खेल प्रतिभाओं को कब मिलेगा वांछित सम्मान

By: Mar 16th, 2018 12:08 am

भूपिंदर सिंह

लेखक, राष्ट्रीय एथलेटिक प्रशिक्षक हैं

भारतीय सेना में भर्ती होकर वहीं पर सेना के वैपनों से शूटिंग के गुर सीखते हुए विजय कुमार ने भारत का प्रतिनिधित्व कई बार अंतरराष्ट्रीय स्तर की महत्त्वपूर्ण शूटिंग प्रतियोगिताओं में करके देश के लिए कई पदक जीते हैं। सेना से सेवानिवृत्त इस सूबेदार मेजर को इस समय राज्य में एक सम्मानजनक नौकरी की तलाश जारी है…

ओलंपिक खेल इस संसार का सबसे बड़ा व भव्य खेल आयोजन होता है। चार वर्ष बाद लीप के वर्ष में आयोजित इन खेलों का चलन ईसा पूर्व 776 ई. में यूनान की राजधानी रोम से शुरू हुआ था। कुछ समय चले इन पुरातन ओलंपिक खेलों में पहले पुरुष ही भाग ले पाते थे। महिलाएं दर्शक भी नहीं हो सकती थी। इन खेलों का प्रायोजन जहां अपनी व देश की शक्ति का प्रदर्शन तो था ही, वहीं पर ये खेल शौकिया तौर पर विश्व भाईचारे के लिए खेले जाते हैं। जब ये खेल बंद रहे उस समय पूरा विश्व युद्ध व मार काट में व्यस्त रहा था। 1896 में एक बार फिर इन खेलों का आयोजन शुरू हुआ और ये आधुनिक ओलंपिक कहलाए। इन खेलों में भागीदारी के लिए संसार की सर्वश्रेष्ठ 16 टीमों का व्यक्तिगत रैंकिंग में आना होता है। इन खेलों में पदक जीतना तो दूर की बात, भाग लेना भी अपने आप में बहुत बड़ी बात होती है।

हिमाचल प्रदेश में प्रशिक्षण प्राप्त कर तो आज तक कोई भी हिमाचली देश का प्रतिनिधित्व ओलंपिक खेलों में नहीं कर पाया है, मगर यह अलग बात है कि राज्य के बाहर जहां खेल वातावरण है, वहां प्रशिक्षण प्राप्त कर पहली बार सेना में रह कर प्रशिक्षण लेते हुए बिलासपुर जिला के पूर्व सूबेदार अनंत राम ने 1952 ओलंपिक खेलों में जिम्नास्टिक स्पर्धा में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। 1964 टोकियो ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाली हाकी टीम के कप्तान रहे पद्मश्री चरणजीत सिंह के प्रशिक्षण कार्यक्रम में पंजाब का योगदान रहा है। पद्मश्री चरणजीत सिंह लंबे समय तक हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला में निदेशक खेल व युवा गतिविधियां रहे हैं। सेवानिवृत्ति के बाद आजकल यह महान खिलाड़ी ऊना में रह रहे हैं। ऊना के ही मोहिंदर लाल ने 1980 ओलंपिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। सुरक्षा बलों के इस आईजी रैंक के अधिकारी की प्रशिक्षण तैयारी भी हिमाचल राज्य के बाहर ही हुई है। चंबा के बकलोह में रह रहे सेना के पूर्व जेसीओ वीएस थापा ने मुक्केबाजी में भारत का प्रतिनिधित्व ओलंपिक में किया है। इस मुक्केबाज की तैयारी भी सेना के प्रशिक्षण कार्यक्रम की ही देन है। हिमाचल प्रदेश के जनजातीय जिला लाहुल-स्पीति के सकंलान दोर्जे भी भारत का प्रतिनिधित्व ओलंपिक में कर चुके हैं। भारतीय खेल प्राधिकरण की विशेष खेल क्षेत्र योजना की खोज दोर्जे ने ओलंपिक तक का सफर तय किया है।

