संस्कृति एवं धर्म

By: Feb 10th, 2018 12:05 am

महेश योगी

व्यक्ति की संस्कृति को खोने से तात्पर्य प्रकृति के पोषणकारी नियमों के साथ संबंध को खोना है। संस्कृतियों को विश्वभर में संरक्षित किया जा सकता है, अजेय बनाया जा सकता है, उन्हें उनके मूल स्रोत से पुनः जोड़ कर ऐसा किया जा सकता है…

किसी भी स्थान की जलवायु एवं भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप प्राकृतिक नियमों के स्थानीय मूल्यों के संदर्भ में, सामुदायिक एकता युक्त जीवन की आनंदपूर्ण अभिव्यक्ति ही संस्कृति है। सांस्कृतिक मूल्य वे हैं, जो जीवन को संस्कारित करते हैं, मूल्यों की उचित समझ को धारित करते हैं एवं प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऊर्ध्वगामी विकास की दिशा का समर्थन करते हैं । जब किसी राष्ट्र की सामूहिक चेतना सतोगुणी हो अर्थात व्यक्ति प्राकृतिक विधान एवं राष्ट्रीय विधानों का पालन कर रहे हों, तब प्रत्येक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से उसकी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं का पालन करेगा। इसके साथ-साथ उन सब संस्कृतियों को भी समर्थित करेगा, जो राष्ट्रीय जीवन को समृद्ध करती हैं एवं प्रगतिकारक हैं । अंदर एवं बाहर से किसी नकारात्मक प्रभावों के प्रति उपेक्षा, समस्त राष्ट्रों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का होना, इसका स्वाभाविक परिणाम होगा। संस्कृति जीवन की प्रफुल्लता एवं राष्ट्रीय अजेयता के निर्माण में एक विशिष्ट भूमिका निभाती है। यह इसलिए है क्योंकि संस्कृति भाषा, वेश-भूषा, भोजन, रीतियों एवं परंपराओं सहित, चेतना में प्रकृति की अभिव्यक्ति है, जो एक विशिष्ट क्षेत्रा में विकास एवं शांति को प्रोत्साहित करती है । संस्कृति व्यक्ति को प्राकृतिक विधानों के अनुसरण में जीने एवं प्राकृतिक विधानों का उल्लंघन किए जाने के फलस्वरूप नकारात्मक परिस्थितियों से बचाव में सहयोग करती है। जब सामूहिक चेतना सात्विक होती है, तब प्राकृतिक विधान पूर्णतया जीवंत होते हैं एवं राष्ट्र अजेयता को एक सह उत्पाद के रूप में प्राप्त कर आनंद उठाता है। केवल थोड़ी संख्या में भी चेतना पर आधारित कार्यक्रमों का अभ्यास करने से समुदाय अथवा राष्ट्र में सर्व सकारात्मकता का प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है । विश्व के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशेष भौगोलिक एवं जलवायवीय स्थितियां है एवं प्रकृति के इसके अपने नियम हैं। प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र से संबंधित प्रकृति के विशेष नियम उस धरातल पर सांस्कृतिक मूल्य उदित करते हैं। संस्कृतियां प्राकृतिक विधान के स्थानीय स्पंदनों की स्थानीय अभिव्यक्ति हैं। सांस्कृतिक मूल्य स्थानीय प्रकृति के विधान एवं परंपराएं उस क्षेत्र में जीवन को संभालती हैं एवं प्रोत्साहित करती हैं। इसीलिए सांस्कृतिक अखंडता की क्षति से तात्पर्य केवल वेश-भूषा, सांस्कृतिक इतिहास अथवा ज्ञान की परंपरागत शैलियों की क्षति मात्रा नहीं है। व्यक्ति की संस्कृति को खोने से तात्पर्य प्रकृति के पोषणकारी नियमों के साथ संबंध को खोना है। संस्कृतियों को विश्वभर में संरक्षित किया जा सकता है, अजेय बनाया जा सकता है, उन्हें उनके मूल स्रोत से पुनः जोड़ कर ऐसा किया जा सकता है। विविधता के मूल में एकता, प्राकृतिक विधानों के एकीकृत  सृष्टि के संविधान को जाग्रत करके उस धरातल को जीवंत किया जाता है जिस पर वे विकसित होती हैं। इसे महर्षि प्रभाव उत्पन्न करके सरलता से प्राप्त किया जाता है। प्रत्येक संस्कृति की सामूहिक चेतना में सतोगुण बढ़ाकर, प्रत्येक व्यक्ति की एवं पूरे राष्ट्र की चेतना को तेजवान बनाया जा सकता है। जब जीवन गठित हो, तब जीवन में विविधता प्रफुल्लित होती है। प्रत्येक संस्कृति, भाषा, धर्म, एवं जाति सहजरूप से इसकी पूर्णता में उदित होगी, एक अति सुंदर, अजेय वातावरण का निर्माण होगा, जो संगठित संस्कृति के प्रकाश से दीप्त होगा ।


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