दरकता समाज, उगते नेता

By: Mar 19th, 2018 12:05 am

भविष्य न तो पहेली बनकर खामोश रहेगा और न ही उलझन को तसदीक करेगा, इसलिए हिमाचल विधानसभा की निगाहें बहुत कुछ ढूंढ रही हैं और जब चर्चा में बहस के फासले कम होते हैं, तो प्रदेश को आगे ले जाने की राह मिलती है। सदन में हमीरपुर के विधायक नरेंद्र ठाकुर जो कह गए और जो शहरी विकास मंत्री सरवीण चौधरी कहना चाहती हैं, उन्हें भविष्य के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। अवैध खनन में चारित्रिक पतन की हिमाचली तस्वीर में अगर नब्बे फीसदी नेता हैं, तो सदन में आत्मचिंतन की पेशकश नरेंद्र ठाकुर कर रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि खड्डों, नालों व नदियों के आसरे पैदा हो गया माफिया अब सियासी नेता बन बैठा है या ऐसे कत्ल की निगरानी राजनीति कर रही है। हिमाचल में समृद्ध होना, अगर सियासी प्रश्रय है, तो गरीबी की सूची में शामिल होना भी अब राजनीतिक कसरत है। भले ही हमें एनजीटी के फैसले पसंद न आएं और सरकार को पुनर्विचार याचिका दायर करने की वजह मिल जाए, लेकिन निर्माण के उल्लंघन में राजनीतिक चेहरा या पहुंच शामिल रहे हैं। कुछ वर्ष पीछे लौटकर देखें तो हिमाचली परिवेश में सलामत रहना जितना अच्छी तरह पर्यावरण से जुड़ता था, उतना ही आसान समाज के लिए भी होता था। आज समाज दरक रहा है, तो हर स्थान पर नेता उग रहा है। यह हमारी सामाजिक लाचारी है या राजनीति ने शर्म छोड़ दी। जिस खनन माफिया में एक विधायक को नेताओं की उपस्थिति नजर आ रही है, उसके खिलाफ खड़े होने की जुर्रत अब समाज कैसे कर सकता है। ऐसे में पुलिस एवं कानून व्यवस्था में बढ़ते सुराखों को नहीं रोका, तो यह रिसाव हमारे विश्वास को भी बहा कर ले जाएगा। विकास के जिस मुहाने पर जेसीबी मशीनें खड़ी हैं या जहां पहाड़ की कब्र खोदी जा रही है, वहां प्रदेश अपनी आंखें मूंद रहा है और इसीलिए जब राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल निर्णायक होता है, तो महफिल उजड़ने का खतरा बढ़ जाता है। पर्यटन के इस दौर में अगर हिमाचल का होटल व्यवसाय जंजीरों से बंधा रहेगा, तो फैसलों के चाबुक आर्थिकी को ही घायल करेंगे। ऐसे में हिमाचली विकास में पनप रही आर्थिकी को बचाने से पहले उन मानदंडों  की रक्षा करना भी जरूरी है, जो प्रदेश का भविष्य तय करेंगे। सीमाओं का उल्लंघन अगर हिमाचली फितरत बनता रहेगा, तो कानूनों के कितने दांत तोड़ेंगे और यह सफर कहां जाकर खत्म होगा। ऐसे में जबकि सरकार को यह सुनिश्चित करना है कि अवैध घोषित निर्माण की छत बच जाए या आर्थिकी की खातिर किसी होटल की छांव न टूटे, तो भी कुछ सवाल अहम हो जाते हैं। आवासीय या पर्यटन क्षमता के निर्माण में नीतिगत फैसलों का अभाव क्यों रहा। क्यों आम हिमाचली अब कानून के पहरे तोड़ने लगा या माफिया सरीखा हो चला है। सार्वजनिक सोच के बजाय निजी स्वार्थ की खेती में क्यों राजनीति बोई जाने लगी है। क्यों गांव-शहर के जनसेवक अपने वर्चस्व की कीमत में प्राकृतिक संसाधनों को लूटने लगे हैं। क्यों अतिक्रमण एक शौक-एक बुलंदी का आलम बनता जा रहा है और पूरे परिदृश्य के सियासी धुएं के पीछे समाज नंगा हो रहा है। बेहतर होगा जो बहस विधायक नरेंद्र ठाकुर ने शुरू की, उसकी अमानत में नैतिकता की कोई शपथ तैयार हो, वरना भ्रष्ट तंत्र की रसीद बन चुके चंद नेता किसी दिन पूरे समाज की बोली लगाने से भी नहीं चूकेंगे। दूसरी ओर शहरी विकास विभाग को केवल प्रार्थी बनकर अदालती छूट हासिल करने के बजाय यह भी सोचना होगा कि आखिर क्यों नागरिक अपनी हद भूल रहा है। नागरिक जरूरतों का समाधान नहीं होगा, तो शहर की बस्ती में कहर ही होगा। आज हिमाचल के कमोबेश हर शहर-कस्बे को नई सांसें चाहिएं, तो अतिरिक्त आवासीय सुविधाओं में विस्तार। आश्चर्य यह कि पिछले तीन दशक से सेटेलाइट टाउन बसाने की योजनाएं सिर्फ कोरा स्वप्न बनकर रह गई हैं। जिस मूल भावना से शिमला के नजदीक उपग्रह शहर की जरूरत बढ़ती रही है, क्या उसका हल सुप्रीम कोर्ट निकाल देगी। पिछले दस सालों से पचहत्तर हजार लोगों ने आशियाने बसाने की फरमाइश में हिमुडा पर भरोसा किया, क्या उसका भी हल अदालती होगा। मंत्री महोदया रुकी हुईं फाइलों पर हस्ताक्षर नहीं करेंगी तो न हिमुडा बस्तियां बसा पाएगा और न ही प्रस्तावित स्मार्ट सिटी परियोजनाओं से राहत निकलेगी। हम नागरिक विकास की बाड़बंदी करके ही समाधान नहीं खोज सकते, बल्कि भविष्य में रूपांतरित होने की करवटों  में, नए विकल्प खड़े करने होंगे।


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