अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’: खड़ी बोली में कविता की रचना

By: Mar 18th, 2018 12:10 am

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (जन्म-15 अप्रैल, 1865, मृत्यु-16 मार्च, 1947) का नाम खड़ी बोली को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले कवियों में बहुत आदर से लिया जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में 1890 ई. के आस-पास अयोध्या सिंह उपाध्याय ने साहित्य सेवा के क्षेत्र में पदार्पण किया।

परिवार और शिक्षा

अयोध्या सिंह उपाध्याय का जन्म जिला आजमगढ़ के निजामाबाद नामक स्थान में सन् 1865 ई. में हुआ था। हरिऔध के पिता का नाम भोला सिंह और माता का नाम रुक्मणि देवी था। अस्वस्थता के कारण हरिऔध जी का विद्यालय में पठन-पाठन न हो सका, अतः इन्होंने घर पर ही उर्दू, संस्कृत, फारसी, बांग्ला एवं अंग्रेजी का अध्ययन किया। 1883 में ये निजामाबाद के मिडल स्कूल के हेडमास्टर हो गए। 1890 में कानूनगो की परीक्षा पास करने के बाद वह कानूनगो बन गए। सन् 1923 में पद से अवकाश लेने पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बने।

कार्यक्षेत्र

खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्यकार हरिऔध जी का सृजनकाल हिंदी के तीन युगों में विस्तृत है-भारतेंदु युग, द्विवेदी युग व छायावादी युग। इसीलिए हिंदी कविता के विकास में हरिऔध जी की भूमिका नींव के पत्थर के समान है। उन्होंने संस्कृत छंदों का हिंदी में सफल प्रयोग किया है। ‘प्रियप्रवास’ की रचना संस्कृत वर्णवृत्त में करके जहां हरिऔध जी ने खड़ी बोली को पहला महाकाव्य दिया, वहीं आम हिंदुस्तानी बोलचाल में चोखे चौपदे तथा चुभते चौपदे रचकर उर्दू जुबान की मुहावरेदारी की शक्ति भी रेखांकित की।

सर्वाधिक प्रसिद्धि

हरिऔध को कवि रूप में सर्वाधिक प्रसिद्धि उनके प्रबंध काव्य प्रियप्रवास के कारण मिली। इसकी रचना से पूर्व की काव्य कृतियां कविता की दिशा में उनके प्रयोग की परिचायिका हैं। इन कृतियों में प्रेम और शृंगार के विभिन्न पक्षों को लेकर काव्य रचना के लिए किए गए अभ्यास की झलक मिलती है। प्रियप्रवास के बाद की कृतियों में चोखे चौपदे तथा वैदेही बनवास उल्लेखनीय हैं। चोखे चौपदे लोकभाषा के प्रयोग की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। प्रियप्रवास की रचना संस्कृत की कोमल कांत पदावली में हुई है और उसमें तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। चोखे चौपदे में मुहावरों के बाहुल्य तथा लोकभाषा के समावेश द्वारा कवि ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह अपनी सीधी-सादी जुबान को भूला नहीं है। वैदेही बनवास की रचना द्वारा एक और प्रबंध सृष्टि का प्रयत्न किया गया है। आकार की दृष्टि से यह ग्रंथ छोटा नहीं है, किंतु इसमें प्रियप्रवास जैसी ताजगी और काव्यत्व का अभाव है।

प्रियप्रवास

यह एक सशक्त विप्रलंभ काव्य है। कवि ने अपनी इस कृति में कृष्ण कथा के एक मार्मिक पक्ष को किंचित् मौलिकता और एक नूतन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। श्रीकृष्ण के मथुरा-गमन के उपरांत ब्रजवासियों के विरहसंतप्त जीवन तथा मनोभावों का हृदयस्पर्शी अंकन प्रस्तुत करने में उन्हें बहुत ही सफलता प्राप्त हुई है। संस्कृत की समस्त तथा कोमल-कांत पदावली से अलंकृत एवं संस्कृत वर्ण वृत्तों में लिखित यह रचना खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है।

