हिमाचली लेखक समाज अपने स्तर के मुगालते में है

By: Feb 11th, 2018 12:10 am

जीने को दर्द संभालने होंगे

‘अतीत कभी पीछा नहीं छोड़ता। उसकी स्मृतियां जहन में यूं रच-बस गई हैं जैसे शिलालेखों पर सदियों से आकृतियां या लिपियां अपना वजूद बनाए रखती हैं। क्या खोया, क्या पाया, इसका आकलन करना हो तो खोया का तराजू झुक जाता है। आज जब जिंदगी के 65वें बसंत में दाखिल हो चुका हूं तो लगता है संघर्ष कांटों की तरह दामन से चस्पां है और बार-बार अंतर्मन को लहूलुहान करता रहता है। हम बार-बार ‘एक्सपोजर’ की बात करते हैं तो लगता है हम ‘ओवरएक्सपोजर’ की दुनिया में जी रहे हैं जहां तकनीक ने ‘प्राइवेसी’ को नष्ट कर दिया है। मगर मुझे लगता है कि अगर मैं अपने गांव से बाहर की दुनिया से रू-ब-रू न होता, तो शायद लेखक न बन पाता।’ यह कहना है विख्यात साहित्यकार राजेंद्र राजन का। 15 अगस्त 1953 को हमीरपुर में जन्मे राजेंद्र राजन 1975 में बीए की डिग्री हासिल करने के बाद  अमृतसर चले गए। यहां उनके पिता जी की यूनिट की आखिरी तैनाती थी। उसके बाद 1977 में वह रिटायर हो गए। उस वक्त लेखक को लगा कि महज ग्रेजुएशन पास कर कोई बड़ा तीर मार लिया है। परंतु जल्दी ही उनका मोहभंग हो गया। करीब एक साल तक बेरोजगार रहने के बाद उन्हें अमृतसर में एक सेनिटरी की दुकान में 125 रुपए महीने की पगार पर सेल्समैन की नौकरी मिली। मगर एक महीने में ही मन उखड़ गया और फिर कभी अमृतसर की बदबूदार सब्जी मंडी की एक आढ़ती की दुकान पर बाबूगिरी की तो फिर कभी कपड़ा मिलों से लेकर दुकानों में धक्के खाने के बाद वह पहले अंबाला और फिर चंडीगढ़ चले गए। 1978 में उनका विवाह हुआ। 1976 से 1985 तक नौ सालों में उन्होंने 15 नौकरियां बदलीं। इस बीच पत्रकारिता और पढ़ाई का जुनून बना रहा। 1985 में हिमाचल सरकार में डीपीआरओ के पद पर उन्हें चुन लिया गया। 1985 तक आते-आते हिंदी में एमए और पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद उनके पास जनसत्ता, दैनिक ट्रिब्यून आदि अखबारों व पत्रिकाओं में छपने वाली न्यूज स्टोरीज और आलेखों की कतरनों की 2-3 एलबमें तैयार हो चुकी थीं। एक बेहतर नौकरी की तलाश में वह हर पिछली नौकरी को ठोकर मारते चले गए। उन्हें लगता था कि अगर मैं ‘रिस्क’ नहीं लूंगा तो मेरा शोषण होता रहेगा। 1985 में जब शिमला में लोक सेवा आयोग में उनका साक्षात्कार हो रहा था तो आयोग के चेयरमैन ने उनका बायोडाटा और अखबारों की कतरनों की मोटी-मोटी फाइलें देखकर उनसे प्रश्न किया था ‘मिस्टर राजन। आपने 10 सालों में 15 नौकरियां बदल डालीं। अगर आपको जिला लोक संपर्क अधिकारी चुन लिया जाता है तो हम यह कैसे यकीन करेंगे कि आप इसे नहीं छोड़ेंगे?’ इस पर राजन ने कहा था कि अगर मुझे चुन लिया जाता है तो यह उनके जीवन की अंतिम नौकरी होगी। …और यही हुआ भी। 26 साल तक 15-16 तबादलों के बाद जब 2011 में वह सेवानिवृत्त हुए तो एक विशाल अनुभव जगत उनके पास था। कुछ किताबों की रचना उनके सीवी में जुड़ गई थीं। बतौर लेखक उन्होंने देशभर में अपने लिए कुछ पहचान बना ली थी और उनकी पत्रिका ‘इरावती’ अनेक झंझावातों के बीच नाव की तरह डोलती खरामा-खरामा आगे बढ़ रही थी। वर्ष 2009 में पुणे से ‘फिल्म एपरीसिएशन कोर्स’ करने के बाद फिल्मों के प्रति अनुराग बढ़ा तो ‘पौंग डैम विस्थापितों’ और ‘खातरियों’ पर दो फिल्में बना डालीं। उन्होंने फिल्मों पर लिखना शुरू किया। धर्मशाला में रहते हुए अनाथ व एचआईवी पीडि़त बच्चों से दर्द का रिश्ता कायम हुआ तो मुस्कान ट्रस्ट का गठन हुआ। एक ही जिंदगी में विविध शौक पालने की वजह यह रही कि जब उनका एक माध्यम से मोहभंग हो जाता तो वह सृजन की किसी दूसरी विधा में स्वयं को ‘एक्सप्रेस’ करने या ‘डिस्कवर’ करने का प्रयास करते। अब लेखक अपने गांव के पुश्तैनी घर में लेखकों व कलाकारों के लिए ‘राइटर्स कुटीर’ की कल्पना को साकार करने में जुटे हैं। लेकिन कभी-कभी उन्हें लगता है कि जैसे हर रिश्ते, सृजन की हर विधा या जीने की उमंग से मोहभंग हो रहा है। जब व्यक्ति बहुत कुछ पाने की लालसा के संघर्ष में पूरी जिंदगी गुजार देता है तो अंत में उसे यह भी महसूस होने लगता है कि इस पाने की दौड़ में वह कितना कुछ गंवा चुका होता है। यानी सपने, राग-विराग, मासूमियत, खिलंदड़पन और जीवन से जुड़े वे हर छोटे-बड़े किस्से-कहानियां, जो उसे जीने की ऊर्जा प्रदान करते रहे हैं। ‘मासूम’ फिल्म में गुलजार के एक गीत की पंक्तियां अकसर उन्हें झकझोरती रहती हैं – ‘जीने के लिए सोचा ही नहीं, दर्द संभालने होंगे, मुस्कुराओ तो मुस्कुराने के कर्ज उतारने होंगे, ओ तुझसे नाराज नहीं जिंदगी, हैरान हूं मैं यह सोचकर’।

