भाजपा के आत्मविश्वास की हार

By: Mar 16th, 2018 12:05 am

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने ही ‘घर’ में हार गए। उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी अपने क्षेत्र को बचा नहीं सके। सबसे बड़ी और सकते में डालने वाली हार यही है कि मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री उपचुनावों में अपनी सीटों को बचा नहीं पाए और सपा-बसपा करार ने अप्रत्याशित कमाल कर दिखाया। इस जनादेश के राष्ट्रीय संकेतक हो सकते हैं, यदि इस आधार पर ही विपक्षी लामबंदी का फार्मूला तय किया जाए। कमोबेश उस उप्र से यह अपेक्षा नहीं थी, जिसने 2014 में 80 में से 73 सांसद जितवाए और विधानसभा चुनाव में भी भाजपा और सहयोगी दलों को 325 सीटों का ऐतिहासिक जनादेश दिया, लेकिन हवाओं ने रुख ऐसा बदला कि ऐसा ही हुआ। मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी इसे ‘अति आत्मविश्वास’ की हार बता रहे हैं। बहरहाल उप्र में भाजपा को ऐतिहासिक, करारी, मोहभंग वाली पराजय देखनी पड़ी है। जिस गोरखपुर में बीते 29 सालों से भाजपा कभी नहीं हारी, वहीं जनता ने मठ, मंदिर, पूजा और हिंदू-मुसलमान, गऊओं को घास खिलाने जैसी कवायदों को नजरअंदाज कर दिया। अपने मठाधीश योगी आदित्यनाथ को ही नकार दिया। यह बेहद चौंकाने वाला जनादेश है। कांग्रेस और अतीक अहमद की मौजूदगी तो ‘वोट कटवा’ की ही रही। यदि सपा-बसपा का यह समझौता, अंततः गठबंधन में तबदील हो गया, तो आने वाले चुनाव भी दोनों की झोली में ही होंगे, इस भविष्यवाणी को कोई रोक नहीं सकता। यह रणनीतिक मतदान की भी जीत है, क्योंकि गोरखपुर और फूलपुर में कांग्रेस की जमानत जब्त हुई। जनता ने सपा, बसपा, रालोद, वामदल, पीस पार्टी, निषाद पार्टी आदि पक्ष को वोट दिए और भाजपा की हार तय हुई। अभी तो भाजपा की योगी सरकार 19 मार्च को सत्ता में अपना पहला वर्ष पूरा करेगी, लिहाजा सत्ता-विरोधी लहर सरीखी दलीलों को माना नहीं जा सकता। दो महत्त्वपूर्ण कारण हो सकते हैं। एक तो मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के बीच समानांतर सत्ता के टकराव और दूसरे, आम जनता के मुद्दों की अनदेखी। उप्र से जुड़े विशेषज्ञों का साफ कहना है कि पिछली सरकार में जो समीकरण अखिलेश यादव और चाचा शिवपाल के बीच थे, योगी और केशव प्रसाद मौर्य के दरमियान लगभग वही संबंध हैं। मौर्य के पास लोक निर्माण विभाग है, लेकिन आज तक वह राज्य की सड़कों के गड्ढे तक नहीं भरवा पाए हैं। नोएडा जैसे औद्योगिक शहर में भी सड़कों की स्थिति बेहद खस्ता है। बहरहाल यह भाजपा की बहुत बड़ी चुनावी हार है। पार्टी और नेता स्तब्ध हैं। आत्मचिंतन की बात कही जा रही है। अनौपचारिक तौर पर सवाल किए जा रहे हैं कि बूथों पर तैनात जो कार्यकर्ता मतदाताओं को घर से निकाल कर बूथ तक लाने में सक्षम रहे हैं, वे गोरखपुर और फूलपुर में नाकाम क्यों रहे? क्या ‘चाणक्य’ अमित शाह ने उन्हें इन दो संसदीय क्षेत्रों में नहीं लगाया था? बेशक हार कितनी भी बड़ी हो, लेकिन उसकी व्याख्या 2019 से जोड़ कर नहीं की जा सकती। तुरंत इस बिंदु पर नहीं पहुंचा जा सकता कि विपक्षी गठबंधन 2019 में ‘मोदी रथ’ को रोकने में सफल होगा। 2014 की जीत के बाद भाजपा छः संसदीय उपचुनाव हार चुकी है और अभी तीन क्षेत्रों में उपचुनाव होने हैं। ऐतिहासिक 282 सीटों वाला जनादेश कम होकर 274 पर आ चुका है। बहुमत के लिए 272 सीटें अनिवार्य हैं। बेशक केंद्र और प्रदेश में भाजपा सरकारों को कोई संकट नहीं है, लेकिन सपा-बसपा मिलाप ने एक चुनावी फार्मूला जरूर दिया है। उनकी ताकत को कमतर नहीं आंका जा सकता। जिस तरह 1993 में कांशीराम और मुलायम सिंह यादव के गठबंधन ने कमाल किया था और उप्र में सपा-बसपा की पहली, साझा सरकार बनाई थी, लगभग उसी लीक पर ‘बुआ-बबुआ’ का तालमेल लगता है। जीत के बाद बबुआ बुआ से मिलने उनके आवास गए। निश्चित तौर पर जश्न के साथ भविष्य की रूपरेखाओं पर चर्चा हुई होगी। लेकिन अब भी समय तय करेगा कि 2019 के मद्देनजर सपा-बसपा और सहयोगी दलों में उचित गठबंधन होता है या नहीं! यदि इसी तर्ज पर विपक्षी गठबंधन बनता है, तो उसका नेता कौन होगा? क्या अब लगातार जनादेशों को देखते हुए कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की ‘छाया’ तले आने को तैयार होगी? ऐसे जनादेशों से ही 2019 के निष्कर्ष तक इसलिए नहीं पहुंचना चाहिए, क्योंकि लोकसभा चुनाव का परिदृश्य राष्ट्रीय होता है। मुद्दे और सरोकार राष्ट्रीय होते हैं। भावी प्रधानमंत्री के तौर पर कुछ राजनीतिक चेहरे भी राष्ट्रीय होते हैं। जब ऐसी बहस छिड़ेगी, तो प्रधानमंत्री मोदी के सामने तमाम विपक्षी चेहरे गौण साबित होंगे और एकमात्र विकल्प मोदी ही होंगे। अखिलेश या मायावती के दलों का विस्तार और स्वीकृति भी राष्ट्रीय नहीं है। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू आदि नेताओं की अपनी दावेदारी है। लिहाजा ऐसे जनादेश राष्ट्रीय राजनीति के संकेतक तो साबित हो सकते हैं, लेकिन अभी यह मान लेना कि ‘मोदी रथ’ रोक लिया जाएगा, बचकानापन ही होगा।


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