कांगड़ा-चंबा के ढोलरुओं को सहेजती कृति

By: Mar 25th, 2018 12:05 am

पुस्तक समीक्षा

* पुस्तक का नाम : ढोलरू संस्करण-2017

* लेखक का नाम : डा. गौतम शर्मा व्यथित

* पृष्ठ 174

* मूल्य : 250 रुपए

* प्रकाशक : शीला प्रकाशन, राज मंदिर नेरटी, कांगड़ा (हिप्र) 176208

लोक साहित्य की परंपरा सार्वभौमिक है और लोक मानस में अंतरित होने वाली भावनाएं परिस्थितियों के अनुरूप अनेक माध्यमों से प्रस्फुटित एवं प्रकट होती हैं, जो शताब्दियों की यात्रा के बाद धरोहर बन जाती हैं। लोक कथाएं, लोक गीत, लोक गाथाएं अपनी विश्वजनित व्यापकता के साथ समाज के दुख-सुख, हास-परिहास, ऋतु परिवर्तन आदि को अभिव्यक्त करते हुए प्रसिद्ध सामाजिक परंपराओं का एहसास करवाती हैं।

लोक साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डा. गौतम शर्मा व्यथित ने लोक साहित्य की विविध विधाओं पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। प्रस्तुत कृति उसी शृंखला की एक रोचक और महत्त्वपूर्ण कड़ी है। आलोच्य पुस्तक ‘ढोलरू’ में डा. गौतम व्यथित ने कांगड़ा एवं चंबा जनपद में प्रचलित ढोलरुओं का न केवल संग्रह एवं संपादन किया है अपितु पाठांतर भी प्रस्तुत किया है। साथ ही ढोलरुओं का रूपांतर भी हिंदी में दिया गया है, जिससे पुस्तक की उपयोगिता बढ़ गई है। हिमाचल प्रदेश में लोक गाथाओं की समृद्ध परंपरा रही है। लेखक ने इन्हें पांच वर्गों में विभाजित किया है अर्थात (1) जागर अथवा धार्मिक कथाएं (2), प्रणय गाथाएं, (3) चैती गाथाएं, (4) पवाड़े-बारे तथा (5) पक्खड़ू (पारिवारिक गाथाएं)। ये गाथाएं मौखिक रूप से प्रचलित रही हैं, परंतु आज के युग में इन्हें विलुप्त होने से बचाने के लिए इनका दस्तावेजीकरण करना आवश्यक है। इन गाथाओं में लोक जीवन के विविध रंग मिलते हैं। ‘ढोलरू’ चैती गाथाओं के अंतर्गत आते हैं। इनमें उल्लेखनीय है नवराते ढोलरू, रलीपूजा गीत तथा छिंजें। वैसे तो सभी गीत रोचक होते हैं, परंतु ढोलरुओं का अपना ही महत्त्व एवं आस्वाद है। इन्हें गाने का विशेष अधिकार जाति विशेष यानि डूमणों को है, जो चैत्र मास की संक्रांति से लेकर मासांत तक गाई जाती हैं। किसी अन्य जाति के लोग इन्हें नहीं गाते।

परंपरा ने यह सम्मान विशिष्ट जाति को ही दिया है। पति-पत्नी ढोल-नगाड़े के साथ घर-घर जाकर ढोलरुओं का गायन करते हैं और मास का नाम सुनाते हैं। पुरस्कार में उन्हें अन्न-अनाज एवं धन मिलता है। परंपरा में ढोलरुओं के 24 रूप प्रचलित हैं। इनमें से कुछेक के नाम इस प्रकार हैं : पहला नां, बिजलो, द्रुबड़ी, गद्दन, धोबण, बिल्लिया तोते दा ब्याह, डालण फालण, डूम डमाणे, राजा बैंसर, नैणजा दई, नढुल्ल, रूल्हा दी कुल्ह, राणी कंडी, छरमरी, राणी सूही, कलोहे दी बां आदि। लेखक ने कथ्य के आधार पर ढोलरुओं का वर्गीकरण इस प्रकार किया है : (क) सुख समृद्धिदायक, (ख) घटना व बलिदानपरक, (3) शृंगार परक तथा (4) हास्य-विनोदात्मक। शैली के आधार पर इन्हें मुक्तक या कथात्मक कहा जा सकता है, परंतु मूलतः ये गीत कथात्मक हैं। पात्रों की परस्पर संवादात्मकता इन ढोलरुओं को आत्मीयता एवं भावात्मकता से सम्पृक्त करती है। ढोलरुओं में परंपरागत घटनाएं या लोक कथाएं गीत का आधार बनती हैं, जिन्हें युगल गायन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ‘पहला नां’ ढोलरू मंगलाचरण से शुरू होता है।

परमात्मा का स्मरण, फिर माईबाप का स्मरण और तीसरे स्थान पर गुरु महिमा। यह परंपरा मध्यकालीन आख्यानों एवं प्रेमाख्यानों में मिलती है। लोकाचार में भी मंगल कामनाओं की अभिव्यक्ति आम बात है। धोबण में उसके सौंदर्य का चित्रण है। राजा उससे कपड़े धुलाता है और उसे महल में भोज पर बुलाता है। दूसरी रानियां धोबण के खाने में जहर मिला देती हैं और वह दूसरा ग्रास खाते ही मृत्यु को प्राप्त होती है। राजा चंदन के वृक्ष कटवा कर उसका दाह संस्कार ससम्मान करवाता है।

दुखांत ढोलरू नारी मन की ईर्ष्या को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करता है। ऐसे ही गद्दण ढोलरू है, जिसमें राजा उसे प्राप्त करना चाहता है, परंतु गद्दण अपने गद्दी पति के प्रति समर्पित है। राजा उसे अनेक प्रलोभन देता है, परंतु गद्दण पर कोई प्रभाव नहीं होता। वह तो चंबा से आई है और चंबा ही जाएगी। दाम्पत्य निष्ठा का अद्भुत ढोलरू। रूल्हा दी कुल्ह तो बहुत ख्यात ढोलरू है। इसी प्रकार पुस्तक में संग्रहीत अन्य अनेक ढोलरू भी बहुत ही शिक्षाप्रद, रोचक एवं मन को आह्लाद देने वाले हैं। ढोलरुओं का लेखक ने अंत में स्वरांकन भी किया है, जो इनके गेयरूप स्वरूप को समझने में सहायक होता है।

डा. गौतम का यह ग्रंथ उनके गंभीर अध्ययन, लग्न एवं निष्ठा की परिणति है। ढोलरुओं की संभाल व संरक्षण की दिशा में यह योगदान लोक परंपरा की थाती है और संग्रह, संपादन तथा वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुति के लिए लेखक निश्चित रूप से सराहना का अधिकारी है। पुस्तक संग्रहणीय है।

-डा. सुशील कुमार फुल्ल, पुष्पांजलि,  राजपुर, पालमपुर


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