नाटक की दहलीज पर है मेरी कहानी : श्रीनिवास

By: Mar 4th, 2018 12:05 am

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने श्रीनिवास जोशी के लघु नाटक संग्रह ‘हम नहीं सुधरेंगे’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

दिव्य हिमाचल के साथ

दिहि : जीवन और समाज के बीच, आप नाटकीयता और यथार्थ के किन पहलुओं को दुविधा मानते रहे या चरित्रों के संघर्ष में मध्यम वर्ग का एहसास सदा रहा?

जोशी : स्वातंत्र्योत्तर भारत में जैसे-जैसे निर्धनता, निरक्षरता, बेकारी, शोषण, भ्रष्टाचार, बलात्कार, कन्या भू्रण हत्या और अनैतिकता बढ़ती गई, यथार्थ निरंतर भयावह होता गया। रोमेश मेहता के नाटक ‘जमाना’ में एक व्यक्ति, जो हिंदुस्तान की तस्वीर बदलना चाहता है, कहता है, ‘‘हिंदुस्तान बदलेगा, जमाना बदलेगा। इसे गोपू नाई बदलेगा, इसे धरमू किसान बदलेगा, इसे जग्गू मजदूर बदलेगा।’’ इस पर जग्गू तपाक से बोलता है, ‘‘जग्गू ने पिछले बीस साल से जूता तो बदला नहीं है। जमाना क्या बदलेगा?’’ तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज उठा क्योंकि लोगों ने उसे यथार्थ माना जो जग्गू ने कहा। एक ओर शब्दाडंबर है और दूसरी ओर यथार्थ; दर्शक स्वाभाविक है, यथार्थ को स्वीकारते हैं।

दिहि : क्या कहानी का विस्तार नाटक की विधा में संभव है या लेखकीय निगाह के साथ एहसास से गुजरना ही नाटक है?

जोशी : कहानी को नाटक की विधा में परिवर्तित कर सुखद परिणाम पाना तभी संभव है जब नाटककार और कथाकार की वेवलैंथ यानी तरंग-दैर्घ्य समरस हो अन्यथा दोनों के बीच में एक खाई बन जाती है जिसे पाटना कठिन होता है। अनेक नाटक देखने के बाद क्यों दर्शक ऐसा कहते हैं कि जो मजा पुस्तक में है, वह नाटक में नहीं है। ‘उसने कहा था’ कहानी पढ़ लो और इसी नाम की सुनील दत्त-नंदा वाली फिल्म देख लो। किसमें अधिक आनंद आता है? तीस मिनट की एक कहानी को दो घंटे की फिल्म बनाने में जो कठिनाइयां आती हैं, वे सब इस फिल्म में हैं।

दिहि : युग संदर्भों में नाटक की भूमिका अपने पाठक, दर्शक या श्रोता के रिश्तों पर निर्भर करती है या इसके मंचन की नजाकत में, संप्रेषण का माध्यम ही जीवंतता का बोध है?