आजकल यह ओलंपियन हिमाचल प्रदेश युवा सेवाएं एवं खेल विभाग में युवा संयोजक के पद पर कई वर्षों से कार्यरत हैं। क्या इस ओलंपिक स्तर के खिलाड़ी की सेवाएं प्रशिक्षक के रूप में हिमाचल का खेल विभाग नहीं ले सकता था। भारतीय खेल प्राधिकरण ने भी नियम बताया है कि कोई भी ओलंपियन अगर प्राधिकरण में प्रशिक्षक की नौकरी करना चाहता है तो उसका कभी भी स्वागत है। इसी तर्ज पर तीरंदाजी में माहिर दोर्जे हिमाचल के किशोरियों व युवाओं को इस खेल के गुर सिखा ही सकते थे। 2012 लंदन ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए हमीरपुर के विजय कुमार ने शूटिंग में भारत के लिए रजत पदक जीता है। भारतीय सेना में भर्ती होकर वहीं पर सेना के वैपनों से शूटिंग के गुर सीखते हुए विजय कुमार ने भारत का प्रतिनिधित्व कई बार अंतरराष्ट्रीय स्तर की महत्त्वपूर्ण शूटिंग प्रतियोगिताओं में करके देश के लिए कई पदक जीते हैं। सेना से सेवानिवृत्त इस सूबेदार मेजर को इस समय राज्य में एक सम्मानजनक नौकरी की तलाश जारी है। ओलंपिक पदक विजेताओं को हर राज्य सम्मानजनक नौकरी देता है।

पीवी सिंधु को तो उसके राज्य ने सहायक आयुक्त बना दिया है। उस स्टार बैडमिंटन खिलाड़ी ने भी ओलंपिक में देश के लिए रजत पदक ही जीता है। विजय कुमार पिछले वर्ष सेना से सेवानिवृत्त होकर अपने गांव हमीरपुर के हरसौर में रह रहा है। हिमाचल प्रदेश सरकार को चाहिए कि विजय कुमार को खेल विभाग में ही सिविल सेवा के अधिकारियों के समकक्ष दर्जा देकर उसके उत्कृष्ट खेल अनुभव का लाभ हिमाचली खेलों के उत्थान के लिए लिया जाए। हाकी में भारत की ओर से खेलते हुए ऊना के दीपक ठाकुर ने ओलंपिक तक सफर पंजाब में प्रशिक्षण प्राप्त कर पूरा किया है। संसार के इस तेज तर्रार फारवर्ड ने कई अंतरराष्ट्रीय हाकी प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। हिमाचल प्रदेश इस ओलंपियन को हिमाचल में सम्मानजनक नौकरी आज तक नहीं दे पाया है। कुछ ऐसे भी नाम हैं जो ओलंपिक प्रतिनिधित्व को बहुत नजदीक आकर भी नहीं कर सके हैं। 2016 रियो ओलंपिक के प्रशिक्षण शिविर में अंत तक बने रहे हमीरपुर के विकास ठाकुर भारोत्तोलन में प्रतिनिधित्व करने से चूक गए। 2004 ओलंपिक के लिए हुए फाइनल ट्रायल में रजत पदक से कांस्य पदक पर पहुंचने के कारण हमीरपुर की पुष्पा ठाकुर भी इस सफर को पूरा नहीं कर पाई थी। 1984 ओलंपिक के लिए हुए ट्रायल में स्वर्ण पदक प्राप्त कर तथा नया राष्ट्रीय कीर्तिमान बना कर भी कोटा कम होने के कारण गीता व सुमन रावत में से गीता जुत्सी को मौका मिला था।

सुमन रावत भी ओलंपियन बनने से चूक गई थी। आज हिमाचल प्रदेश में कई खेलों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर की खेल सुविधाएं हैं। देखते हैं भविष्य में कौन-कौन खिलाड़ी ओलंपिक तक का सफर तय कर तिरंगे को सबसे ऊपर करेगा। सबसे जरूरी यह है कि हिमाचल की जो प्रतिभाएं अपनी उपलब्धियों कई बार प्रदर्शित कर चुकी हैं, उन्हें अपेक्षित सम्मान दिया जाना चाहिए। कई-कई पदक पाकर भी कई प्रतिभाएं अभी तक उचित सम्मान, रोजगार अथवा सरकारी नौकरी के लिए तरस रही हैं। इन प्रतिभाओं को अन्य राज्यों की तरह सम्मानित किए जाने की जरूरत है ताकि उन्हें उत्साहित रखा जा सके। ऐसा करने से ही प्रतिभाएं खेलों के प्रति आकर्षिक होंगी। अन्यथा इस क्षेत्र में प्रतिभाओं का पदार्पण नहीं होगा तथा यहां से पलायन चलता रहेगा। यह खेलों के लिए एक प्रतिकूल स्थिति होगी। हमें अन्य राज्यों के उदाहरणों से सबक लेना चाहिए, नहीं तो हम खेलों में पिछड़ जाएंगे।


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