किताब  के संदर्भ  में लेखक

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने राजेंद्र राजन के कहानी संग्रह ‘फूलों को पता है’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

दिहि : आपके लिए साहित्य का प्रवेश द्वार क्या है। साहित्य से आपकी पहली मुलाकात कब और किस रूप में हुई?

राजन : साहित्य के लिए मेरा प्रवेश द्वार चंडीगढ़ के सेक्टर 11 का वह कालेज रहा जहां 1972 से 1975 के मध्य सृजन के शुरुआती फूल खिले। कालेज की पत्रिका ‘विकास’ में अभिव्यक्ति मिली जहां मेरी कच्ची-पक्की तीन कहानियां ‘नंदू,’ ‘संघर्ष,’ ‘कलैंडर’ छपीं और पुरस्कृत हुईं।

दिहि : ताकि कहानी जिंदा रहे या कहानी खुद को जिंदा रखे, इसमें साहित्यकार की सीमा, शर्तें या सृजन की पलकों पर सवार होने की कवायद आखिर है क्या?

राजन : हर बड़ी कहानी सीमा, शर्तों या पलकों पर सवार होकर जिंदा नहीं रहती। कभी भी शर्तों को आधार बनाकर रचना नहीं होती। उसका मर्म, संवेदना, कथ्य और देश-काल की सीमा का अतिक्रमण कर अनंत काल हो जाना ही रचना को महान बनाता है। प्रेमचंद की ‘कफन’ हो या ‘पूस की रात’, मोहन राकेश की ‘मिस पॉल’ हो या ‘मलबे का मालिक’ या फिर भीषम साहनी की ‘चीफ की दावत’ या मंटो की ‘टोबा टेक सिंह’ अथवा चेखव की ‘द ग्रीफ।’ ये सभी कहानियां एक व्यक्ति की पीड़ा को व्यक्त न करते हुए दुनिया के करोड़ों-अरबों लोगों के बेइंतहा दुःख का प्रतिनिधित्व करती हैं।

दिहि : आप संवाद से जूझते मसलों के कितना भीतर रचना का प्रसार देखते हैं या यह भी कि रचना के मार्फत संवाद प्रक्रिया कितना मुकम्मल हो सकती है?

