आत्मा के पार

By: Mar 17th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

महात्मा बुद्ध ने भी इस अवस्था को बयान करने के लिए बहुत प्यारा शब्द चुना है और वह है निर्वाण जिसका अर्थ है दीये का बुझ जाना, जैसे दीया जल रहा है, तो कोई उसे फूंक मार दे और दीया बुझ जाए, तब कहना पड़ेगा कि ज्योति विलीन हो गई, अस्तित्व में एक हो गई…

देव लोक का अर्थ है आत्मा, इस सूरत में पूर्ण सद्गुरु की कृपा से जब मन को मन से भी ऊपर उठने का बोध शुरू हो जाता है मानो पहले शरीर से ऊपर उठे, थोड़ा मुक्त आकाश मिला, अंतर आकाश मिला, एक कदम और आगे बढ़े तो मन से ऊपर उठने की कला मानो सद्गुरु का इशारा मिलते ही ध्यान आत्मा में स्थित होने लगता है और आत्मा में स्थित होने में बड़ा आनंद है बड़ा अर्थ है गरिमा है।

भाणा मन्ने निरंकार दा सतगुरु ते विश्वास करे।

कहे अवतार सदा होए सुखिया देवलोक विच वास करे।

संतों का यह भी मत है कि अब आत्मा में ही नहीं ठहर जाना है, क्योंकि बुद्धत्व तो उनको प्राप्त होता है जो आत्मा के भी पार चले जाते हैं। ऐसी अवस्था के बारे में अथर्ववेद का सूत्र है ज्योतिमय देव लोक से अंततः प्रकाशमान ज्योतिपुंज में सब लीन हो जाता है। सब मिट जता है। इसी अवस्था का नाम तुरीय भी है यानी तीन को पार करना, तल्लीन हो जाना, मानो व्यक्ति का होना एक प्रकार नेत्र है, शरीर मन और आत्मा। इस त्रिकोण के ठीक मध्य में वो बिंदु है जहां त्रिकेण शून्य हो जाता है, सब आकार खो जाता है बस निराकार रहता है। तब समष्टि के साथ एकता सधती है। महात्मा बुद्ध ने भी इस अवस्था को बयान करने के लिए बहुत प्यारा शब्द चुना है और वह है निर्वाण जिसका अर्थ है दीये का बुझ जाना, जैसे दीया जल रहा है, तो कोई उसे फूंक मार दे और दीया बुझ जाए, तब कहना पड़ेगा कि ज्योति विलीन हो गई, अस्तित्व में एक हो गई, जैसे सरिता सागर में विलीन हो जाती है फिर सरिता सागर का ही रूप धारण कर लेती है।

जोत अमर जोती विच मिल के अमर जोत बन जांदी ए।

कहे अवतार बूंद मिल सागर, सागर ही अखवांदी ए।

अंत में यह कहना पड़ेगा कि यह लोक मनुष्य के भीतर है और अथर्ववेद का ऊपर अंकित सूत्र मनुष्य की पूरी अंतर्यात्रा के मार्ग को अवलोकित करता है। आम तौर पर ‘परलोक’ से हमने जो अर्थ ले रखा है, वो सदा मृत्यु के बाद जो लोक है इसका ले रखा है मानो हमने इस लोक की और परलोक की व्याख्या कर रखी है, वह समय में है। हमने सोच रखा है कि जब ये लोक खत्म होता है, जहां हमारा जीवन समाप्त होता है, तो फिर परलोक शुरू होता है। मगर ऐसा नहीं है क्योंकि जब आत्मा मरती ही नहीं, तो मरने के बाद परलोक का अर्थ कोई मायने नहीं रखता। हां! अध्यात्म में जीवन को समर्पित करने की परिक्रिया को जीवन की समाप्ति कहा जाता है। तत्त्व ज्ञानियों का मत है कि यह लोक और परलोक यहीं साथ-साथ ही मौजूद हैं। समय में इनका विभाजन नहीं है, लेकिन मनुष्य को इसका पता नहीं है और जिसे अपना पता नहीं उसे परलोक का भी पता नहीं हो सकता, क्योंकि परलोक में प्रवेश करने का द्वार स्वयं का अस्तित्व है स्वयं का होना है, चुनांचे जिसे पूर्ण सद्गुरु द्वारा अपना पता लग जाता है, वह एक ही साथ परलोक और लोक की दहलीज पर बीच में खड़ा हो जाता है। यह इस तरफ झांकता है, तो इसे लोक और उस तरफ झांकता है तो ‘परलोक’ बाहर सिर करता है तो लोक भीतर सिर करता है तो ‘परलोक’ मानो ‘परलोक’ अभी और यहीं है। परलोक का संबंध हमारे दृश्य से अदृश्य में प्रवेश से है, जो हम अपने जीवन में ही कर सकते हैं। हम मृत्यु के बाद नहीं कर सकते मानो जीते जी ही परलोक में प्रवेश करना होता है।

 


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