सुभद्रा कुमारी चौहान : झांसी की रानी को नायकत्व तक पहुंचाया

By: Feb 18th, 2018 12:08 am

सुभद्रा कुमारी चौहान (जन्म : 16 अगस्त, 1904; मृत्यु : 15 फरवरी, 1948) हिंदी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। उनके दो कविता संग्रह तथा तीन कथा संग्रह प्रकाशित हुए, पर उनकी प्रसिद्धि ‘झांसी की रानी’ कविता के कारण है। सुभद्रा जी राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रहीं, किंतु उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएं सहने के पश्चात् अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। वातावरण चित्रण-प्रधान शैली की भाषा सरल तथा काव्यात्मक है, इस कारण उनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है :

चमक उठी सन् सत्तावन में

वह तलवार पुरानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुंह

हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मरदानी वह तो

झांसी वाली रानी थी।

वीर रस से ओत-प्रोत इन पंक्तियों की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान को ‘राष्ट्रीय वसंत की प्रथम कोकिला’ की संज्ञा दी गई थी। यह वह कविता है जो जन-जन का कंठहार बनी। कविता में भाषा का ऐसा ऋजु प्रवाह मिलता है कि वह बालकों-किशोरों को सहज ही कंठस्थ हो जाती है। कथनी-करनी की समानता सुभद्रा जी के व्यक्तित्व का प्रमुख अंग है। इनकी रचनाएं सुनकर मरणासन्न व्यक्ति भी ऊर्जा से भर सकता है। ऐसा नहीं कि कविता केवल सामान्य जन के लिए ग्राह्य है, यदि काव्य-रसिक उसमें काव्यत्व खोजना चाहें तो वह भी है :

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में।

लक्ष्मीबाई की वीरता का राजमहलों की समृद्धि में आना जैसा एक मणिकांचन योग था, कदाचित उसके लिए ‘वीरता और वैभव की सगाई’ से उपयुक्त प्रयोग दूसरा नहीं हो सकता था। स्वतंत्रता संग्राम के समय में जो अगणित कविताएं लिखी गईं, उनमें इस कविता और माखनलाल चतुर्वेदी की ‘पुष्प की अभिलाषा’ का अनुपम स्थान है। सुभद्रा जी का नाम मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन की यशस्वी परंपरा में आदर के साथ लिया जाता है। वह बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक यशस्वी और प्रसिद्ध कवयित्रियों में अग्रणी हैं।

जीवन परिचय

सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के पास निहालपुर गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम ठाकुर रामनाथ सिंह था। सुभद्रा कुमारी की काव्य प्रतिभा बचपन से ही सामने आ गई थी। उनका विद्यार्थी जीवन प्रयाग में ही बीता। क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। 1913 में नौ वर्ष की आयु में सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका ‘मर्यादा’ में प्रकाशित हुई थी। यह कविता ‘सुभद्राकुंवरि’ के नाम से छपी। यह कविता ‘नीम’ के पेड़ पर लिखी गई थी। सुभद्रा चंचल और कुशाग्र बुद्धि थीं। पढ़ाई में प्रथम आने पर उनको इनाम मिलता था। सुभद्रा अत्यंत शीघ्र कविता लिख डालती थीं, मानो उनको कोई प्रयास ही न करना पड़ता हो। स्कूल के काम की कविताएं तो वह साधारणतया घर से आते-जाते तांगे में लिख लेती थीं।

विवाह

1919 ईस्वी में उनका विवाह ठाकुर लक्ष्मण सिंह से हुआ। विवाह के पश्चात् वह जबलपुर में रहने लगीं। सुभद्रा कुमारी चौहान अपने नाटककार पति लक्ष्मण सिंह के साथ शादी के डेढ़ वर्ष के होते ही सत्याग्रह में शामिल हो गईं और उन्होंने जेलों में ही जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण वर्ष गुजारे। गृहस्थी और नन्हे-नन्हे बच्चों का जीवन संवारते हुए उन्होंने समाज और राजनीति की सेवा की। देश के लिए कर्त्तव्य और समाज की जिम्मेदारी संभालते हुए उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ की बलि चढ़ा दी :

न होने दूंगी अत्याचार, चलो मैं हो जाऊं बलिदान।

सुभद्रा जी ने बहुत पहले अपनी कविताओं में भारतीय संस्कृति के प्राणतत्त्वों, धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण और सांप्रदायिक सद्भाव का वातावरण बनाने के प्रयत्नों को रेखांकित कर दिया था :

मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद, काबा-काशी यह मेरी

पूजा-पाठ, ध्यान जप-तप है घट-घट वासी यह मेरी।

जबलपुर से माखनलाल चतुर्वेदी ‘कर्मवीर’ पत्र निकालते थे। उसमें लक्ष्मण सिंह को नौकरी मिल गई। सुभद्रा भी उनके साथ जबलपुर आ गईं। सुभद्रा जी सास के अनुशासन में रहकर सुघड़ गृहिणी बनकर संतुष्ट नहीं थीं। उनके भीतर जो तेज था, काम करने का उत्साह था, कुछ नया करने की जो लगन थी, उसके लिए घर की सीमा बहुत छोटी थी। सुभद्रा जी में लिखने की प्रतिभा थी और अब पति के रूप में उन्हें ऐसा व्यक्ति मिला था जिसने उनकी प्रतिभा को पनपने के लिए उचित वातावरण देने का प्रयत्न किया।

स्वतंत्रता में योगदान

1920 – 21 में सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे। उन्होंने नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया और घर-घर में कांग्रेस का संदेश पहुंचाया। त्याग और सादगी में सुभद्रा जी सफेद खादी की बिना किनारी धोती पहनती थीं। गहनों और कपड़ों का बहुत शौक होते हुए भी वह चूड़ी और बिंदी का प्रयोग नहीं करती थीं। उनको सादा वेशभूषा में देख कर बापू ने सुभद्रा जी से पूछ ही लिया, ‘बेन! तुम्हारा ब्याह हो गया है?’ सुभद्रा ने कहा, ‘हां!’ और फिर उत्साह से बताया कि मेरे पति भी मेरे साथ आए हैं। इसको सुनकर बा और बापू जहां आश्वस्त हुए, वहां कुछ नाराज भी हुए। बापू ने सुभद्रा को डांटा, ‘तुम्हारे माथे पर सिंदूर क्यों नहीं है और तुमने चूडि़यां क्यों नहीं पहनीं? जाओ, कल किनारे वाली साड़ी पहनकर आना।’ सुभद्रा जी के सहज स्नेही मन और निश्छल स्वभाव का जादू सभी पर चलता था। उनका जीवन प्रेम से युक्त था और निरंतर निर्मल प्यार बांटकर भी खाली नहीं होता था। 1922 का जबलपुर का ‘झंडा सत्याग्रह’ देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्रा जी देश की पहली महिला सत्याग्रही थीं। रोज-रोज सभाएं होती थीं और जिनमें सुभद्रा भी बोलती थीं। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के संवाददाता ने अपनी एक रिपोर्ट में उनका उल्लेख लोकल सरोजिनी कहकर किया था। सुभद्रा जी में बड़े सहज ढंग से गंभीरता और चंचलता का अद्भुत संयोग था। वह जिस सहजता से देश की पहली स्त्री सत्याग्रही बनकर जेल जा सकती थीं, उसी तरह अपने घर में, बाल-बच्चों में और गृहस्थी के छोटे-मोटे कामों में भी रमी रह सकती थीं।

देशभक्त कवि के रूप में

‘जलियांवाला बाग’ के नृशंस हत्याकांड से उनके मन पर गहरा आघात लगा। उन्होंने तीन आग्नेय कविताएं लिखीं। सन् 1920 में जब चारों ओर गांधी जी के नेतृत्व की धूम थी, तो उनके आह्वान पर दोनों पति-पत्नि स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के लिए कटिबद्ध हो गए। उनकी कविताई इसीलिए आजादी की आग से ज्वालामयी बन गई।

रचनाएं

उन्होंने लगभग 88 कविताओं और 46 कहानियों की रचना की। किसी कवि की कोई कविता इतनी अधिक लोकप्रिय हो जाती है कि शेष कविताएं प्रायः गौण होकर रह जाती हैं। बच्चन की ‘मधुशाला’ और सुभद्रा जी की इस कविता के समय यही हुआ। यदि केवल लोकप्रियता की दृष्टि से ही विस्तार करें तो उनकी कविता पुस्तक ‘मुकुल’ 1930 के छह संस्करण उनके जीवन काल में ही हो जाना कोई सामान्य बात नहीं है। इनका पहला काव्य-संग्रह ‘मुकुल’ 1930 में प्रकाशित हुआ। इनकी चुनी हुई कविताएँ %त्रिधारा% में प्रकाशित हुई हैं। %झाँसी की रानी% इनकी बहुचर्चित रचना है। राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और जेल यात्रा के बाद भी उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें बिखरे मोती (1932 ), उन्मादिनी (1934) व सीधे-सादे चित्र (1947) शामिल हैं।