राजन : रचना में संवाद दो स्तर पर होता है। एक लेखक स्वयं अपने भीतर लगातार ‘मोनोलॉग’ या एकालाप से जूझता रहता है। यानी पहले रचना का कच्चा स्वरूप उसके अंतर्मन में घटित होता है और वह रचना के पात्रों से स्वयं संवाद से जूझता है। लेकिन यह संवाद रचना प्रक्रिया के दौरान जब पात्रों के माध्यम से सामने आता है तो वह रचना के मूल कथ्य को समृद्ध करती है।

दिहि : लेखन पर अध्ययन के प्रभाव के बीच आपकी मौलिकता के स्रोत?

राजन : अध्ययन केवल लेखक की ‘सेंसीबिलिटी’ को समृद्ध करता है। गलत और सही में फर्क करने की तमीज सिखाता है। लेकिन रचना के मौलिक  स्रोतों की तलाश लेखक को निजी अनुभवों के आधार पर ही करनी होती है। अनुभवों में कभी समानता नहीं होती क्योंकि अगर ऐसा होता तो सभी रचनाएं एक जैसी, एकरसता से भरपूर और बोरियत पैदा करने वाली होतीं। क्रिएटिव राइटिंग में अध्ययन का प्रभाव मौलिकता के स्रोतों को कभी प्रभावित नहीं कर सकता।

दिहि : अद्यतन लेखन की इस खासियत को कैसे देखते हैं, जहां सोशल मीडिया के गालों का हिसाब करना भी अब अभिव्यक्ति का सार हो चला है?

राजन : सोशल मीडिया को मैं अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में देखता हूं जहां हर कोई अपनी मनोभावनाओं को तुरत-फुरत ‘उंड़ेलने’ के लिए व्यग्र है। लेकिन यह एक मायावी दुनिया है जहां फेयर सेक्स के प्रति बला का आकर्षण बरकरार है। दोयम दर्जे की कविताएं अगर किसी खूबसूरत लड़की की कलम से निकली हों तो उस पर मिलने वाले सैकड़ों या हजारों लाइक्स और कमेंट्स इस बात को दर्शाते हैं कि सोशल मीडिया पर न तो गंभीर लेखन के लिए कोई स्थान है और न ही यहां देशहित या जनहित के मुद्दों पर बहस हो रही है। उल्टा हो यह रहा है कि लेखन के नाम पर ऐसे तथाकथित लेखकों की फौज तैयार हो रही है जो मुख्यधारा के स्तरीय लेखन का बेजा नुकसान कर रही है।

दिहि : प्रेम के गाल पर चस्पां सवाल और सामने कवि-साहित्यकार का हृदय जो चाहकार भी नहीं बता पाता, वह आपके लिए क्या है?

राजन : लेखक प्रेम को साझा नहीं कर पाता, यह अवधारणा सही नहीं है। क्रिएटिविटी की ज्यादातर विधाएं प्रेम की बुनियाद पर टिकी हैं और प्रेम से ही ऊर्जा ग्रहण करती हैं। विश्व के सभी महान लेखकों ने अपनी जिंदगी में घटित प्यार के किस्सों को ही तो अपनी रचनाशीलता की विषयवस्तु बनाया है। प्रेम से बड़ा स्रोत सृजन के लिए कोई दूसरा नहीं हो सकता। संवेदनाविहीन व्यक्ति कभी लेखक नहीं हो सकता। अमृता प्रीतम, साहिर लुधियानवी, राजकपूर, नरगिस से लेकर चेखव, लीडिया एडिलोव के किस्सों से भरा पड़ा है तमाम साहित्य। इतिहास साक्षी है कि लेखकों ने कमोबेश कभी भी अपने प्रेम प्रसंगों को छिपाया नहीं बल्कि उन्हें सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है।

दिहि : आपकी रचनाओं की यात्रा में सुनहरे लक्ष्य की कल्पना, शब्दों की बरसात में डूबना या व्यथा की अर्थी का कंधा बन जाना, कब आपके विचारों के लोक व अलोक बदल देता है?

