अक्खर-अक्खर जुगनू को मनकों की तरह पिरोया
देस संगीत प्रकाशन के मार्फत वरिष्ठ साहित्कार रेखा ढडवाल का पहाड़ी काव्य संग्रह ‘अक्खर-अक्खर जुगनू’ समीक्षार्थ प्राप्त हुआ। लेखिका ने इस संग्रह को माला के मनकों की तरह पूरे 108 पन्नों में पिरोया है। इस संग्रह में पहली कविता ‘लिखणा मेरे ताईं’ से ही पता चल जाता है कि हांडी के सारे चावल पके हैं। ‘अक्खर-अक्खर जुगनू कठेरना कनैं सूरजे दी बराबरी करने हौंसला पाई लैणा’ में प्रतीत होता है कि संघर्ष की इबारत लिख रहीं लेखिका वास्तव में ही चिडि़यों से बाज लड़ा देने का माद्दा रखती हैं। हौसले की बात है वरना लेखन पहाड़ी में हो तो कइयों के सिर झुक जाते हैं। इसी में अक्खर और अपने सुपने भी संघर्ष और सादगी के रास्ते अपनी कहानी कहते हैं। औरत के जरिए लेखिका चाहतीं तो उसे चंडी या भवानी के रूप में भी प्रकट कर सकती थीं। फिर भी पाठक एक परिवेश तक जरूर पहुंच जाता है। पहाड़ी परिवेश की नई-पुरानी सदी की तस्वीर खींचता यह काव्य संग्रह पीढ़ी दर पीढ़ी सहेज कर रखने वाली पोथी की तरह है। चंद्ररेखा ढडवाल जी को इस भगीरथी प्रयास के लिए साधुवाद। हालांकि कई रचनाएं बहुत बार पंजाबी और हिंदी से प्रभावित प्रतीत होती हैं। आलणा ओर हेठां की जगह अलुहा और हेठ शब्द उपलब्ध हैं। खैर धाराप्रवाह लेखन में संदेशवाहक बनते शब्द कभी-कभी जरूर शोभायमान लगते हैं। काव्य संग्रह को एक संदर्भ पुस्तक के रूप में सहेजने की भी गुजारिश की जाती है।
-ओंकार सिंह
पुस्तक समीक्षा
* पुस्तक का नाम : अक्खर-अक्खर जुगनू
* लेखिका का नाम : चंद्ररेखा ढडवाल
* मूल्य : 160 रुपए
* प्रकाशक : देस संगीत प्रकाशन, धर्मशाला
Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also, Download our Android App