देशप्रेम

‘वीरों का कैसा हो वसंत’ उनकी एक और प्रसिद्ध देश-प्रेम की कविता है, जिसकी शब्द-रचना, लय और भाव-गर्भिता अनोखी थी। स्वदेश के प्रति, विजयादशमी, विदाई, सेनानी का स्वागत, झांसी की रानी की सधि मापर, जलियां वाले बाग में बसंत आदि श्रेष्ठ कवित्व से भरी उनकी अन्य सशक्त कविताएं हैं।

राष्ट्रभाषा प्रेम

राष्ट्रभाषा के प्रति भी उनका गहरा सरोकार है, जिसकी सजग अभिव्यक्ति ‘मातृ मंदिर में’ नामक कविता में हुई है। यह उनकी राष्ट्रभाषा के उत्कर्ष के लिए चिंता है :

उस हिंदू जन की गरविनी

हिंदी प्यारी हिंदी का

प्यारे भारतवर्ष कृष्ण की

उस प्यारी कालिंदी का

है उसका ही समारोह यह

उसका ही उत्सव प्यारा

मैं आश्चर्य भरी आंखों से

देख रही हूं यह सारा

जिस प्रकार कंगाल बालिका

अपनी मां धनहीता को

टुकड़ों की मोहताज आज तक

दुखिनी की उस दीना को

प्रकृति प्रेम

प्रकृति से भी सुभद्रा कुमारी चौहान के कवि का गहन अनुराग रहा है। नीम, फूल के प्रति, मुरझाया फूल आदि में उन्होंने प्रकृति का चित्रण बड़े सहज भाव से किया है। इस प्रकार सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता का फलक अत्यंत व्यापक है, किंतु फिर भी……..खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी, उनकी अक्षय कीर्ति का ऐसा स्तंभ है जिस पर काल की बात अपना कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाएगी, यह कविता जन-जन का हृदयहार बनी ही रहेगी।

कहानी लेखन

सुभद्रा जी ने कहानी लिखना आरंभ किया क्योंकि उस समय संपादक कविताओं पर पारिश्रमिक नहीं देते थे। संपादक चाहते थे कि वह गद्य रचना करें और उसके लिए पारिश्रमिक भी देते थे। समाज की अनीतियों से जुड़ी जिस वेदना को वह अभिव्यक्त करना चाहती थीं, उसकी अभिव्यक्ति का एकमात्र माध्यम गद्य

ही हो सकता था। अतः सुभद्रा जी ने कहानियां लिखीं। उनकी कहानियों में देश-प्रेम के साथ-साथ समाज की विद्रूपता, अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्षरत नारी की पीड़ा और विद्रोह का स्वर देखने को मिलता है। एक ही वर्ष में उन्होंने एक कहानी संग्रह ‘बिखरे मोती’ बना डाला। इस संग्रह को छपवाने के लिए वह इलाहाबाद गईं। इस बार भी सेकसरिया पुरस्कार उन्हें ही मिला। उनकी अधिकांश कहानियां सत्य घटना पर आधारित हैं। देश-प्रेम के साथ-साथ उनमें गरीबों के लिए सच्ची सहानुभूति दिखती है।

