हिमाचल में बाल साहित्य की भूमि और ऊर्जा

By: Feb 18th, 2018 12:05 am

छोटे बच्चों को ध्यान में रखकर रचे गए साहित्य को ‘बाल साहित्य’ का दर्जा दिया जाता है। अच्छा बाल साहित्य बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में अपनी अहम भूमिका अदा करता है। यह जहां बच्चों का मनोरंजन करता है, वहीं उन्हें शिक्षा, संस्कार और मानव मूल्यों का ज्ञान भी कराता है। हिमाचल प्रदेश की बात करें तो हिमाचल में बाल साहित्य उस दौर से रचा जा रहा है जब किसी अन्य प्रदेश में इसे रचा जाने लगा था। यह कहना गलत न होगा कि पंडित संतराम वत्स्य और डॉ. मस्त राम कपूर ऐसे बाल साहित्यकार हुए जिन्होंने हिमाचल में बाल साहित्य की नींव रखी। पंडित संतराम वत्स्य ने जहां पशु-पक्षी, परी कथाओं, लोक कथाओं, नीति कथाओं, धर्म कथाओं तथा पौराणिक कथाओं को अपने बाल लेखन का हिस्सा बनाया, वहीं डॉ. मस्त राम कपूर ने बाल कहानी, बाल उपन्यास, बाल नाटक तथा बाल कविताओं के माध्यम से बालमन को पकड़ने का प्रयास किया। यह सिलसिला यहां रुका नहीं, बल्कि आगे बढ़ता रहा। इस कड़ी में और नाम भी जुड़ते चले गए जिनमें राम प्रसाद शर्मा ‘प्रसाद’, महर्षि गिरिधर योगेश्वर, डॉ. राम मूर्ति वासुदेव ‘प्रशांत’, डॉ. गौतम शर्मा ‘व्यथित’, डॉ. प्रत्यूष गुलेरी, डॉ. सुशील कुमार ‘फुल्ल’, सुदर्शन डोगरा, सैन्नी अशेष, डॉ. पीयूष गुलेरी, कृष्णा अवस्थी, संसार चंद प्रभाकर, शशिकांत शास्त्री, संतोष शैलजा, किशोरी लाल वैद्य, हेमकांत कात्यायन, डॉ. मनोहर लाल, किशोरी लाल वैद्य, रतन चंद रत्नेश, प्रेम सागर कालिया, मोती लाल घई, प्रेमलता वात्स्यायन, हरिकृष्ण मुरारी, यशवीर धर्माणी, आशु जेठी, आशा शैली आदि साहित्यकारों के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। इन बाल साहित्यकारों ने अपनी लेखनी से बाल साहित्य में नए आयाम जोड़े और बाल साहित्य को समृद्ध किया है। इन साहित्यकारों ने मुख्यतः बाल कविता, बाल गीत, बाल कहानी आदि पर अपनी खूब कलम चलाई।

इस दौरान कुछ बाल एकांकी, बाल उपन्यास तथा बाल पहेलियों की रचना भी हुई। उपन्यास में सुशील कुमार फुल्ल, संतोष शैलजा जी का नाम शामिल किया जा सकता है। वहीं बाल एकांकी में रामप्रसाद शर्मा ‘प्रसाद’ का नाम शामिल किया जा सकता है। बाल एकांकी पर कार्य पंडित संतराम वत्स्य, सुशील कुमार ‘फुल्ल’, शशिकांत शास्त्री, त्रिलोक मेहरा आदि ने भी किया है। लेकिन यह बहुत ज्यादा नहीं था। कुछ ऐसे भी साहित्यकार हमारे बीच में हैं जिन्होंने बाल एकांकियों को रचकर उन्हें छोटे-छोटे बच्चों से अभिनीत भी करवाया है। इनमें एक नाम कृष्ण चंद्र महादेविया का भी उभरता है। हिमाचली बाल साहित्य में सैन्नी अशेष जी ने जिस गति और मात्रा में बाल कहानियों को रचा और हिमाचल के बाल साहित्य की बात हिमाचल के बाहर तक पहुंचाई, वह उल्लेखनीय है। उन्होंने 2500 से ज्यादा बाल कहानियों को रचा। बेशक, कुछ वर्षों तक बाल साहित्य लेखन रुका भी रहा जब सारे साहित्यकार प्रौढ़ लेखन की ओर मुड़ गए। लेकिन इस खाई को अपनी कविता, कहानी से पाटने का प्रयास हमारे कुछ लेखक करते भी रहे। इनमें प्रत्यूष गुलेरी, आशा शैली का नाम लिया जा सकता है।