रामचंद्र शुक्ल ने इसे आकार की दृष्टि से बड़ा कहा, किंतु उन्हें इस कृति में समुचित कथानक का अभाव प्रतीत हुआ और इसी अभाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने इसके प्रबंधत्व एवं महाकाव्यत्व को अस्वीकार कर दिया है। शुक्ल जी से सरलतापूर्वक सहमत नहीं हुआ जा सकता। प्रबंध काव्य संबंधी कुछ थोड़ी-सी रूढि़यों को छोड़ दिया जाए तो इस काव्य में प्रबंधत्व का दर्शन आसानी से किया जा सकता है। यह सच है कि ऊपर से देखने पर इसका कथानक प्रवास प्रसंग तक ही सीमित है, किंतु हरिऔध ने अपने कल्पना कौशल के द्वारा, इसी सीमित क्षेत्र में श्री कृष्ण के जीवन की व्यापक झांकियां प्रस्तुत करने के अवसर ढूंढ निकाले हैं। इस काव्य की एक और विशेषता यह है कि इसके नायक श्रीकृष्ण शुद्ध मानव रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। वे लोकसंरक्षण तथा विश्वकल्याण की भावना से परिपूर्ण मनुष्य अधिक हैं और अवतार अथवा ईश्वर नाममात्र के हैं।

अन्य साहित्यिक कृतित्व

हरिऔध के अन्य साहित्यिक कृतित्व में उनके ब्रजभाषा काव्य संग्रह रसकलश को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। इसमें उनकी आरंभिक स्फुट कविताएं संकलित हैं। ये कविताएं शृंगारिक हैं और काव्य-सिद्धांत निरूपण की दृष्टि से लिखी गई हैं। इन्होंने गद्य और आलोचना की ओर भी कुछ-कुछ ध्यान दिया था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के अवैतनिक अध्यापक पद पर कार्य करते हुए इन्होंने कबीर वचनावली का संपादन किया। वचनावली की भूमिका में कबीर पर लिखे गए लेखों से इनकी आलोचना दृष्टि का पता चलता है। इन्होंने ‘हिंदी भाषा और साहित्य का विकास’ शीर्षक एक इतिहास ग्रंथ भी प्रस्तुत किया, जो बहुत ही लोकप्रिय हुआ।

विरासत

हरिऔध जी ने गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी की सेवा की। वे द्विवेदी युग के प्रमुख कवि हैं। उन्होंने सर्वप्रथम खड़ी बोली में काव्य-रचना करके यह सिद्ध कर दिया कि उसमें भी ब्रजभाषा के समान सरसता और मधुरता आ सकती है। हरिऔध जी में एक श्रेष्ठ कवि के समस्त गुण विद्यमान थे। उनका ‘प्रियप्रवास’ महाकाव्य अपनी काव्यगत विशेषताओं के कारण हिंदी महाकाव्यों में नींवपत्थर माना जाता है। श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के शब्दों में हरिऔध जी का महत्त्व और अधिक स्पष्ट हो जाता है-इनकी यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि ये हिंदी के सार्वभौम कवि हैं। खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल, सब प्रकार की कविता की रचना कर सकते हैं।

कृतियां

हरिऔध जी आरंभ में नाटक तथा उपन्यास लेखन की ओर आकर्षित हुए। उनकी दो नाट्य कृतियां प्रद्युम्न विजय तथा रुक्मणि परिणय क्रमशः 1893 ई. तथा 1894 ई. में प्रकाशित हुईं। 1894 ई. में ही इनका प्रथम उपन्यास प्रेमकांता भी प्रकाशन में आया। बाद में दो अन्य औपन्यासिक कृतियां ठेठ हिंदी का ठाठ (1899 ई.) और अधखिला फूल (1907 ई.) नाम से प्रकाशित हुईं। ये नाटक तथा उपन्यास साहित्य के उनके प्रारंभिक प्रयास होने की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इन कृतियों में नाट्यकला अथवा उपन्यासकला की विशेषताएं ढूंढना तर्कसंगत नहीं हैं। उपाध्याय जी की प्रतिभा का विकास वस्तुतः कवि रूप में हुआ। खड़ी बोली का प्रथम महाकवि होने का श्रेय हरिऔध जी को है। हरिऔध के उपनाम से इन्होंने अनेक छोटे-बड़े काव्यों की सृष्टि की, जिनकी संख्या पंद्रह से ऊपर है :