जोशी : दर्शक और अभिनेता के रिश्ते को हम संप्रेषण कहते हैं जिस पर सारा नाटक आधारित है। संप्रेषण या कम्युनिकेशन के आयाम पर जब तक एक अभिनेता पूरा नहीं उतरेगा, वह अपनी बात लोगों तक पहुंचा ही नहीं सकता है। अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए अभिनेता को थिएटर की भाषा आनी चाहिए। विभिन्न लय यानी रिदम और स्पंदन यानि पेस, जो हर नाटक के आरंभ से अंत तक चलती हैं, उन पर अभिनेता की पूरी तन्मयता से पकड़ होनी चाहिए। सबसे पहले थिएटर की भाषा लें। क्या होती है यह भाषा? यह मिश्रित भाषा होती है, जिसमें अनेक प्रकार की भाषाएं सक्रिय रहती हैं। नाटक के आलेख की भाषा, अभिनेता के शरीर की भाषा, भाषण और संगीत की दृश्य-श्रव्य भाषा, रूप और दृश्य सज्जा, वेशभूषा तथा प्रदर्शन-स्पेस की दृश्य भाषा और इन सबसे अलग हर प्रदर्शन को अपने ही ढंग से ग्रहण करते, अपना अलग पाठ तैयार करते प्रेक्षक की भाषा। यह जरूरी नहीं है कि प्रेक्षक की भाषा नाटककार, निर्देशक या अभिनेता के पाठ वाली भाषा हो। क्योंकि कुछ प्रेक्षक मनोरंजन के लिए आते हैं और कुछ नाटक के एक अनुभव को आत्मसात करने या समझने आते हैं जबकि नाटककार और निर्देशक दोनों में से किसी भी पक्ष को लेकर चिंतित ही न हो। किसी भी संप्रेषण की प्रक्रिया में शब्द का बहुत बड़ा स्थान रहा है। एक उदाहरण अपने ही प्रदेश के विश्वविख्यात मंच अभिनेता मनोहर सिंह का दे रहा हूं। मनोहर सिंह जिस कुशलता से शब्द को समझ कर उसके उच्चारण में ध्यान देकर आवश्यक उतार-चढ़ाव के साथ उसे प्रेक्षक के पास पहुंचाते थे, वही उनका सबसे बड़ा हथियार था। तुगलक में मनोहर अपने शब्दों से इतिहास से ली गई एक कहानी ही नहीं कहते, वह एक ऐसा स्वप्नदर्शी शासक नजर आने लगते हैं जो यथार्थ के साथ अपना तालमेल ही नहीं बैठा पाता। विचार और अमल के बीच की खाई की अनिवार्यता उसमें नजर आती है। प्रेक्षक नाटक के लिए स्वयं द्वारा तैयार की गई अपनी भाषा में स्थूल कहानी या स्टेज में हुए कार्य-व्यापार को देख कर खुश हो सकता है। वस्तुतः कहानी के साथ-साथ स्वप्न और यथार्थ का संघर्ष तथा दोनों में अंतर का लाजिमी तौर पर होना और इस बात को प्रेक्षकों तक पहुंचा पाना मनोहर सिंह की शाब्दिक भाषा की पकड़ जताता है।

दिहि : नाटक लिखना क्योंकि बहुआयामी परिप्रेक्ष्य में एक साहित्यिक मंच सरीखा है, तो इसमें भाषा और परिवेश के साथ, शब्द और संदेश की सीमा पहले से तय रहती है या यहां भी लेखक की पहुंच असीमित व निर्बाध रहती है?

जोशी : एक अच्छा नाटक साठ से नब्बे मिनट में समाप्त हो जाना चाहिए और आजकल जो नाटक लिखे जा रहे हैं, वह इतनी ही अवधि के हैं। मोहन राकेश के नाटक हों या भीष्म साहनी के अथवा बलवंत गार्गी के, इनके लिखे सभी नाटक लगभग इसी अवधि के हैं। हां, कालीदास लिखित अभिज्ञान शाकुंतलम संस्कृत में 114 पृष्ठ का है। गिरीश कर्नाड का तुगलक कुछ लंबा है जिसमें 13 दृश्य हैं। इसलिए नाटककार को बांधना सही नहीं होगा, उसकी पहुंच असीमित होनी चाहिए। पर नाटककार को यह जानना भी जरूरी है कि नाटक मंचीय हो, तभी नाटक विधा अपनाई जाती है।

दिहि : आपके लिए नाटक का मूल्यांकन सिर्फ  लिखा हुआ संदर्भ है या पात्रों के साथ निभाया हुआ मंचन। नाटक के मूल चरित्र को समाज में ढूंढने और फिर समाज को सौंपने की यात्रा में साहित्यिक क्षमता का मूल्यांकन सही-सही हो सकता है या यहां जिन खोजा, तिन पाइया जैसी कोई आत्मानुभूति रहती है?