राजन : मैंने कोई रचना पहले से सोचकर या कोई लक्ष्य निर्धारित करके नहीं लिखी, न ही मुझ पर शब्दों की बरसात में डूबने जैसा एहसास हुआ। यह सही है कि लेखन के लिए आपके भीतर बरसात जैसा सुखद एहसास जगना चाहिए। लेखन एक सहज, स्फूर्त प्रक्रिया है। मेरे लिए लेखन नदी के प्रवाह की तरह है जो कंकर, पत्थर व शिलाओं से भिड़ते हुए अपनी राह बनाता जाता है।

दिहि : आपका लेखकीय क्रश, मूल्यों और नैतिकता को किस हद तक निराधार साबित कर पाया या जो पर्दे सामाजिक अवगुंठन के प्रतीक हैं, उन्हें हटाने का उल्लंघन ही आपकी साहित्यिक मर्यादा का बोध रहा?

राजन : लेखन का उद्देश्य मूल्यों को साधना नहीं, बल्कि जब मूल्य सदियों तक आडंबरों, अंधविश्वासों और रूढि़यों से लिपटे रहते हैं तो लेखक का यह कर्त्तव्य है कि अपनी रचनाओं के माध्यम से वह उन्हें ध्वस्त करता चला जाए। ‘पूर्वाग्रहों’ और ‘मैंटलब्लॉक का टूटना’ जरूरी है ताकि सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की नई परिभाषा रची जाए और वह समय-सापेक्ष हो।

दिहि : मीडिया की व्यावसायिक रगड़ या आसपास के विवादों में सरकारी पद की गरिमा को अब आपका लेखक मन किसी कोने में छोड़ देता है या अतीत अब मुखर होकर कहानी बनने की कोशिश करता है?

राजन : तथाकथित सरकारी आभामंडल ने न तो मेरे लेखन को प्रभावित किया, न ही कभी अवरुद्ध। मीडिया की व्यावसायिकता का प्रश्न ही नहीं उठता। क्रिएटिव राइटिंग पर मीडिया का प्रभाव तो अवश्य देखा जा रहा है, लेकिन यह दोनों अलग विषय हैं। लेखकीय स्वतंत्रता के बिना कोई भी लेखक अपने सृजन के प्रति ईमानदार नहीं हो सकता। प्रेमचंद को जब जोधपुर के राजा ने न्योता दिया था कि वे उनके महल में आकर 400 रुपए महीना पगार पर लेखन कार्य कर सकते हैं तो उन्होंने उस प्रस्ताव को यह कह कर ठुकरा दिया था कि वे अपने रचनाकर्म को गिरवी नहीं रख सकते।

दिहि : खुद संपादक बनने से साहित्य का प्रकाशन कितना सरल हो गया या अब लेखकीय सारांश से निराशा होती है कि छपास से ग्रस्त साहित्यकारों के बीच कहीं मनोविकार है?

राजन : किसी पत्रिका के संपादक होने से लेखक का अन्य पत्र-पत्रिकाओं में छपना सरल हो जाता है, यह अवधारणा कतई निर्मूल है। छपास और गुणवत्ता दो जुदा चीजें हैं। पाठक जब किसी रचना से गुजर रहा होता है तो उसके जहन में पहले से यह भाव नहीं पैदा होता कि यह रचना फलां संपादक की रची हुई है या किसी बड़े पद पर विराजमान लेखक की कलम से पाठक तक पहुंची है। लेखक की पहचान उसकी रचना के मयार से होती है न कि रुतबे या संपादन कार्य से। मैं उन कहानियों या उपन्यासों को महान मानता हूं जिनके प्रति पाठक की ललक और बेचैनी बनी रहती है और ऐसी कहानियों और उपन्यासों को खोजकर उन्हें प्राप्त करने का जुनून रहता है।

दिहि : युग को कहानी मानकर, साहित्यकार का योगदान बढ़ जाता है या प्रश्नों के कांटों पर चलने से ही कहानी की वजह मिलती है?

राजन : अपने आसपास के माहौल, घर और बाहर के द्वंद्व, व्यवस्था, राजनीति, टूटते, बिखरते संबंध दर्जनों और दूसरे बेहिसाब मुद्दे और विषय हैं जो जीवन में विसंगतियां और विरोधाभास पैदा करते हैं। अनुभव की आंच में तप कर ही प्रसव वेदना के समान एक अच्छी रचना का जन्म होता है।

दिहि : क्या कभी अपने लेखन की पूर्णतः में खुद को अधूरा पाते हैं या जिज्ञासा के भीतर गौण परिभाषा से संघर्ष को पूरा करते हुए स्वतत्त्व के साक्षी हो जाते हैं?