काव्य

1899 ई.-रसिक रहस्य, 1900-प्रेमाम्बुवारिधि, प्रेम प्रपंच, 1901 ई.-प्रमाम्बु प्रश्रवण, प्रेमाम्बु प्रवाह, 1904 ई.-प्रेम पुष्पहार, 1906 ई.-उद्बोधन, 1909 ई.-काव्योपवन, 1914 ई.-प्रियप्रवास, 1916 ई.-कर्मवीर, 1917 ई.-ऋतु मुकुर, 1925 ई.-पद्मप्रसून, 1927 ई.-पद्मप्रमोद, 1932 ई.-चोखे चौपदे, 1940 ई.-वैदेही बनवास, चुभते चौपदे व रसकलश।

खड़ी बोली काव्य-रचना

अयोध्या सिंह उपाध्याय खड़ी बोली काव्य के निर्माताओं में आते हैं। इन्होंने अपने कवि कर्म का शुभारंभ ब्रजभाषा से किया। रसकलश की कविताओं से पता चलता है कि इस भाषा पर इनका अच्छा अधिकार था, किंतु इन्होंने समय की गति शीघ्र ही पहचान ली और खड़ी बोली काव्य-रचना करने लगे। काव्य भाषा के रूप में इन्होंने खड़ी बोली का परिमार्जन और संस्कार किया। प्रियप्रवास की रचना करके इन्होंने संस्कृत गर्भित कोमल-कांत पदावली संयुक्त भाषा का अभिजात रूप प्रस्तुत किया। चोखे चौपदे तथा चुभते चौपदे द्वारा खड़ी बोली के मुहावरा सौंदर्य एवं उसके लौकिक स्वरूप की झांकी दी। छंदों की दृष्टि से इन्होंने संस्कृत, हिंदी तथा उर्दू सभी प्रकार के छंदों का धड़ल्ले से प्रयोग किया। ये प्रतिभासंपन्न मानववादी कवि थे। इन्होंने प्रियप्रवास में श्रीकृष्ण के जिस मानवीय स्वरूप की प्रतिष्ठा की है, उससे इनके आधुनिक दृष्टिकोण का पता चलता है। इनके श्रीकृष्ण रसराज या नटनागर होने की अपेक्षा लोकरक्षक नेता हैं।

रचनाएं

महाकाव्य

प्रियप्रवास, वैदेही वनवास

मुक्तक काव्य

चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, कल्पलता, बोलचाल, पारिजात, हरिऔध सतसई

उपन्यास

ठेठ हिंदी का ठाठ, अधखिला फूल

आलोचना

कबीर वचनावली, साहित्य संदर्भ, हिंदी भाषा और साहित्य का विकास

नाटक

रुक्मणि परिणय, प्रद्युम्न विजय व्यायोग

सम्मान

जीवनकाल में इन्हें यथोचित सम्मान मिला था। 1924 ई. में इन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रधान पद को सुशोभित किया था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने इनकी साहित्य सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए इन्हें हिंदी के अवैतनिक अध्यापक का पद प्रदान किया। एक अमरीकन एनसाइक्लोपीडिया ने इनका परिचय प्रकाशित करते हुए इन्हें विश्व के साहित्य सेवियों की पंक्ति प्रदान की। खड़ी बोली काव्य के विकास में इनका योगदान निश्चित रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि प्रियप्रवास खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है तो हरिऔध खड़ी बोली के प्रथम महाकवि।

मृत्यु

16 मार्च, 1947 को अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने इस दुनिया से लगभग 76 वर्ष की आयु में विदाई ले ली।


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