जोशी : मैं उस नाटक को नाटक समझता हूं जो खेला जा सके। जयशंकर प्रसाद के नाटक समुद्रगुप्त तथा चंद्रगुप्त आर्मचेयर नाटक कहे जाते हैं अर्थात ऐसे नाटक जिन्हें पढ़ा जा सकता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की शांता गांधी ने प्रसाद के समुद्रगुप्त जैसे कठिन नाटक को मंचित किया था। सृजनशील रंगकर्मी को यह समझना होगा कि वह ऐसा नाटक लिखे जिसे मंचित किया जा सके अन्यथा अनेक विधाएं हैं जिनके द्वारा अपनी बात लोगों तक पहुंचाई जा सकती है।

दिहि : कितनी सहजता से आप लेखन की विविध शैलियों में अपना साहित्यिक गंतव्य ढूंढ लेते हैं। आपके लिए लेख, व्यंग्य, कहानी और नाटक की विधा में प्रवेश और चयन का अंतर किन बिंदुओं पर टिका रहता है। कहां विषय कहानी बन जाते और क्यों नाटक की ओर बढ़ जाते हैं?

जोशी : मैं अपने को साहित्यकार मानने से इनकार करता हूं। साहित्य अपने ज्ञान से समाज और संस्कृति को सार्थक दिशा देने का एक सशक्त पर्याय है। क्या मैं इसके लिए लिख रहा हूं? मैं तो अपनी तुष्टि के लिए लिखता हूं। लिख लेने के बाद मुझे एक आनंद मिलता है। इसलिए अपने को मैं केवल रचनाकार तक ही सीमित रखता हूं। क्योंकि मुझमें नाटक के कीटाणु हैं, अतः मेरी कहानियों में नाटकीय पुट मिलता है। मैं कहानी को नाटक की दहलीज में खड़ा पाता हूं। मैंने अपनी अनेक कहानियों को नाटक का रूप दिया है। मेरी कहानी ‘डग्याली की रात’ बहुत लोकप्रिय हुई थी और जब मैंने इसे नाटक का रूप देकर आकाशवाणी को दिया तो सन् 2006 में इसे प्रसार भारती ने उत्कृष्ट मान मुझे सम्मानित किया। इसी प्रकार मेरी कहानी ‘छठा मेज’ को नाटक के रूप में भारत भर में अनेक स्थानों पर खेला गया।

दिहि  : हिंदी व इंग्लिश में लिखना महज एक भाषा का चयन है या विषयों की रूपरेखा में भाषा अहम हो जाती है। दिल के करीब लिखना हो, तो अभिव्यक्ति की मौलिकता में भाषा की भूमिका को कैसे संबोधित करेंगे?

जोशी : फिर वही सवाल सामने आ रहा है कि आपकी तुष्टि रचना को किस भाषा में लिख कर हो रही है। जब मैंने आज की ब्यूरोक्रेसी पर लिखने की सोची तो मुझे लगा कि मैं रचना को बेहतर गेट-अप दे पाऊंगा यदि मैं इसे अंग्रेजी में लिखूं। इसलिए मेरी पुस्तक ‘बाबूडम बॉश प्लस’ आई जिसे पाठकों ने उत्सुकता से पढ़ा। पर दिल के करीब तो हमेशा अपनी ही भाषा है और मैं अधिक से अधिक इसी में लिखने का प्रयास करता हूं। अभिव्यक्ति अपनी भाषा में सहजता से आती है, अंग्रेजी लिखने में वह सहजता नहीं है। शब्दकोश का सहारा लेना पड़ता है।

दिहि : लेखन में अध्ययन व शोध की अनिवार्यता आपको कहां तक ले जाती है। उदाहरण के लिए हम नहीं सुधरेंगे और बोला झमूरा झम-झम जैसी कृतियों के लिए आपने समाज के कितने युगों व पीढि़यों को छूने की कोशिश की या नाटकों को कहां-कहां ढूंढा।