राजन : सृजन में पूर्णता या ‘परफेक्शन’ का कंसेप्ट बेमानी है। यह तो ऐसी प्यास है जो बराबर बनी रहनी चाहिए। बेहतर की खोज, पल-पल कुछ नया करने का जज्बा, व्यग्रता, पागलपन, दीवानगी, उत्तेजना हमेशा बनी रहनी चाहिए। लेखक को कभी भी अपने लिखे से संतुष्ट नहीं होना चाहिए क्योंकि यह एक अंतहीन यात्रा है।

दिहि : अमूमन हिमाचली लेखन की सरकारी पौधशाला बड़ी रही है, तो इस सृजन की मिलकीयत में जब आप हीरे खोजते हैं?

राजन : हिमाचल में शायद पुनः गुलेरी सरीखे नए अवतार की प्रतीक्षा है जो ‘यथास्थिति’ को झकझोर दे। सरकारी पौधशाला का पनपना निराशाजनक है। बड़े सरकारी पदों पर सुशोभित रहते हुए बेहिसाब लेखकों की नर्सरी कुकुरमुत्तों की तरह फैल रही है जो अपने प्रभाव के बल पर सरकारी पत्रिकाओं और साहित्यिक सम्मेलनों में दिखाई देते हैं और दोयम दर्जे की कूड़ा किताबों को थोक खरीद योजनाओं में खपाने का प्रयास करते रहते हैं। निश्चित रूप से यह बेहद कष्टप्रद स्थिति है। इसलिए जिम्मेदार पदों पर बैठे अधिकारियों का यह कर्त्तव्य है कि वे ‘जेनुअन’ लेखकों की पहचान करें और उनकी रचनाशीलता को बढ़ावा दें। मैं हिंदी साहित्य में ऐसे निरंकुश माहौल व बीमार पौधशाला को एक दीमक की तरह मानता हूं जो घुन की तरह ईमानदार लेखन को कुतरने और उसे समाप्त करने पर आमादा है। हिमाचली लेखन जैसे ‘लेबल’ भ्रामक हैं। लेखन को किसी प्रांत की हदों में बांधकर नहीं देखा जा सकता क्योंकि यह एक सर्वव्यापी कर्म है। मगर हमारे प्रांत की त्रासदी यह है कि यहां का लेखक समाज अपने स्तर को लेकर ‘मुगालते’ में जी रहा है। उसका सर्वश्रेष्ठ आना अभी शेष है। वह कब पाठकों तक पहुंचेगा, कहना मुश्किल है। जिस प्रकार मीडिया चुनौतियों और संकट से गुजर रहा है, हिंदी साहित्य के लिए भी यह संक्रमणकाल की तरह है, लेकिन अंत में पाठक ही सर्वोपरि है क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद पूर्वाग्रहों से ग्रसित आलोचक किसी भी कमजोर लेखक की रचना को महान नहीं बना सकता। अंततः पाठक ही रचना को गुणवत्ता की कसौटी पर कसने वाला पहला व अंतिम नियंता होगा।  -सुरेंद्र ठाकुर

पुरस्कार : हिमाचल सरकार से साहित्य के लिए सर्वोच्च राज्य पुरस्कार, पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी सम्मान, ‘हिमाचल केसरी’ धर्मशाला द्वारा सम्मानित, पंजाब कला साहित्य अकादमी सम्मान व कई अन्य पुरस्कार

पुस्तकें   :  1. टापू- कहानी संग्रह-1990

  1. हिमाचल की प्रतिनिधि कहानियां -1993
  2. बंद दरवाजे – कहानी संग्रह-2001
  3. फालतू के लोग-कहानी संग्रह -2007
  4. बारह साक्षात्कार-2011
  5. पंद्रह बीश के जंगलों से-यात्रा संस्मरण-2012
  6. सेलिब्रेशन-लघु उपन्यास-2013
  7. फूलों को पता है-कहानी संग्रह-2016
  8. मौन से संवाद-लघु उपन्यास-2018

 

 


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