दुखद निधन

14 फरवरी को उन्हें नागपुर में शिक्षा विभाग की मीटिंग में भाग लेने जाना था। डॉक्टर ने उन्हें रेल से न जाकर कार से जाने की सलाह दी। 15 फरवरी 1948 को दोपहर के समय वे जबलपुर के लिए वापस लौट रही थीं। उनका पुत्र कार चला रहा था। सुभद्रा ने देखा कि बीच सड़क पर तीन-चार मुर्गी के बच्चे आ गए थे। उन्होंने अचकचाकर पुत्र से मुर्गी के बच्चों को बचाने के लिए कहा। एकदम तेजी से काटने के कारण कार सड़क किनारे के पेड़ से टकरा गई। सुभद्रा जी ने ‘बेटा’ कहा और वह बेहोश हो गईं। अस्पताल के सिविल सर्जन ने उन्हें मृत घोषित किया। उनका चेहरा शांत और निर्विकार था, मानों गहरी नींद सो गई हों। 16 अगस्त 1904 को जन्मी सुभद्रा कुमारी चौहान का देहांत 15 फरवरी 1948 को 44 वर्ष की आयु में ही हो गया। एक संभावनापूर्ण जीवन का अंत हो गया। उनकी मृत्यु पर माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा कि सुभद्रा जी का आज चल बसना प्रकृति के पृष्ठ पर ऐसा लगता है मानो नर्मदा की धारा के बिना तट के पुण्य तीर्थों के सारे घाट अपना अर्थ और उपयोग खो बैठे हों। सुभद्रा जी का जाना ऐसा मालूम होता है मानो ‘झांसी वाली रानी’ की गायिका, झांसी की रानी से कहने गई हो कि लो, फिरंगी खदेड़ दिया गया और मातृभूमि आजाद हो गई। सुभद्रा जी का जाना ऐसा लगता है मानो अपने मातृत्व के दुग्ध, स्वर और आंसुओं से उन्होंने अपने नन्हे पुत्र को कठोर उत्तरदायित्व सौंपा हो। प्रभु करे, सुभद्रा जी को अपनी प्रेरणा से हमारे बीच अमर करके रखने का बल इस पीढ़ी में हो।

सम्मान और पुरस्कार

इन्हें मुकुल तथा बिखरे मोती पर अलग-अलग सेकसरिया पुरस्कार मिले। भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अप्रैल 2006 को सुभद्रा को सम्मानित करते हुए नवीन नियुक्त तटरक्षक जहाज को उनका नाम दिया। भारतीय डाक तार विभाग ने 6 अगस्त 1976 को सुभद्रा चौहान के सम्मान में 25 पैसे का एक डाक-टिकट जारी किया था। जबलपुर के निवासियों ने चंदा इकट्ठा करके नगरपालिका प्रांगण में सुभद्रा जी की आदमकद प्रतिमा लगवाई जिसका अनावरण 27 नवंबर 1949 को कवयित्री और उनकी बचपन की सहेली महादेवी वर्मा ने किया।

मणिकर्णिका का विरोध, तथ्यों के साथ छेड़छाड़

‘पद्मावत’ के बाद राजस्थान में ‘मणिकर्णिका’ फिल्म का विरोध शुरू हो गया है। विरोध में लोगों ने सड़कों पर उतरने की तैयारी कर ली है। इस बार राजपूत नहीं, ब्राह्मण महासभा ने सरकार को चेतावनी दी है। कंगना रणौत की फिल्म ‘मणिकर्णिका : द क्वीन ऑफ झांसी’ को लेकर राजस्थान में ‘पद्मावत’ जैसा ही बवाल सुलगता दिख रहा है। ब्राह्मण समाज ने फिल्म मणिकर्णिका में इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाया है। राजस्थान के बीकानेर में फिल्म की शूटिंग प्रस्तावित है। फिल्म में कंगना रणौत रानी लक्ष्मी बाई का रोल अदा कर रही हैं। ब्राह्मण महासभा ने राजस्थान सरकार को फिल्म की शूटिंग रुकवाने के लिए अल्टीमेटम दिया है। महासभा के अध्यक्ष पंडित सुरेश मिश्रा ने कहा कि ‘मणिकर्णिका’ की कहानी में रानी लक्ष्मीबाई को किसी अंग्रेज अफसर की प्रेमिका बताया गया है। महासभा ने कहा है कि फिल्म निर्माता यह साफ करें कि फिल्म के तथ्य किस किताब से लिए गए हैं। मिश्रा ने कहा, ‘हमारे सूत्रों ने बताया है कि निर्माता रानी लक्ष्मीबाई और एक अंग्रेज के बीच में लव सॉंग शूट कर रहे हैं। हमें शक है कि फिल्म जयश्री मिश्रा की विवादित किताब ‘रानी’ पर आधारित है। हमने निर्माता कमल जैन को चिट्ठी लिखकर लेखकों के बारे में सूचना साझा करने की मांग की थी। हम उन इतिहासकारों के बारे में भी जानना चाहते हैं जिनसे फिल्मकारों ने संपर्क किया है। इस फिल्म का विरोध भी ‘पद्मावत’ की तरह न हो जाए, इसके लिए सरकार को कोई कदम उठाना होगा।’ फिल्म की शूटिंग राजस्थान के झूंझुनु में हो रही है। इसके पहले निर्माता कुछ सीन जयपुर के आमेर किले और जोधपुर के मेहरानगढ़ में शूट कर चुके हैं।


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