कश्मीर में अपनाओ त्रिपुरा की राह

By: Mar 8th, 2018 12:08 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

त्रिपुरा में जिस बारीकी से काम हुआ, यह केवल भाजपा के बस की बात है। आवश्यकता इस बात की है कि भाजपा कश्मीर को अपने एजेंडे की प्रमुखता में शामिल करे। भाजपा की प्राथमिकता इस समय ज्यादा से ज्यादा राज्यों में चुनाव जीतना है। खेद का विषय है कि कश्मीर भाजपा के एजेंडे में नहीं है। भाजपा प्रमुख अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी के लिए विभिन्न राज्यों में चुनाव जीतना जितना अहम मुद्दा है, कश्मीर में शांति स्थापित करना हम भारतीयों के लिए उससे भी ज्यादा अहम मुद्दा है। क्या भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस ओर ध्यान देगा…

उत्तर-पूर्व के राज्यों में जीत के बाद भाजपा में सब बम-बम है। पंजाबी में कहें तो बल्ले-बल्ले है। भाजपा नेताओं के चेहरों पर मुस्कान वापस लौट आई है। जहां गुजरात विधानसभा चुनावों ने भाजपा के पसीने निकलवा दिए वहीं मध्य प्रदेश और राजस्थान उपचुनावों में भाजपा की हार ने न केवल कांग्रेस के हौसले बुलंद किए बल्कि जनता में कांग्रेस और इसके नवनियुक्त अध्यक्ष राहुल गांधी को भी नई नजर से देखने का अवसर प्रदान किया। लेकिन उत्तर-पूर्व राज्यों की जीत ने उस चोट पर मरहम लगा दिया है। अब कर्नाटक के चुनाव परिणाम बताएंगे कि भविष्य में ऊंट किस करवट बैठने की संभावना है। विद्वजन कयास लगाते रहेंगे और राजनीतिक दल अपना काम करते रहेंगे। उत्तर-पूर्व राज्यों के चुनाव परिणाम में सर्वाधिक चर्चा त्रिपुरा की हुई जहां भाजपा ने 25 साल पुराने कम्युनिस्ट शासन को उखाड़ फेंका और दो-तिहाई बहुमत हासिल किया। भाजपा शासन के बाद वहां स्थिति क्या होगी, लेनिन की मूर्ति तोड़ने के क्या परिणाम होंगे, यह अलग बहस का विषय है। इस बंगाली बहुल राज्य में जहां बंगालियों की आबादी 72 प्रतिशत है और शेष 28 प्रतिशत जनजातीय लोगों की है।

दो दशक तक वाम मोर्चे का नेतृत्व करते हुए मुख्यमंत्री रहे माणिक सरकार जनजातीय लोगों के हितैषी माने जाते थे तथा उन्होंने जनजातीय लोगों के विकास के लिए काउंसिल भी बनवाई, लेकिन मूल सुविधाओं की कमी, शिक्षा का अभाव, गरीबी आदि मुद्दों को सुलझाने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया। यही कारण था कि आईपीएफटी नामक संगठन जनजातीय लोगों के लिए अलग राज्य की मांग करता रहा है। भाजपा ने आईपीएफटी के साथ गठबंधन करके वाममोर्चे का जनजातीय कार्ड तो छीना ही, लेकिन जनजातीय क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों का काम और शिद्दत से किया गया जनसंपर्क भाजपा की जीत का बड़ा कारण रहा है। त्रिपुरा में वामपंथियों की हार के साथ एक नए युग का सूत्रपात हुआ है। इसे नया युग सिर्फ इसलिए ही नहीं कहा जाना चाहिए कि वहां भाजपा की दक्षिणपंथी सरकार आई है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि आईपीएफटी राज्य में भाजपा का सहयोगी दल है। भाजपा के साथ सहयोग करते हुए आईपीएफटी को अपना रुख नरम करना पड़ेगा, अपने बोल बदलने पड़ेंगे तथा अलगाववाद का राग छोड़ना पड़ेगा। राज्य के विकास के लिए यह एक शुभ संकेत है। त्रिपुरा में भाजपा की जीत के कारणों में वहां के जनजातीय इलाकों में संघ के जनसंपर्क का गहरा प्रभाव पड़ा। कांग्रेस बेहोश रही और वामपंथी सोते रहे, तो भाजपा ने सत्ता की मलाई लूट ली। इस तथ्य का जिक्र इसलिए क्योंकि वोट पाने के लिए भाजपा के काम करने का तरीका बहुत बारीकी से बुना  जाता है। स्थानीय आवश्यकताओं को समझ कर भाजपा रणनीति बनाती है ताकि वह अपने टारगेट वर्ग को यह संदेश दे सके कि भाजपा उनके साथ है।