यह बहुत ही सुखद बात है कि पिछले कुछ वर्षों में हिमाचल के बहुत से लेखक बाल साहित्य की तरफ  मुड़े हैं। इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाशीलता से बहुत ही उत्तम और रुचिकर बाल रचनाओं को पाठकों के समक्ष रखा है। इनमें डा. नलिनी विभा ‘नाजली’, कृष्ण चंद्र महादेविया, पवन चौहान, अशोक सरीन, अनंत आलोक, हरदेव सिंह धीमान, अदिति गुलेरी, राजीव त्रिगर्ती, प्रदीप गुप्ता आदि नाम शामिल किए जा सकते हैं। लेखिका आशा शैली का बाल उपन्यास ‘कोलकाता से अंडेमान तक’ प्रकाशित हो चुका है। इसके अलावा हिमाचल से वर्तमान में रत्न चंद रत्नेश, कृष्ण चंद्र महादेविया, पवन चौहान, डा. नलिनी विभा ‘नाजली’, अशोक सरीन, अनंत आलोक, हरदेव सिंह धीमान, अदिति गुलेरी, राजीव त्रिगर्ती, प्रदीप गुप्ता आदि लेखक भी बाल साहित्य के सृजन में लगे हैं। अदिति गुलेरी ने तो अपनी पीएचडी के लिए बाल साहित्य को ही चुना। उनका विषय था ‘हिमाचल में बाल साहित्य सर्वेक्षण एवं विश्लेषण’। यह हिमाचल के बाल साहित्य पर किया गया पहला शोध कार्य है। इन सब बातों को सामने रखकर हम कह सकते हैं कि हिमाचल में बाल साहित्य पहले भी रचा जाता रहा है और आज भी इसकी रचनाशीलता अपनी प्रगति पर है। इन साहित्यकारों को मीडिया में वह स्थान नहीं मिला जिसके वह हकदार थे। इस वजह से हिमाचल के साहित्य पर किसी ने गौर नहीं फरमाया। यह हिमाचल के बाल साहित्य के लिए सबसे दुखद पहलू रहा। आज बाल साहित्य की ओर लेखकों का काफी रुझान बढ़ रहा है। बहुत सारे विश्वविद्यालयों से विद्यार्थी बाल साहित्य को अपने शोध कार्य में शामिल कर रहे हैं।

स्कूल व कॉलेज के विद्यार्थी बाल साहित्य को अपने लेखन का एक जरूरी हिस्सा बना रहे हैं। यह बात तो बिल्कुल ही तय है कि जब बच्चा कुछ लिखने ही कोशिश करता है तो वे रचनाएं बालमन के अनुभव का सार होती हैं और बाल साहित्य का ही एक हिस्सा होती हैं। ऐसे बच्चे जिनकी कलम अभी कुछ लिखने का साहस कर रही हैं, उनके लिए बाल साहित्य की पत्रिकाएं बहुत मददगार होती हैं। बहुत सारी सरकारी, गैर-सरकारी प्रौढ़ साहित्य की पत्रिकाओं ने बाल साहित्य के लिए कुछ पन्ने दिए हैं। यह बाल साहित्य के लिए बहुत ही सुखद बात है। यह बताना उचित होगा कि हिमाचल के पत्र-पत्रिकाएं भी बाल साहित्य को लेकर सजग हो गए हैं। सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के साप्ताहिक पत्र ‘गिरिराज’ और पत्रिका ‘हिमप्रस्थ’ ने हमेशा से ही बाल साहित्य को अपने पृष्ठों पर सजाया है। बाल साहित्य के प्रति लेखकों और पाठकों के बढ़ते रुझान को देखते हुए वर्ष 2016 में ‘हिमप्रस्थ’ पत्रिका ने तो 144 पृष्ठों का अपना पहला बाल विशेषांक भी प्रकाशित किया था जिसे देशभर से साहित्यकारों और पाठकों की खूब वाहवाही मिली। हिमाचल कला, संस्कृति व भाषा अकादमी की पत्रिका ‘सोमसी’ ने भी अपने पुराने स्वरूप में परिवर्तन जब किया तो बाल साहित्य के लिए भी पन्ने रखे। यही नहीं, हिमाचल अकादमी पिछले दिनों हुए अपने निर्णय के चलते एक बाल पत्रिका की शुरुआत भी करने जा रही है। यह निर्णय अवश्य ही बाल साहित्यकारों को नई ऊर्जा से भर देगा। बेशक, बाल साहित्य आज खूब लिखा जा रहा है, लेकिन वह बच्चों तक सही तरीके से नहीं पहुंच पा रहा है।

यह सबसे बड़ी चिंता का विषय है। बच्चों तक बाल साहित्य को पहुंचाने के लिए हमें और ज्यादा प्रयास करने की आवश्यकता है। इसके लिए शिक्षक भी यदि सहयोग दें तो कार्य आसान हो जाएगा। शिक्षक स्कूलों के लिए दी जाने वाली विभिन्न ग्रांटों के जरिए भी इस कार्य में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित कर सकते हैं। ग्रांट के कुछ हिस्से से दूर पार, कठिन व दुर्गम इलाके के स्कूलों के बच्चों के लिए बाल साहित्य की विभिन्न पत्रिकाओं को लगाकर उन्हें इनका पाठक बनाया जा सकता है। देशभर में बहुत सारे ऐसे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जो बच्चों में बाल साहित्य को पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। लेकिन यह सरकारी स्तर पर कम ही दिखाई देते हैं। इन कार्यशालाओं में छोटे बच्चों को कविता, कहानी, चित्रकला आदि का जहां ज्ञान दिया जा रहा है, वहीं उन्हें पढ़ने के लिए भी प्रेरित किया जाता है। इसके साथ ही ‘दीवार पत्रिका’ का चलन बढ़ रहा है जिसके अंतर्गत विद्यालय में पढ़ रहे बच्चे अपनी लिखी गई रचना या चित्र आदि को बड़े-बड़े चार्टों में चिपकाकर, उसे सही तरीके से सजाकर दीवार पर टांग देते हैं। इन्हें पूरे विद्यालय के बच्चे आते-जाते रोज पढ़ते हैं। इस वजह से अन्य बच्चों में जहां लिखने व पढ़ने की एक आदत विकसित होती है, वहीं उनमें बाल साहित्य के प्रति रुचि भी जागृत होती है। यह कहना गलत न होगा कि हिमाचल में बाल साहित्य की भूमि बहुत उर्वरा है। बस सोचना यह है कि लेखन की इस ऊर्जा को बाल साहित्य की ओर कैसे मोड़ा जाए?

-पवन चौहान

गांव व डाकघर महादेव, तहसील सुंदरनगर, जिला मंडी


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