बैड बैंक

By: Mar 21st, 2018 12:10 am

आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 में एनपीए की समस्या से निपटने के लिए ‘बैड बैंक’ को स्थापित करने की सिफारिश की गई। इस ‘बैड बैंक’ या एक प्रकार के एसेट्स रिकंस्ट्रकशन कंपनी की स्थापना कर बैंकों की गैर निष्पादित परिसंपत्तियों को बाजार कीमत पर खरीद कर एनपीए की समस्या का समाधान किया जा सकता है। बैड बैंक का नाम पब्लिक सेक्टर एसेट रिहैबिलिटेशन एजेंसी यानी पीएआरए होगा।

बैड बैंक एक आर्थिक अवधारणा है, जिसके अंतर्गत आर्थिक संकट के समय घाटे में चल रहे बैंकों द्वारा अपनी देयताओं को एक नए बैंक को स्थानांतरित कर दिया जाता है। यह बैड बैंक कर्ज में फंसी उनकी राशि को खरीद लेगा और उससे निपटने का काम भी इसी बैंक का होगा। जब किसी बैंक की गैर निष्पादित संपत्ति सीमा से अधिक हो जाती है, तब राज्य के आश्वासन पर एक ऐसे बैंक का निर्माण किया जाता है, जो मुख्य बैंक की देयताओं को एक निश्चित समय के लिए धारण कर लेता है। 1991-92 के दौरान स्वीडन में इस तरह की प्रक्रिया द्वारा आर्थिक चुनौतियों का सामना किया गया था। 2012 में स्पेन ने आर्थिक संकट के दौरान ऐसे ही बैंकों का सहारा लिया है। इन बैड बैंकों को 10 से 15 वर्ष की समय सीमा दी गई है। स्थानीय सरकार द्वारा इन बैंकों को निर्धारित अवधि में लाभ में लेकर आना होगा। बता दें कि बैड बैंक एआरसी यानी एसेट रीकंस्ट्रक्शन कंपनी की तरह काम करेगा।

बैंक, खासकर पीएसयू बैंकों का एनपीए तेजी से बढ़ा है। वित्त वर्ष 2017 की पहली छमाही में कुल एनपीए 6.7 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया है। कुल कर्ज का करीब 9.7 फीसदी एनपीए हो चुका है और करीब 80 फीसदी एनपीए सरकारी बैंक के खाते में है। बैड बैंक के आने से दूसरे बैंकों से डूबते कर्ज को वसूलने का दबाव हट जाएगा। दूसरे बैंक नए लोन देने पर फोकस कर पाएंगे। बैंकों को अपने डूबते कर्ज बैड बैंक को बेचने की सुविधा मिलेगी। बीमार कंपनियों की संपत्ति बेचने के काम में तेजी आएगी। बैंक अधिकारी रिकवरी की जगह कारोबार बढ़ाने पर फोकस करेंगे। भारतीय बैंकों में ऐसी बहुत सी स्ट्रेस्ड संपत्तियां हैं, जो अलग-अलग बैंकों में फैली हुई हैं या यूं कहें कि अलग-अलग बैंक इन स्ट्रेस्ड संपत्तियों से जूझ रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रबंधक या वरिष्ठ अधिकारियों का समय इन स्ट्रेस्ड संपत्तियों के प्रबंधन में बर्बाद हो रहा है। इस कारण वे बैंकों के सामान्य कामकाज में अपना समय नहीं दे पाते। यही कारण है कि सार्वजनिक बैंक ऋण देने में बहुत पीछे चल रहे हैं। स्ट्रेस्ड संपत्तियों के कारण सार्वजनिक बैंक बहुत से कानूनी एवं संस्थानीय नियमों में फंसे रहते हैं।

यदि किसी स्ट्रेस्ड संपत्ति के मामले में केंद्रीय सतर्कता आयोग कोई निर्णय लेना चाहे, तो बैंकों के सामने नियम आडे़ आते हैं और वे उनमें उलझकर सीबीसी या सीबीआई को ग्राहक के विरोध में कोई कदम उठाने के लिए लिखित दावा नहीं कर सकते। स्ट्रेस्ड संपत्ति का मामला ऐसा है, जिसमें सार्वजनिक बैंक चक्रवात की तरह गोल-गोल घूम रहे हैं, और उससे निकल नहीं पा रहे हैं।


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