नीतियोें में तुरत-फुरत परिवर्तन के अलावा मतदाता सूची पर आधारित पन्ना-प्रमुख, शक्ति केंद्र आदि की संरचना करके संगठन को न केवल मजबूत किया जाता है, बल्कि उस संगठन के माध्यम से घर-घर पहुंचना सुनिश्चित किया जाता है। मतदाताओं तक पहुंचने के भाजपा के विशद कार्यक्रम का लाभ भाजपा को मिलता है। लंबे समय से सत्ता का सुख भोग-भोगकर कांग्रेसी विलासितापूर्ण जीवन जीने के आदी हो गए हैं और जमीनी कार्यकर्ताओं से कट गए हैं। जब वे किसी प्रदेश में जाते हैं तो खूब तामझाम होता है, स्वागत होता है, कुछ बड़े स्थानीय नेताओं से मुलाकात होती है, प्रेस कांफ्रेंस होती है और नेताजी वापस हो लेते हैं। इसके विपरीत भाजपा के केंद्रीय नेता बिना किसी तामझाम के पहुंचते हैं, नेताओं से मिलने के बाद गांवों में जाते हैं, कार्यकर्ताओं से मिलते हैं, उनसे चर्चा करते हैं, उन्हें सुझाव देते हैं और एक स्फूर्तिदायक माहौल बनाकर वापस जाते हैं।

कश्मीर और त्रिपुरा में एक समानता है कि पीडीपी जो कभी अलगाववादियों का समर्थन करती रही है, अब भाजपा के साथ मिलकर प्रदेश की सत्ता संभाल रही है। सत्ता में आने के बाद से पीडीपी के सुर काफी बदले हैं। दोनों राज्यों में अंतर यह है कि त्रिपुरा में कमान भाजपा के हाथ में है और आईपीएफटी उसकी सहयोगी है जबकि कश्मीर में कमान पीडीपी के हाथ में है और भाजपा सहयोगी की भूमिका में है। कश्मीर के मामले में भाजपा की चुनावी रणनीति का विश्लेषण करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि त्रिपुरा की रणनीति पर चलकर भाजपा कश्मीर की समस्या का हल कर सकती है। कश्मीर के लोगों में नाराजगी है, केंद्र और राज्य सरकार से उनकी कई अपेक्षाएं हैं जो पूरी नहीं हो रही हैं। बातचीत के कई दौर असफल हो चुके हैं क्योंकि इसके लिए कोई सोची-समझी रणनीति बनाने के बजाय बहुत उथले प्रयास हो रहे हैं। कश्मीर के लोग शांति की तलाश मे हैं। कुछ समय पूर्व उत्तरी कश्मीर का निवासी एक नवयुवक उमर खालिक मीर उर्फ समीर इसी वर्ष मई में लश्कर-ए-तौएबा में शामिल होकर उग्रवादी बन गया था। पिछले साल नवंबर में सेना जब एक गांव में तलाशी अभियान चला रही थी तो उन्हें एक घर में इस युवक की मौजूदगी की भनक मिली। बहुत प्रयासों के बाद भी जब उमर खालिक समर्पण के लिए तैयार नहीं हुआ तो सेना के अधिकारियों ने वहां से 5 किलोमीटर दूर स्थित उसके घर में उसकी मां से संपर्क किया और उन्हें आश्वासन दिया कि यदि उनका बेटा समर्पण कर देगा तो वे उसके साथ नरमी का व्यवहार करेंगे। मां की अपील पर उमर खालिक ने समर्पण कर दिया। उभरते फुटबाल खिलाड़ी मजीद अरशद खान द्वारा मुख्य धारा में लौटने के बाद एक और मां ने अपने बेटे को उग्रवाद की राह छोड़ने के लिए अपील जारी की है।

कश्मीर की महिला फुटबाल खिलाड़ी और कोच अफशाना भी एक बार पुलिस पर पथराव में शामिल हुईं लेकिन उन्हें जल्दी ही अपनी गलती का अहसास हो गया और वे मुख्य धारा में लौट आईं। यही नहीं, जम्मू-कश्मीर में महिलाओं की 13 क्रिकेट टीमों ने भी एक साथ अपने हुनर का प्रदर्शन किया। ये सब उदाहरण इसी एक तथ्य की पुष्टि करते हैं कि लोग शांति चाहते हैं। त्रिपुरा में जिस बारीकी से काम हुआ, यह केवल भाजपा के बस की बात है। आवश्यकता इस बात की है कि भाजपा कश्मीर को अपने एजेंडे की प्रमुखता में शामिल करे। भाजपा की प्राथमिकता इस समय ज्यादा से ज्यादा राज्यों में चुनाव जीतना है। खेद का विषय है कि कश्मीर भाजपा के एजेंडे में नहीं है। भाजपा प्रमुख अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी के लिए विभिन्न राज्यों में चुनाव जीतना जितना अहम मुद्दा है, कश्मीर में शांति स्थापित करना हम भारतीयों के लिए उससे भी ज्यादा अहम मुद्दा है। क्या भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस ओर ध्यान देगा?

ई-मेल : indiatotal.features@gmail.com


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