हैं। नीति योजनाकार, वैज्ञानिक एवं कृषि विकास से जुड़े अधिकारियों ने इस विषय पर गंभीर होती परिस्थिति को नहीं समझा। परिणामस्वरूप कीटनाशक फफूंदनाशक एवं उर्वरकों का प्रयोग खेती उत्पादन हेतु अपरिहार्य हो गया। लेकिन प्रकृति विषम परिस्थिति आने पर शायद अपने प्रश्नों का उत्तर स्वयं ढूंढती है। इन गंभीर प्रश्नों के उत्तर हेतु ही शायद हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल आचार्य देवव्रत का इस देवभूमि में आगमन हुआ है। वह पिछले दो वर्षों में पहाड़ की खेती-बागबानी को रसायनमुक्त करने हेतु ‘शून्य लागत प्राकृतिक खेती’ के लिए प्रदेश के कोने-कोने में प्रवास कर अलख जगा रहे हैं। देश के इतिहास की यह पहली घटना है कि किसी प्रदेश के महामहिम प्रदेश के दोनों विश्वविद्यालयों में इस खेती पद्धति पर प्रशिक्षण शिविर ही आयोजित नहीं करते, अपितु तीन दिन तक लगातार एक प्रशिक्षु की भांति स्वयं इन शिविरों में विराजमान रहते हैं। इस ‘शून्य लागत प्राकृतिक खेती’ के जनक पद्मश्री सुभाष पालेकर हैं, जिन्होंने लगभग 30 वर्षों तक इस कृषि विधा पर कई प्रयोग कर यह साबित कर दिया कि एक भारतीय गऊ से 30 एकड़ भूमि की उर्वरा शक्ति एवं इसी के मूत्र-गोबर एवं कुछ स्थानीय पेड़-पौधों इत्यादि को मिलाकर स्वस्थ पौध उत्पादन एवं संरक्षण किया जा सकता है।

यह भारतीय कृषि पद्धति उत्तम, सरल, अनुकरणीय, लाभदायक एवं ऋणमुक्त है। यह सिद्ध होता है देश भर के 40 लाख किसानों के कृतत्त्व से, जो इस कृषि पद्धति को सफलतापूर्वक अपनाकर इसके हस्ताक्षर बने हैं। सुभाष पालेकर अगर ‘शून्य लागत प्राकृतिक खेती’ के जनक हैं, तो आचार्य देवव्रत निश्चित रूप से इसके प्रेरक पुरुष बने हैं। हम कृषि वैज्ञानिकों ने जिस रसायन आधारित कृषि शिक्षा को ग्रहण किया, उसी में अनुसंधान एवं प्रसार कार्य किया तथा उसी पद्धति से अगली पीढ़ी को शिक्षण एवं अनुसंधान करवा रहे हैं। यही कारण है कि इस कृषि पद्धति पर जब भी कोई सार्वजनिक कार्यक्रम या आयोजन होता है, तब कोई न कोई वरिष्ठ वैज्ञानिक अपनी नकारात्मक टिप्पणी सोशल मीडिया पर व्यक्त कर देता है। यद्यपि वैज्ञानिक का यह भी दायित्व है कि बिना शोध किए या तथ्य जाने वह अपनी टिप्पणी न करें। खैर, किसी भी परिवर्तन की दिशा में होने वाले उचित कार्य का समाज के एक भाग में विरोध अपरिहार्य है। यह विरोध तर्कसंगत तथा तथ्य आधारित नहीं होता, अपितु इसलिए कि कहीं न कहीं उन्हें लगता है कि उनके वर्षों के ज्ञान-अनुसंधान एवं वैज्ञानिक कुशलता को चुनौती दी जा रही है वह भी स्वदेशी वस्त्रधारक द्वारा एवं भारतीय भाषा में। इस ज्ञान को समाज का एक समूह केवल अपनी ही बपौती मानता रहा है।

अब वक्त आ गया है कि अगली पीढ़ी हेतु रसायनिक कृषि बदलनी होगी। इस दिशा में औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी एवं कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर ने ‘शून्य लागत प्राकृतिक खेती’ पर प्रदर्शन एवं अनुसंधान प्रक्षेत्र स्थापित कर दिए हैं। जहां इस कृषि विधि की सरलता, सहजता एवं लाभ  की जानकारी आम कृषक को मिलेगी, वहीं फसल उत्पादन एवं संरक्षण के हर पहलू का वैज्ञानिक प्रभाव एवं मूल्यांकन भी होगा। इससे इस पद्धति की प्रामाणिकता भी वैज्ञानिक तथ्य सहित स्थापित होगी। इस कृषि पद्धति में मुख्य फसल की लागत का मूल्य अंतःवर्ती फसलों के सह-फसल उत्पादन से निकालकर शुद्ध लाभ मुख्य फसल से लिया जाता है। खेती के लिए कोई भी संसाधन बाजार से नहीं खरीदा जाता। ‘शून्य लागत प्राकृतिक खेती’ किसान आय दोगुनी करने के साथ ही गांव की समृद्धि हेतु प्रथम सार्थक पहल है। प्रदेश में कृषि की इस कल्याणकारी विधा को पूरी तरह से स्थापित करने के लिए अभी कुछ और आर्थिक व नीतिगत प्रयास अपेक्षित हैं। सरकार को चाहिए कि वह अपने आगामी बजट में इसके लिए वित्त और नीति के संदर्भ में कुछ जरूरी प्रावधान करे।


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