जोशी : इन दो कृतियों को एक ही नजर से देखना ठीक नहीं होगा। हम नहीं सुधरेंगे लिखते समय मेरे मन में था कि एक संदेश को लोगों तक इस तरह पहुंचाना है कि वे इसे एक उबाऊ नाटक न समझें और इसके संदेश को ग्रहण करें। साथ ही साथ मैं इसे बहुत ही सरल रखना चाहता था ताकि इसे स्कूलों के बच्चे भी खेल सकें। न परिधान का झंझट हो, न मंच-सज्जा का तामझाम हो। पात्र सीमित संख्या में हों। आज जब मैं इन नाटकों को स्कूल के बच्चों द्वारा खेलते देखता हूं तो एक संतुष्टि होती है। बोला झमूरा झम झम का ह्यूमर विशिष्ट है जिसमें एक गहराई है। इन नाटकों के तीन-चार एपीसोड को मानवता के नाम से मंचित कर केदार ठाकुर ने बहुत अच्छा निर्र्देशक होने का परिचय दिया था। मेरा मानना है कि अब हमारे समाज में यदि कोई परिवर्तन ला सकता है तो वह है युवा वर्ग और उनमें भी वे बच्चे जो स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इसलिए मेरे दोनों नाटकों के एपीसोड्स उन्हीं को समर्पित हैं।

दिहि : लेखन के किस चरित्र या विधा में श्रीनिवास जोशी का परिचय मुकम्मल होता है या ऐसी कोई अवधारणा बचपन से रही जो व्यावसायिक उन्नति के बीच आपके लिए साहित्यिक झरोखा साबित हुई?

जोशी : मैं कविता नहीं लिखता हूं। रचनाकार होने के नाते मैं कॉलेज समय से कॉलेज पत्रिका के लिए लिखता रहा हूं। पर मैं इसे स्वीकार करता हूं कि हमारे सचिव श्री महाराज कृष्ण काव ने यहां एक संस्था बनाई ‘शिखर’ और उसमें शिमला के आठ साहित्यकारों को जोड़ा जिसका मैं भी एक सदस्य था। उसकी माह में होने वाली गोष्ठी में हर सदस्य को अपनी रचना प्रस्तुत करनी होती थी, तबसे  लेखन में रुचि बढ़ी और साहित्यकारों को सुन कर रचना में निखार भी आया।

दिहि : लेखन आपके लिए कब प्रभावशाली हो जाता है या लेखकों के प्रभुत्व में गौण होते ऐसे कौन से विषय हैं जो अब न साहित्य की परिधि और न ही मीडिया की सनक में आते हैं?

जोशी : मेरा मानना है कि हास्य-व्यंग्य अब कम होता जा रहा है और हास्य-व्यंग्य उस स्तर का हो गया है जो हमें कपिल शर्मा की कामेडी में दिखाई देता है जिसे अंग्रेजी में हॉर्स-कॉमेडी कहा जाता है।

दिहि : कोई ऐसी तड़प जो केवल लेखन ने शांत की या जहां पहुंच कर भी लिखा हुआ असंतुष्ट रहा। इस दौरान क्या हिमाचली परिप्रेक्ष्य या परिवेश से जुड़ी कोई रचना आपके सामने कालखंड की प्रतिमा सरीखी बन गई। आपके पांच पसंदीदा लेखक?

जोशी : लेखन तड़प को शांत करने का माध्यम होता ही है। जितने गुब्बार होते हैं, वे बाहर निकल जाते हैं। जरूरी नहीं कि हर कुछ छप जाए, पर गुब्बार तो दूर होते ही हैं न। हिमाचली परिवेश में गाए जाने वाले लोकगीत मुझे बहुत प्रभावित करते हैं। लच्छीराम के संगीत निर्देशन में गाए ‘घीवा खाया बोलो खिचड़ी चाणी’ या ‘धाणा धाणा धांकुरू’ या अच्छरी या मोहणा या गंभरी के गाए गीत और न जाने कितने, सब मुझे उद्वेलित करते हैं। हिंदी में निर्मल वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, सुदामा कुमार पांडेय धूमिल और अंग्रेजी में खालेद होस्सेनी, टॉमस हार्डी व बर्नाड शॉ मेरे पसंदीदा लेखक हैं।

-प्रतिमा चौहान


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